मुक्तिबोध शृंखला:18
स्व का निर्माण, सृजन, परिष्कार आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। स्व स्वायत्त है लेकिन अपने आप में बंद नहीं। उसकी प्राणमयता उसकी गतिशीलता में है। वह कभी भी पूरा बन नहीं चुका होता है। उसके अधूरेपन का अहसास क्या उसे निर्बल करता है या उसे चुनौती देता है कि वह अपना विस्तार करता रहे? ‘रबिन्द्रनाथ’ शीर्षक कविता में स्व की इस अनंत यात्रा को इस प्रकार प्रकट किया गया है:
“मैं बदल चला सहास
दीर्घ प्यास
मुझे देखना अरे अनेक स्थान
अभी मुझे कई बार मरण, और प्राण प्राप्त
कई बार शुरुआत, कई बार फिर समाप्त
मुझे अभी गूँजना क्षितिज तीव्र वायु
मुझे अभी अनेक पर्वतों-उभार पर अनेक साँझ बहुत प्रात
देखना। अपूर्ण आयु।
(अ)पूर्ण उर, अपूर्ण स्वर!”
यह कई बार का मरना क्या हो सकता है? कई बार मरकर फिर नए प्राण प्राप्त करना? यह एक नई ज़िंदगी हासिल करने की बड़ी प्यास है जो कभी बुझती नहीं? आत्मा की यात्रा जिसका कोई अंतिम बिंदु नहीं हो सकता। उसमें तृप्ति नहीं है। पूर्णता का अहंकार नहीं है।
मुक्तिबोध के रचनाकार जीवन के आरम्भिक दौर की एक सरल कविता है ‘जीवन जिसने भी देखा है’। उसका सवाल है:
“जीवन जिसने भी देखा है,
क्या पाया है, क्या लेखा है?
क्या अपने में तृप्त हो चला?”
प्यास, तृषा मुक्तिबोध के प्रिय शब्दों और प्रत्ययों में से एक है। बिलकुल आरंभिक दौर की एक कविता है ‘जीवन-यात्रा’। उसका पहला अंश:
” मेरे जीवन का विराम !
नित चलता ही रहता है मेरा मनोधाम
गति में उसकी संसृति है
नित नव जीवन में उन्नति है
नित नव अनुभव हैं अविश्राम
मन सदा तृषित, सन्तत सकाम”
नव जीवन नव अनुभव के बिना सम्भव नहीं। मन इन नए अनुभवों के लिए ही तृषित रहता है या उसे रहना चाहिए। उसकी यात्रा या उन्नति इन अनुभवों को समेटकर या उन्हें अपना अंग बनाकर ही अर्थवान हो सकती है। गति वह है जो किसी रास्ते पर चलते हुए पथिक की छवि में प्रकट होती है। दूसरी वह जो वृक्ष या पौधे की अनायास होती वृद्धि में प्रकट होती है:
“अपने ऊपर चढ़कर बढ़ता है
जीवन-विटप सहस्र-शाख
आश्रय देता है अपने में
नित स्वप्न-खगों को लाख-लाख”
हजारों शाखाओंवाला जीवन का वृक्ष अनेकानेक स्वप्न रूपी पक्षियों को आसरा देता है। वे उसकी छाया में स्वर पाते हैं और
“जीवन-तरु बढ़ता जाता है
क्षण-क्षण में विकसित हो अपार
जीवन बन जाता दुर्निवार
जीवन-धारा को बहने में
फिर मिल जाती है नई आँख”
अपनी यात्रा में ही नई आँख, नई दृष्टि प्राप्त होती है। स्वप्न और अनुभव दोनों ही मिलकर नवीन दृष्टि का निर्माण करते हैं। अनुभवों को अनदेखा करना या तिरष्कृत करना क्योंकि वे बनी हुई निगाह की सुरक्षा को तोड़ देते हैं जीवन को अवरुद्ध करता है और क्षीण भी। इस जीवन के विस्तार, इसकी अप्रत्याशितता, अनिश्चितता और चकित करने की क्षमता के प्रति स्वीकार ही नहीं स्वागत भाव होना आवश्यक है। बार-बार गेटे की यह उक्ति दुहराई गई है कि विचारों की झाड़ियाँ सूख जाती है जबकि जीवन का वृक्ष हरा रहता है लेकिन अपने व्यवहार में हम जीवन से ही लड़ते रहते हैं। इसी कविता का एक दूसरा अंश पढ़िए,
“मानव-जीवन में चलनेवाली
अंतर्धारा नहीं अंध
जो लाँघ चली है बौद्धिक सीमा के
ये कृत्रिम सभी बंध”
