मुक्तिबोध शृंखला: 20
मुक्तिबोध मृत्युशैय्या पर थे। उनके तरुण प्रशंसक मित्र उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित करने की तैयारी कर रहे थे। मुक्तिबोध के जीवन काल में ही यह हो रहा था लेकिन वे उसे प्रकाशित देखनेवाले न थे। नाम क्या हो किताब का? अशोक वाजपेयी ने इस घड़ी का जिक्र कई बार अपने संस्मरणों में किया है। श्रीकांत वर्मा और उन्हें यह तय करना था। खुद मुक्तिबोध जो नाम चाहते थे, वह था ‘सहर्ष स्वीकारा है।’ अशोकजी ने लिखा है,
“हमीदिया अस्पताल में मुक्तिबोध से जिस अनुबंध-पत्र पर दस्खत कराए थे, उसमें उनके पहले कविता संग्रह का शीर्षक था: सहर्ष स्वीकारा है। बाद में हमलोगों यानी नेमिजी, श्रीकांत वर्मा और मुझे लगा कि उनकी कविता में हर्ष और स्वीकार दोनों ही ज़्यादातर नहीं हैं, कोई और शीर्षक होना चाहिए। अंततः हम ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है‘ पर सहमत हुए।”
मुक्तिबोध इस पर कोई राय देने की हालत में न थे। कविता-संग्रह इसी नाम से छपा। मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद दिल्ली में हुई गोष्ठी में अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध पर अंग्रेज़ी में एक निबंध पढ़ा जो बाद में हिंदी में ‘भयानक खबर की कविता’ शीर्षक कविता से छपा। कविता संग्रह के इस शीर्षक ने और खुद मुक्तिबोध के अपने मित्रों ने मुक्तिबोध के बारे में एक धारणा बन जाने में जाने-अनजाने (?) मदद की: यह कि मुक्तिबोध भयावह, भयंकर, अस्वीकार, संघर्ष और क्रांति के कवि हैं।
‘मुक्तिबोध के साथ साठ साल’ शीर्षक अपने निबंध में अशोकजी ने मुक्तिबोध को पढ़ने की कठिनाइयों का जिक्र किया है। उनमें से एक कठिनाई यह है कि मुक्तिबोध की कविता में मुस्कुराते नहीं और वे पाठक को कोई राहत नहीं देते। उनका जो चित्र उनकी किताबों में छपता रहा, उसमें उनके चेहरे की चट्टानी तराश, तीखी नासिका, और कसे हुए पतले होंठों ने भी उनकी कविताओं का एक चेहरा पाठकों की पीढ़ियों के सामने गढ़ने में भूमिका निभाई। अशोकजी ही नहीं अनेक आलोचकों का खयाल बना कि मुक्तिबोध का काव्य संसार एक बीहड़, बेराहत, अँधेरा प्रदेश है। शमशेरबहादुर सिंह ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में पाठक को सावधान किया,
“इनमें लय और सुर और ताल की बारीकियां न ढूँढ़ो। ये लिपियों की भावुकता नहीं, इनमें विचार गुनगुनाते हैं। इनमें तस्वीरें बहुत जागे हुए होश की हैं। इनका अर्थ …प्रेम का आलिंगन नहीं, विलाप नहीं, पैमानों के इशारे नहीं, भीगती रातों, करवट लेती सुबहों की अंगड़ाइयाँ और कसमसाहटें नहीं। …‘फ़रार‘ नहीं, इंकलाब नहीं। इनका रोमान बिलकुल आज का है और बहुत पुराना भी है।”
प्रेम का आलिंगन, विलाप, पैमानों के इशारे, भीगती रातें तो खुद शमशेर के यहाँ भी नहीं। लेकिन इस अंश के आख़िरी वाक्य को याद रखने की ज़रूरत होगी मुक्तिबोध को समझने के लिए: ‘रोमान बिलकुल आज का …और बहुत पुराना भी’ ।
पहले संग्रह की कविताओं के चयन में भी ‘सहर्ष स्वीकारा है’ कविता नहीं मिलती जिसके पीछे मुक्तिबोध इस संग्रह का नाम देना चाहते थे। तब तक मुक्तिबोध लंबी कविताओं के कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। शायद इस कारण भी यह कविता, आकार में छोटी होने के कारण संग्रह में आने से रह गई।
कविता शुरू ही पूर्ण स्वीकार के भाव से होती है:
“ज़िंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है.”
