मुक्तिबोध शृंखला:21
जीवन में अनाह्लाद उत्पन्न होता है अगर हम उसे तत्त्व प्रणाली से बाँधने की कोशिश करें। सैद्धांतिक आत्मविश्वास एक प्रकार की ट्रेजेडी है क्योंकि वह जीवन की पेचीदगी के प्रति पूरी तरह लापरवाह होता है। वह अपने सिद्धांत की काट में जीवन को फिट करने की कोशिश करते हुए उसकी हत्या कर डालता है। जीवन जीने में ही आह्लाद है। कहीं किसी अंतिम बिंदु पर पहुँच जाने में नहीं। प्रसन्नता, हर्ष, उल्लास, खुशी सच्ची कब है? जब वह स्वार्थ से परे जलनेवाली, असंतोष की वह्नि हो। स्वार्थमय प्रसन्नता निश्चय ही निःस्वार्थ प्रसन्नता से हीन है।
मुक्तिबोध की कविता में हर्ष और आह्लाद के क्षणों की भरमार है। ‘हरे वृक्ष’ कविता में सहचर मित्रों-से हरे वृक्ष की हरी आग हृदय के तल को डँस लेती है और
“इनके प्राकृत औदार्य-स्निग्ध
पत्तों-पत्तों से
स्नेह-मुग्ध
चेतना
प्राण की उठी जाग।”
उदारता से स्निग्ध पत्तों से स्नेह-मुग्ध चेतना जगती है। विशेषण मुक्तिबोध को बहुत प्रिय हैं और उनकी भाषा में जो ऐन्द्रिकता और मांसलता है, वह उस कारण भी है। वह विशेषणों से समृद्ध है। हेमिंग्वे परिश्रमपूर्वक विशेषण रहित गद्य में उपन्यास लिखना चाहते थे। मुक्तिबोध का काम उनके बिना नहीं चलता। उन विशेषणों से ही वे उन भावों की रचना कर पाते हैं जो नितांत, उत्कट रूप से मानवीय हैं।
हरी आग से हरी आभा फूट पड़ती है और
“इस हरी दीप्ति में भभक उठा मेरे उर का व्यापक नभ.”
मन के भीतर एक आसमान है जो इस आग से प्रकाशित हो उठता है। मन के अंदर की दरार में ‘उग आते कुसुम पत्र’ , नई लताएँ। जैसे पेड़ ही भीतर-भीतर फैल रहा हो! सारा दुराव, छपाव इस हरी आग में जल जाता है। वह आग
“भरती प्राणों में अन्य प्राण
मेरे अंगों में अन्य अंग करती अनन्य।”
इन कविताओं को ध्यान से रुक-रुक कर पढ़ने पर जान पड़ता है कि मुक्तिबोध अपनी भाषा कितनी सावधानी से रच या गढ़ रहे थे। अंग, अन्य अंग, अनन्य की ध्वन्यात्मकता पर ध्यान गए बिना नहीं रहता।
जो पेड़ मन के भीतर उग रहा है, वह सौहार्द भाव का गहन-हरित पुंज है और उसमें एक गहरी प्यास , तृषा, छिपी हुई है। वह तृषा स्नेह की है। इसीलिए इस वृक्ष की शाखाएँ आलिंगन-उत्सुक है। उनमें पहले से अपार आलिंगन-अनुभव है। मन या अंतर विश्व से स्नेह को एक बार फिर उत्सुक हो उठता है।
परस्परता, दूसरे प्राणों से अपने प्राणों को संयुक्त करना। यह जो पेड़ भीतर ही पनपता और फैलता है, उसमें हजार-हजार आलिंगनों के अनुभव हैं। उसी तरह ‘नीम तरु के पात’ में वासंती निशा में प्राण नीम-तरु के पात से डोल उठते हैं और तभी मन में अनजानी ऊष्मा का सजग तूफ़ान ‘मत्त बल की वासना’ की तरह घुमड़ता है।
रात के अँधेरे में नदी के किनारे तेज हवाओं में झूमते हुए पेड़ मुक्तिबोध को प्रिय हैं। अलग-अलग रूप में ये उनकी कविताओं में लौटते रहते हैं। इन पेड़ों में हरा शोणित अस्थिर होकर दौड़ पड़ता है, जैसे संवेदना का ज्वार हो। गति की रचना, अलग-अलग प्रकार की गति, वैसे ही जैसे मुक्तिबोध भिन्न-भिन्न रंग संयोजन करते हैं, उनकी कविता की विशेषता है। बल्कि गद्य की भी।
एक गाढ़ा मादक स्नेह प्राण में चढ़ रहा है जैसे ‘तारों धुली वन-वीथियों के मुग्ध तरु-दल का’ रोर व्याकुल क्षितिज के कोर में उठ रहा हो या जैसे कोई उद्भ्रांत प्रेमी चोर की तरह किसी महल की दीवार पर चढ़ रहा हो।
विवशता किसकी है? इस स्नेह के कारण विश्वास के मधु के भार से झुका हुआ मन विवश हो उठता है। विवश होकर वह खुद को खोल देता है पूरी दुनिया के आगे। वह अंतर इस स्नेह से फूला हुआ है लेकिन उसमें कोई अहंकार नहीं। वह ‘नत-ग्रीव मधु-गंभीर मेघों-सा विनत’ है, भार से अवनत है। विवशता का यह चित्र देखिए:
“मैं क्या करूँ?