बौद्धिक सीमा के उल्लंघन या अतिक्रमण का अर्थ यह नहीं कि यह अंतर्धारा दृष्टिहीन है। असल चीज़ है चलना, बहना, गतिशील रहना, उसी में आप खुद का नया कर सकते हैं :
“…अंतर्धारा होती नवीन
चलने में हो चलती विलीन
जल अपने में आलोकित करता
है कुछ कोमल दीप मंद
मानव-जीवन में चलनेवाली
अन्तर्धारा नहीं अंध।”
क्या जीवन को किसी तत्त्व-प्रणाली की कसौटी पर कसकर उसकी प्रमाणिकता सिद्ध की जाएगी? पहले जैसे ‘बौद्धिक’ सीमा का जिक्र है, आगे चिंतक को सावधान किया जाता है,
“ओ चिंतक, अपनी तत्त्व-प्रणाली
में न बाँध जीवन अबाध
हो रहा इसी से अनाह्लाद”
‘अनाह्लाद’ शब्द पर भी ध्यान देंगे। यह उन बहुत सारे शब्दों में एक है जिनसे मुक्तिबोध ने हिंदी काव्य भाषा समृद्ध किया है। ज़िन्दगी में जो भी रंज पैदा होता है वह इस बंधन के चलते, जब उसके प्रवाह को, या सही कहें उसकी अंतर्धारा को बाधित किया जाता है तत्त्व प्रणाली के द्वारा। इसके कारण भारी त्रासदियाँ मनुष्य जाति ने अपने आजतक के इतिहास में झेली हैं। इसलिए अनुरोध यह है कि वह चिंतक या बौद्धिक
“जीवन की गति को पहचाने
पहले, तब तू कर प्रयास
निःसंबल ही है बुद्धि एक
व्यक्तित्व बहे रे अनायास”
व्यक्तित्व क्या अनायास बन सकता है? या उसका कोई आधार होगा? लेकिन उसके पहले
“…समझेगा तू आत्मदान
की होती चलती विविध रीति
है आत्मत्याग में आत्मप्रीति”
आत्मदान, आत्मत्याग के बिना आत्मप्रीति कैसे हो सकती है? बौद्धिक सीमाओं से विरक्ति का अर्थ यह नहीं कि जीवन निराधार है। एक पैमाना है, एक मापदण्ड जो उसका मूल्य निर्धारित करेगा। अबाधता, स्वाभाविकता का अर्थ मूल्यशून्यता नहीं:
“… वह मानदण्ड
जो रत्ती-रत्ती तोल तोल
अपने को, सभी मनुष्यों में
देता है बाँट बिना मोल
तू भूल चुका वह मानदण्ड
जीवन का सत्य जो अखण्ड।”
पहली कविता में वे द्वंद्व के गलने की बात करते हैं, और ‘ओ कलाकार’ में वे सदा भेद देखने के लिए कलाकार को फटकारते हैं। अभेद की स्थिति तक पहुँचना बिना भेद की पहचान के संभव नहीं। लेकिन भेद या भेद के भाव दो प्रकार के हो सकते हैं। एक जो आमंत्रण हो और दूसरा जो विलगाव बढ़ाए। एक भेद की चेतना पारस्परिकता की भावना पैदा कर सकती है। ‘आत्मा के मित्र मेरे’ की इन पंक्तियों को पढ़िए:
“वह परस्पर की मृदुल पहचान, जैसे पूर्ण
चन्दा खोजता हो
उमड़ती निःसीम निस्तल
कूलहीना श्यामला जल-राशि में प्रतिबिम्ब अपना, हास अपना “
परस्परता आत्मबोध, आत्मत्याग, आत्मविसर्जन के साथ परस्परता की चाह लगी रहती है। यह परस्परता का बोध एक और विस्तार की ओर ले चलता है, जिसका आश्रय प्रत्येक परस्परता को चाहिए,
“वह परस्पर की मृदुल पहचान जैसे
अतल-गर्भा भव्य धरती हृदय के निज कूल पर
मृदु स्पर्श कर पहिचान करती, गूढ़तम उस विशद
दीर्घच्छाय श्यामल-काय बरगद वृक्ष की,
जिसके तले आश्रित अनेकों प्राण,
जिसके मूल पृथ्वी के हृदय में टहल आए, उलझ आए.”
इस बिम्ब को थोड़ी देर ठहर कर देखिए; एक बरगद जिसमें अनेकों प्राण आसरा पाते हैं, घनी छायावाला। लेकिन वह स्थिर दीखते हुए भी गतिमान है: उसकी जड़ें धरती के हृदय में टहल आई हैं।
भेद-अभेद, भिन्नता और अभिन्नता:
“मित्र मेरे,
आत्मा के एक!
एकाकीपन के अन्यतम प्रतिरूप।
जिससे अधिक एकाकी हृदय।
… भिन्नता में विकस ले, वह तुम अभिन्न विचार
बुद्धि की मेरी शलाका के अरुणतम नग्न जलते तेज
कर्म के चिर-वेग में उर-वेग के उन्मेष.”