वह है क्या जो मेरा है और ‘तुम्हें’ प्रिय है?
“गरबीली गरीबी यह, ये गभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब”
गरीबी गर्वीली है, अनुभव जो गंभीर, गहरे हैं और विचार का वैभव है, दृढ़ता है और भीतर प्रवहमान सरिता है। इन सबकी साझेदारी है। और यह सब अभिनव है। यह निश्चय ही ‘प्रेम’ कविता नहीं, यह स्वीकार हिंदी कविता के परिचित प्रेमी का स्वीकार नहीं है। लेकिन क्या यह स्वीकार का भाव ही नहीं?
आगे की पंक्तियाँ:
“जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है
जितना भी उड़ेलता हूँ, भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है? मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद क्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है।”
चाँद इस कविता में मुस्कुरा रहा है। चाँद और प्रिय के मुख का संबंध हिंदी कविता में पुराना है लेकिन यहाँ वह रूढ़िबद्ध प्रयोग नहीं लगता। यह प्रेम इतना उत्कट है कि अब सहा नहीं जाता:
“…तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।”
इस प्यार को स्वीकार करने, उसे वहन करने की शक्ति जितनी आत्मा को चाहिए वह है नहीं:
“ममता के बादल की मँडराती कोमलता
भीतर पिराती है कमजोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है
बहलाती सहलाती आत्मीयता बर्दाश्त नहीं होती है।”
यह तो अपनी आत्मा की कमजोरी है कि वह इस अपनापे को कबूल नहीं कर पा रही। चूँकि यह उजाला सह नहीं सकती, उसमें इतनी ताकत नहीं तो अँधेरे में डूब जाने का दंड ही मिले! कविता में आत्मीयता और उसके लिए आवश्यक पात्रता के बीच के द्वंद्व के बाद भी कविता का अंत इस प्रकार होता है:
“अब तक ज़िंदगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।”
मुक्तिबोध के जीवन में जाकर इस ‘ तुम’ की तलाश करने की आवश्यकता नहीं। उसके बिना भी ‘तुम’ को समझा जा सकता है। फिर भी इस प्रसंग में मुक्तिबोध के पत्र भी रचनाओं की तरह पढ़े जा सकते हैं। पत्र लेखक भी तो एक पात्र हो ही सकता है। 1958 की 9 जनवरी को नेमिचंद्र जैन को लिखे पत्र में वे अपनी दिल्ली और इलाहाबाद की यात्राओं की चर्चा करते हैं, उन्हीं सड़कों और गलियों से गुजरने की बात करते हैं जिनपर, जिनमें वे साथ-साथ घूमे होंगे। उनसे गुजरते हुए बार-बार मित्र की याद आती रही। वे अपनी एकरस ज़िंदगी की शिकायत-सी करते जान पड़ते हैं. लेकिन फौरन बाद वे लिखते हैं,
“ऐसी सारी परिस्थिति में उन सारे लोगों की, जिनके लिए जी अकुलाता है, याद आते ही ज़िन्दगी से ज़्यादा मुहब्बत हो जाती है। लगता है कि जैसे I am about to fall in love with life again.”