वातायनों के द्वार ज्यों रहते विवश
तारक-दृगों को राह दे,
खुलकर स्वयं
वे नैश वासंती गगन
बेछोर देते खोल
गृह में
विवश त्यों असहाय मैं
द्रुत खोल देता द्वार अपने प्राण के।”
एक नैश वासंती गगन घर में भर जाता है उसी तरह मेरे प्राण के द्वार जब खुलते हैं तो उनमें पूरी दुनिया भर जाती है। मन में जो गाढ़ा, आतुर स्नेह है वह खुद को मिटा देना चाहता है, चिह्नातीत होना चाहता है।
मिटकर वह नया जीवन चाहता है:
“तम-रात्रि के फैलाव में
निज प्रस्तरी मैदान पर बहती हुई
चिर-क्षीण-गति-शिथिलांचला
के पारदर्शी वक्ष में
उद्दीप्त नव-नक्षत्र-सा
वह उदित होना चाहता।”
वह जो तारा है, मेरे हृदय का सत्य, वह सबके हृदय का सत्य है। या होना चाहिए।
मुक्तिबोध की एक कविता है: ‘मुझे कदम-कदम पर’। छोटी कविता है। उसी समय वह लिखी गई जब “अँधेरे में’ लिखी जा रही थी। अत्यंत ही सरल। भाषा भी हल्की हो आई है।
“मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !”
उत्साह -चपल गति का आभास शुरू से ही होता है।यों तो हर कदम पर चौराहा मिलना असम्भव है लेकिन यहाँ है। चौराहा, यानी चुनाव की स्वतंत्रता। अनेक दिशाओं का एक व्यक्ति को बोध। राह भी एक नहीं,
“एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ”
हर राह से गुजरना चाहता हूँ, सारा जीवन जीना चाहता हूँ, उसके किसी अनुभव से खुद को वंचित नहीं करना चाहता। और वह इसलिए कि रास्ते सिर्फ रास्ते नहीं हैं,
“बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तज़ुर्बे और अपने सपने…
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब-सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !”
रास्तों का मतलब है पहले के यात्रियों के तजुर्बे। उनके तजुर्बे हैं और मेरे सपने हैं जिनके साथ मैं इन रास्तों पर कदम रखना चाहता हूँ। मैं पहला यात्री नहीं हूँ और मुझे सारे यात्रानुभवों से खुद को संपन्न करना है। यह मेरा दायित्व है। ज्ञान का एक अर्थ यह भी है। ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी-2’ में यशराज कहता है,
“ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है, या दूसरों का. उससे निकलते हैं निष्कर्ष, उससे होता है जीवन विवेक का विकास। यह विवेक ही एक स्वप्न देता है। …वह जीवन स्वप्न है।”
अनुभव से ज्ञान और फिर ज्ञान का खुद एक अनुभव बन जाना और उससे संपन्न होकर जीवन स्वप्न देखने की क्षमता।
‘सौंदर्य प्रतीति की प्रक्रिया’ नामक निबंध में वे इस ज्ञान से स्वप्न की यात्रा को इस तरह वर्णित करते हैं;
“होना यह चाहिए कि ज्ञान आँखों में सुनहला अंजन लगा दे, दृश्य को निःसीम और अत्यंत मनोहर कर दे, पैरों में चलने के नए आवेग भर दे, नया रोमांस विस्तृत कर उठे।”
इसी ज्ञान की वजह से मुझमें वह आकुलता होती है कि अगर मैं हर तजुर्बे की गहराई में जाऊँ तो कोई नया सत्य मिल सकता है।
“मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है;
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है,
पलभर में सबसे गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्येक उर में से तिर जाना चाहता हूँ,
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है ज़िन्दगी !”