‘उर-वेग’ उन्मेष कर्म के चिर वेग में होता है। आत्मा का मित्र ही वह अभिन्न विचार है जो भिन्नता में विकसित होता है। पहले हम बौद्धिकता और तत्त्व-प्रणाली की सीमा की चर्चा कर आए हैं। उससे कवि का असंतोष क्यों है? ‘अशक्त’ कविता की पंक्तियों में उसका उत्तर है:
“पान्थ है प्यासा, थका-सा धूप में
पीठ पर है ज्ञान की गठरी बड़ी।
झुक रही है पीठ, बढ़ता बोझ है
यह रही बेगार की यात्रा कड़ी।”
आगे:
“अर्थ खोजी प्राण ये उद्दाम हैं
अर्थ क्या? यह प्रश्न जीवन का अमर।
क्या तृषा मेरी बुझेगी इस तरह?
अर्थ क्या? ललकार मेरी है प्रखर।”
अर्थ की खोज और उसकी पहचान क्या ज्ञान के बिना सम्भव है ? लेकिन जीवन का अर्थ क्या है? कौन-सा ज्ञान उस तक पहुँचने में मदद करता है? और ज्ञान से अपेक्षा ही क्या है? मैं उस ज्ञान का क्या करूँ
“जबकि ऐसा ज्ञान मेरे प्राण में
तृप्ति-मधु उत्पन्न करता ही नहीं,
जबकि जीवन में मधुर सम्पन्नता,
ताजगी, विश्वास आता ही नहीं”
मात्र विग्रह नहीं, चिर अभेद नहीं। आस्था और ज्ञान के बीच इतना फर्क भी नहीं। एक ज्ञान है जो आस्था देता है, यह आस्था कि जीवन संभव है, कि प्रेम संभव है, कि विवेक का अर्थ हृदय के आवेग को बर्फ कर देना नहीं है। ‘सहज गति से’ शीर्षक कविता में ‘ज्वलत् आस्था’ प्यासी है और ‘आराधन’ तृषित। जीवन क्या है ? ‘जीवन जिसने भी देखा है’ की पक्तियाँ हैं:
“एक सुदूर स्वप्न-सी सन्तत
जीवन एक मधुर ज्वाला है
चिर स्वतंत्र-व्यामोन्मुख, उन्नत!”
वह जीवन कैसे हासिल किया जा सकता है?
“तुम्हें पूछना हो तो राही
पूछ चलो स्वाधीन प्रश्न कुछ
उसका मर्म समझना हो तो
अन्तर की पहचान करो कुछ।”
प्रश्न अपने हों, स्वाधीन हों किसी और के दिए न हों! हर पीढ़ी अपना नयापन इसी से साबित कर सकती है कि उसके पास अपने सवाल हैं या नहीं। बार-बार अन्तर की पहचान करने का आह्वान है। ‘ये तुम्हारी’ कविता में इस महत्त्वाकांक्षी अन्तर का चित्र है:
“इस वक्ष के अंदर चली जो धुकधुकी
वहाँ कोई है कि जो ऐसा
भव्य महलों से अधिक ऊँचा रहा….
… चूमता आकाश के कोमल कपोल
नीचे धरा के सरस अचल को समेट
जो वक्ष के अन्दर सदा से बोलता है धुकधुकी में गति भरे
मैं तुम्हें अपने विशालाश्लेष में बद्ध कब से ही किए, ओ भव्य सुन्दर,
ऐसी कई ऊँचाइयाँ
हैं छिपी मेरे हृदय के अंतराल-निवेश में,”
आकाश के कोमल कपोल, धरा का सरस अचल और हृदय में छिपी ऊँचाइयाँ: ये मुक्तिबोध की सचेत काव्यभाषा के कुछ नमूने हैं। यह अन्तर हर किसी के पास है, हर किसी की सम्भावना है और हर किसी का अधिकार है। ‘बबूल’ शीर्षक कविता को निराला की कुकुरमुत्ता की श्रेणी में रखने की जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए:
“उसके सदा तुच्छ समझे जानेवाले
उस गहन हृदय में
गूढ़ आँसुओं में
वसंत के वासंती रंग चमक-चमक जाते हैं
बरबस
उभर-उभर उठती हैं अंतस्तल की छुपी लकीरें
आसमान के ताराओं की, सलज चाँद की
लाल सूर्य की”
यह अपेक्षित अन्तर है लेकिन उपेक्षित भी:
“उसके तुच्छ उपेक्षित अन्तर
में अथाह रस का जो सागर
जाने क्यों सुदूर के रवि के आकुल एक परस के द्वारा,
यों सचेत होकर अपने से
दूर दिशाएँ चाह रहा है अपने उर अंचल में ढँकना।”