पत्र का अंत यहाँ होता है:
“सुबह है, धूप कमरे में आ रही है, बाल-बच्चे पढ़ने बैठे हैं, मैं ऑफिस जाने की जल्दबाजी में हूँ, लेकिन यह सोचकर कि इस सुनहली धूप के साथ जिन प्रिय जनों के मेरे मानसिक चित्र बँधे हुए हैं उन्हें नमस्कार तो कर लूँ कि पत्र लिखने बैठ गया।”
ज़िंदगी से फिर से मुहब्बत में पड़ जाना, सुनहली धूप, प्रियजनों की याद ! नेमिजी को एक दूसरे, 1950 के खत में वे उन्हें पत्रोत्तर न देने का उलाहना देते हैं:
“… निःसंदेह कि आपको मेरी याद आती होगी जैसी कि हमें वह सताती है। किन्तु मात्र एकांत पलों की स्मृति-दीप्ति भी किस काम की, अगर वह हमारे पथ को आलोकित न कर सके, अगर वह एक दूसरे के हाथ – में – हाथ दिए ज़िंदगी के साथ चलने का बल न दे पाए।
मुक्तिबोध ने एक जगह शिकायत की है कि आजकल प्रणय भावना समझने में बहुत आसानी हो गई है। वे इसके लिए कविता पढ़ने के अभ्यास को दोषी मानते हैं। भावना की सरलता और कठिनता की तरह ही हर्ष, उल्लास, स्वीकार आदि भावों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। वे भाषा की किन भंगिमाओं में हमें परिचित लगते हैं और किनमें अजनबी, इससे भाषा की हमारी संवेदना के परिष्कार का पता चलता है।
मुक्तिबोध का उछाह, उत्साह प्रकट करने का तरीक़ा इतना विशिष्ट है कि उसे समझने में परेशानी या उलझन होती है। लेकिन क्या वह इतना भी मुश्किल है? क्या उसका कारण कुछ वही नहीं जिसके चलते अज्ञेय की वैयक्तिकता को हिंदी में सामाजिकता का विरोधी समझा जाता रहा और उन्हें एक अमानुषिक निःसंग सौंदर्यवादी?
शमशेरबहादुर सिंह को लिखा एक पत्र तो पूरी कविता ही है और इसका एक संदर्भ उनकी एक कविता में मिल भी जाता है। यह जुलाई 1950 का ख़त है, अंग्रेज़ी में है। हिंदी में उसकी तासीर जाती रहेगी, फिर भी:
“आसमान में तारे हैं जो जाने कितनी दूर हैं फिर भी कितने दोस्ताना। इतनी पाक है उनकी टिमटिमाती रौशनी कि गड़बड़झाला दिमागवाले शायरों ने उन्हें अपने माशूक़ मान लिया।
दोस्तों की तो ज़ात ही अलग होती है। वे शायर नहीं रह जाते जब वे दोस्त होते हैं, वे होते हैं यथार्थवादी और पक्के दिमागोंवाले चिंतक और नरमदिल अहमक, हाँ, मूर्खता अच्छी चीज़ है!…
और मुझे सितारों की याद आती है, इतनी दूर, इतने अलग, इतने पाक! समंदर पार करने के लिए वे अभी भी रहनुमा रौशनी हैं।
सितारों से कोई बात नहीं कर सकता जबतक कि वह पागल न हो गया हो। और मैं खुद को पागल कहलाना बर्दाश्त नहीं कर सकता।…एक बार तारों तक पहुँच जाएँ, फिर हम उनसे बात कर सकते हैं।
लेकिन उन्नीस सौ पचास साल के एक पेटी बूर्जुआ के पास ऐसे हैरतंगेज़ नतीजों के लिए ज़रिया ही क्या है? सितारों तक पहुँचना! या खुदा! कितना मुश्किल!”
ज़ाहिर है इस अंश का उल्लास, उछाह, इन पंक्तियों से छलका पड़ रहा हर्ष हर्ष तो है ही, साथ ही हर्ष की नई भंगिमा भी है।
मुक्तिबोध को क्या सिर्फ़ उनकी लम्बी कविताओं के माध्यम से ही पढ़ा जाए? उनकी बाक़ी कविताओं का क्या करें? और लम्बी कविताओं को भी क्या किसी एक केंद्रीय, मुख्य भाव की अभिव्यक्ति मानकर पढ़ें? या भाव समूह और भाव-सरोवर मानकर कर? अगर हम मुक्तिबोध को भयानक खबर का कवि मानकर उन्हें पढ़ेंगे तो उनके साथ इंसाफ़ नहीं होगा और न अपने साथ। उन्हें भविष्यवक्ता मानकर पढ़ना भी ठीक न होगा। देश के हर संकटपूर्ण क्षण का संकेत उनकी कविता में खोजकर उसके आधार पर उन्हें बड़ा कवि घोषित करें तो बाक़ी कवियों का क्या करेंगे?