कोई भी उपेक्षणीय नहीं, किसी को नज़रअंदाज करके आगे बढ़ना किसी एक अनमोल तजुर्बे से खुद को वंचित करना है। संभावना हर कण में है, हर क्षण में है। कोई भी हीन या क्षुद्र नहीं है। सबसे गुजर जाने का सिर्फ सबको जान लेना नहीं है। जानने की यह प्रक्रिया संबंध बनाने की, जुड़ने की प्रक्रिया है। जुड़ने का अर्थ खुद को छोड़ना भी है। अज्ञेय की ‘दे दिया जाता हूँ’ हिंदी में प्रसिद्ध है। उनके समकालीन मुक्तिबोध में आत्मलोप से नए आत्मलाभ का उल्लेख कई रूपों में मिलता है। जैसे इसके ठीक पहले पढ़ी कविता में अपने स्नेह को चिह्नातीत करके वे उसे एक नए तारे की तरह उगते हुए देखना चाहते हैं जो प्रत्येक का सत्य हो।
लेकिन इस दुनिया में खुद को देना, निष्कवच होना, निर्वस्त्र होना मूर्खता ही तो है! क्या दान प्रतिदान की अपेक्षा के साथ ही किया जाएगा? प्रेमचंद की कहानी ‘बौड़म’ याद कर लीजिए। लेकिन जो इसके बाद भी निष्कवच रहता है, यानी ठगे जाने को जो तैयार है क्योंकि वह उपयोगिता से परे रिश्ते बनाना चाहता है, वह मूर्ख लगता भले हो, है कतई नहीं। वह तो इस व्यापार में भी आनंद ले रहा है:
“बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही
सब तरफ़ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ;
और यह सब देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत्…स्वायत्त हुआ जाता है।”
दुनिया को इस तरह मैं अधिक समझ पाता हूँ, जगत को स्वायत्त करने का यही अर्थ है। लेकिन ऐसा नहीं कि मुझे कुछ मिलता ही नहीं,
“कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ ज़रा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ…
…उपन्यास मिल जाते।”
उपन्यास मिल जाने पर ध्यान देंगे। मुक्तिबोध के लिए उपन्यास एक प्रत्यय है। जीवन को उपन्यास की तरह देखने का अर्थ क्या हो सकता है?
हर इंसानी तजुर्बे की कीमत है। मैं जिन राहों पर चल रहा हूँ उनपर और कदम भी साथ हैं। मुझे सबमें, सबकी ज़िंदगी में दिलचस्पी है। अपने आदर्श के झंडे से मैं उस विचित्रताओं से भरे जीवन को ढँक नहीं देना चाहता:
“दुख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें
अहंकार-विश्लेषण, चारित्रिक आख्यान,
ज़माने के जानदार सूरे व आयतें
सुनने को मिलती हैं !
कविताएँ मुसकरा लाग-डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं।
मरने और जीने की जलती हुई सीढ़ियाँ
श्रद्धाएँ चढ़ती हैं !”
अगर दुख की कहानी है तो साथ ही वे श्रद्धाएँ भी हैं जो जीने और मरने की सीढ़ियाँ चढ़ती हैं, बावजूद इसके कि वे सीढ़ियाँ जल रही हैं। मुक्तिबोध की कविताओं और गद्य में भी आस्था, भक्ति, श्रद्धा जैसे शब्दों की उपस्थिति को नोट किया जाना चाहिए। ‘अकेलापन और पार्थक्य’ शीर्षक निबंध में मुक्तिबोध आदमी में दिलचस्पी कम होते जाने की शिकायत करते हैं। “जीवन की विभिन्न महत्त्वपूर्ण मानवीयसामाजिक क्रियाओं का अंश” कैसे हुआ जा सकता है? वह तो आदमी और उसकी ज़िंदगी में दिलचस्पी के बिना मुमकिन नहीं! उसके बिना सिर्फ अपनी प्राइवेट ज़िंदगी में सतुष्ट रहना वास्तव में एक भारी दंड है। वह इसलिए कि आप खुद को मूलयवान अनुभवों से वंचित कर रहे हैं और दरिद्र होते जा रहे हैं।
“घबराए प्रतीक और मुसकाते रूप-चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता…
उपमाएँ, द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए।”
प्रतीक घबराए हैं क्योंकि क्या वे जिसके प्रतीक हैं, जीवन के जिस अंश के, जिस रूप के, उसके साथ वे न्याय कर पा रहे हैं? प्रतीक के साथ रूप-चित्र हैं। नंगी आँखों देखे। निरावरण! रूप को सीधे ग्रहण कर पाना भी आसान नहीं। उसके लिए अपने सारे आग्रहों से मुक्त होने की शर्त है। क्या वह कभी भी पूरी तरह हो पाएगा? इन रूपों का संकलन करके ही नई उपमाएँ भी रची जा सकती हैं। हर समय को ही यह शिकायत होती है कि उपमाएँ और उपमान घिस गए हैं। उनको नया करने का उपाय इसके सिवाय है ही क्या कि एक भरपूर, संलग्न जीवन जिया जाए! तभी आपका एकांत एकाकी नहीं होगा,
“घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,
बाँहें फैलाए रोज़ मिलती हैं सौ राहें,
शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं,
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं…”
सौ बरस और जीना यानी सौ-सौ राहों पर चलना, सौ-सौ ज़िन्दगियों से गले मिलना! उपन्यास बन जाना, उपन्यास हासिल कर लेना!
हर इंसानी तजुर्बे की कीमत है। मैं जिन राहों पर चल रहा हूँ उनपर और कदम भी साथ हैं। मुझे सबमें, सबकी ज़िंदगी में दिलचस्पी है।
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