यह बहिष्कृत अन्तर है जो सारी धरती को दुलारने का अधिकार चाहता है। ‘ओ कलाकार’ में बरगद की जड़ें पृथ्वी के हृदय में टहल आई हैं। यहाँ
“उस बबूल के मूल
हृदय में धारण करनेवाली धरती
की वह काली नंगी छाती
आप्लावित होती
बबूल के पीले आत्म-विसर्जित फूलों की वर्षा से।”
मुक्तिबोध के बिम्बों और चित्रों में दुहराव है। इस दुहराव से वे बिंब पाठक की चेतना में स्थापित होते है। सजग पाठक उस दुहराव में सूक्ष्म अंतर को भी देख सकता है। जैसे ‘ओ कलाकार’ में जड़ें सक्रिय हैं, वे पृथ्वी के हृदय में घूम आती हैं लेकिन ‘बबूल में सक्रियता धरती की है जो बबूल के मूल को अपने हृदय में धारती है। इस चित्र में धरती की एक हृदयवान शरीर के रूप में कल्पना भी ध्यातव्य है। उसके साथ ही रंगों का संयोजन भी। धरती की काली छाती पर बबूल के पीले फूल। काले और पीले का मेल। बिना रंगों के मुक्तिबोध अपनी कोई बात कह नहीं पाते।
इस आत्मदान से पवित्रता का भाव पैदा होता है:
“सहसा सारी भूमि पीत,
तरु की आत्मा हलकी पुनीत
मन भी पुनीत, वन भी पुनीत।”
मन और वन यहाँ सिर्फ तुक मिलाने के लिए साथ नहीं हैं। मन का एकल भाव और वन का मात्र बहुल नहीं बल्कि अराजक बहुल भाव क्योंकि वन में वनस्पतियों की कोई योजना नहीं होती। दोनों ही साथ-साथ पवित्रता के भाव का लाभ करते हैं।
मुक्तिबोध के आत्म या स्व या निज पर अत्यधिक बल ने उनके अनेक सुज्ञ पाठकों को भ्रम में डाला है। स्व निर्माण के साथ उस स्व पर खुद अपना पूरा अधिकार भी जुड़ा हुआ है। क्या इसे किसी गुरु की आवश्यकता है? मुक्तिबोध अपने पत्रों में नेमिचन्द्र जैन को वह गुरु बतलाते हैं। ऐसा गुरु जिसने उनके भीतर भयंकर आलोड़न पैदा किया। लेकिन एक कविता में वे मन या निज के परिष्कार का स्रोत खुद अपने मन को ही बतलाते हैं। ‘अन्तर्दर्शन’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए:
“… मेरा ज्ञान उठा निज में से, मार्ग निकाला अपने से ही।।
मैं अपने में ही जब खोया तो अपने से ही कुछ पाया।
निज का उदासीन विश्लेषण आँखों में आँसू भर लाया।।
मेरा जग से द्रोह हुआ पर मैं अपने से ही विद्रोही।”
आत्म-समीक्षा हर कोई कर सकता है, हर कोई अपना विश्लेषण कर सकता है लेकिन जैसा पहले चर्चा हो चुकी है विश्लेषण का उद्देश्य स्पष्ट रहना चाहिए। ‘मेरे अन्तर’ कविता में यह अन्तर ‘आलोक-तिमिर, सरिता-पर्वत’ पार करता जाता है, वह ‘तपते जीवन का महा ज्वार’ वहन करता है। यह कोई असाधारण व्यक्ति नहीं जो ‘गत -दुःख-हर्ष’ होकर पूर्ण हो गया हो। सांसारिकता से परे वह नहीं। लेकिन जो अपने आत्म के आलोक में आगे बढ़ने का साहस करता है ‘उसके पथ पर पहरा देते ईसा महान् वे स्नेहवान’ और बुद्ध स्वयं छाया बनकर साथ चलते हैं।
पूर्णतः निर्दोष, त्रुटिहीन वह नहीं। किन्तु वह खुद से सवाल करने से संकोच नहीं करता, वही उसे जीवंत रखता है:
“पर उसके मन में बैठा वह जो समझौता कर सका नहीं
जो हार गया, यद्यपि अपने से लड़ते-लड़ते थका नहीं।”
यह अनथक संगरशील मनुष्य वह है जिसके ‘उच्च भाल’ पर ‘विश्व-भार’ है और ‘अन्तर में निःसीम प्यार’।
गति वह है जो किसी रास्ते पर चलते हुए पथिक की छवि में प्रकट होती है। दूसरी वह जो वृक्ष या पौधे की अनायास होती वृद्धि में प्रकट होती है….
LikeLike