‘हरे वृक्ष’ मुक्तिबोध की ही कविता है:
“ये हरे वृक्ष
सहचर मित्रों-से हैं सहस्र डालें पसार
(ये आलिंगन-उत्सुक बाँहें फैली हज़ार)
अपने मर्मर अंगार-राग
से मधु-आवाहन के स्फुलिंग
बिखरा देते हैं बार-बार।”
राग है किंतु वह है अंगार-राग और आवाहन है मधु-आवाहन। मधु आवाहन की चिनगारियाँ भी हैं! जाहिर है ये जलाकर ख़ाक करनेवाली नहीं। यह जो हरी आग फूट रही है इस वृक्ष से वह हृदय के तल को डँस लेती है। और यह बिम्ब देखिए:
“इस हृदय-वक्ष में छायी हैं
घन पत्राच्छादित उत्सुक शाखाएँ हज़ार;
औ’ आलिंगन-अनुभव अपार
उस नग्न वृक्ष की हरित-शीत जंघाओं का
शाखाओं का, मर्मर रव का”
पहले हरी आग थी, यहाँ हरित-शीत जंघा है! और वह जंघा नग्न वृक्ष की है। जिस आलिंगन के लिए ये हजार शाखाएँ उत्सुक, व्याकुल हैं, वह क्या प्रेम का आलिंगन नहीं हो सकता? लेकिन जाहिर है यह ‘जुही की कली’ का प्रेम नहीं। एक पुरुष-प्रेमी का आलिंगन नहीं है जिसमें स्त्री को सिमट जाना है या वह जिसकी प्रतीक्षा करती रहती है।
‘दमकती दामिनी’ कविता का आरम्भ है:
“ओ क्षितिज-रेखा पर चमकती नील चंचल दामिनी,
क्या जानती हो?
इस दमकते रूप-यौवन की अदम्य चपल लीला
देखकर मैं मुग्ध हूँ”
दामिनी प्रेमिका के लिए नहीं है, यह बहुत साफ़ है। आगे
“इस हृदय में उठ रहा एक ऐसा प्यार
जिससे स्नात कर दूँ मैं तुझे”
प्रेम और स्वीकार या अंगीकार का अंदाज़ मुक्तिबोध की कविताओं का नितांत उनका अपना है लेकिन रहता फिर भी वह प्रेम ही है। ‘कष्ट और स्नेह’ शीर्षक कविता का आरंभ मुक्तिबोधीय घर में होता है। ज़िंदगी का घर टपकता है, अंदर कीचड़ और सड़ते हुए चूहों की बदबू है लेकिन यह ‘स्वागतोत्सुक धाम’ है और ‘दिन-याम’ प्रतीक्षा में द्वार की बाँहें फैलाए खड़ा है:
“मेरा धाम तुमको चाहता है आज अपने अंक,
छायाएँ हँसीं, हँस पड़े अंगार सिगड़ी में अरुण, अकलंक।”
कुछ देर सिगड़ी में खिलते और विहँसते अंगारों की कल्पना कीजिए, उन्हें फ़ौरन किसी प्रतीक योजना में डालकर उनके प्राण न ले लीजिए जो हिंदी के पाठक प्रायः किया करते हैं।
क्या हुआ कि घर ऐसा साधारण और दीन है?
“सूखे कपड़े पहन लो गीले उतारो, यार
आत्मा ज्यों बदल कपड़े जीर्ण, नूतन तुरत लेती धार
मेरे प्रेम के हाथों बनो तुम नए-से इस बार”
इस घर में स्नेह है और है दृढ़तम धैर्य। यह मेल भी मुक्तिबोध की कविताओं में ही मिलेगा। प्रेम उसी तरह आपको नवीन कर सकता है जैसे आत्मा दूसरी देह धरकर नई हो जाती है। यह प्रेम तो है ही, इसे काव्यात्मक कहा जाए या नहीं, इससे कविता की समझ की सीमा का अंदाज़ होता है। इस कविता का वातावरण प्रसन्नता से परिपूर्ण है। ‘सूखे कपड़े पहन लो गीले उतारो, यार’ का बेतकल्लुफाना अंदाज़ भी बरबस आपको जकड़ लेता है।
मुक्तिबोध की एक छंदोबद्ध कविता है ‘मानवता का चेहरा’। इसकी आरंभिक पंक्तियाँ हैं:
“आसमान से खिंच आयी है धरती तक एक गहरी रेखा
मेरे मस्तक में उतरी तसवीर गुलाबी मुसकानों की,
भावी के कमलों का अनुभव या वह परिमल मानवता का ।”
इस कविता में अंधकार का निराकार भुतहा सूनापन गहरा है लेकिन उसे किरण की उँगली से चीरकर मस्तक में एक तेज:पुंज उगता है। कविता में रेटरिक का ज़ोर है लेकिन उस उल्लास को महसूस न करना कठिन है जो कष्ट वेदना करुणा की आँखों में रवि की किरणों की चमक देखकर दिल में उमड़ पड़ता है।
कविता के अंत में क्रांति का वर्णन जिस स्नेहपूर्ण तरीक़े से किया गया है, उसे देखिए,
“उठी महक तुलसी की, गहरे मृदुल नीम की, अपने घर की दीवालों की
अरे, क्रांति की ज्वालाओं में मानवता की वक्ष-गंध है”
मुक्तिबोध की कविताओं में स्नेह, प्रेम, आह्लाद है लेकिन जिस रूप में हम उन्हें पहचानने के आदी हो गए हैं, उस रूप में नहीं। कवि जो प्रेम रचते रहे हैं उससे हमारे कवि को संतोष नहीं। वह ज़िंदगी की आँखों में आँखें डालकर देखने करने का हामी है। शिकायत उसे कविता की परिपाटी से है जो नई संवेदना को समझ ही नहीं पाती:
“प्राकृतिक चित्र-रेखाओं से अंकित विशाल
चित्रों के स्वाभाविक प्रसार—-
हमने देखे हैं हमने रोमांटिक निज-विचार
शाखाग्रों पर झूलते फूल-दल में चंचल
हमने देखे हैं कपोल…”
हम प्रकृति को देख ही नहीं पाते। उनमें भी अपने रोमांटिक विचारों की छाया खोजते हैं। जो फूल-दल शाखाग्रों पर झूल रहे हैं, हम उन्हें प्रेमिका के कपोल बना देते हैं।
इस काव्य-अभ्यास से मुक्ति चाहिए क्योंकि इससे बाधित होकर
“हम देख नहीं पाए कोमल
प्राकृतिक मधुर सौंदर्य सरल
जीवन को परख नहीं पाए
पर स्वप्नों में दिखते रहते
ये गोरी बाँहों के मृणाल
कर आदर्शों की कविताएँ
जीवनस्पर्शों से बचते रहे हम।”
इस अंश को ध्यान से पढ़ें। यह मुक्तिबोध की अधूरी कविता है लेकिन उसी कविता की तरह महत्त्वपूर्ण है जिसमें कवि या बौद्धिक को सावधान किया गया है कि वह जीवन को तत्त्व प्रणाली में न बाँधे। इसमें सौंदर्य की उस अभिरुचि पर अफ़सोस जाहिर किया गया है जो इतनी इंसानी हो गई है कि प्रकृति का सरल कोमल मधुर सौंदर्य देख ही नहीं पाती। इस कारण जीवन को परखने की कोई प्रेरणा हमें नहीं मिलती। हमें सपनों में भी गोरी बाँहों के कमल दीखते हैं। जीवन के स्पर्श से बचने के लिए आदर्श की आड़ लेते हैं।
जीवन का स्पर्श ही नहीं, उसके तूफ़ान को सीधे कलेजे पर झेलना क्या सबके बूते की बात है!
गरीबी गर्वीली है, अनुभव जो गंभीर, गहरे हैं और विचार का वैभव है, दृढ़ता है और भीतर प्रवहमान सरिता है। इन सबकी साझेदारी है। और यह सब अभिनव है। यह निश्चय ही ‘प्रेम’ कविता नहीं, यह स्वीकार हिंदी कविता के परिचित प्रेमी का स्वीकार नहीं है। लेकिन क्या यह स्वीकार का भाव ही नहीं?
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