मुक्तिबोध शृंखला:22
“… पहली कठिनाई यह है कि इस युग का संगीत टूट गया है और जिस निश्चिंतता के साथ लोग अब तक गाते और छंद बनाते आए थे, वह निश्चिंतता तेरे लिए नहीं है।”
“…. भावों के तूफ़ान को बुद्धि की जंजीर से कसने की उमंग कोई छोटी उमंग नहीं है। तेरी कविता के भीतर जब भी तेरे दिमाग की चरमराहट सुनता हूँ, मुझे भासित होने लगता है, काव्य में एक नई लय उतर रही है, जो भावों के भीतर छिपकर चलनेवाले विचारों की लय है, जो कवि से एककार होकर उठनेवाले विचारों का संगीत है।”
“… जब नीति और धर्म की मान्यताएँ सुदृढ़ होती हैं और लोगों को उनके विषय में शंका नहीं रह जाती, तब साहित्य में क्लासिकल शैली का विकास होता है। … जब वायु असंतुष्ट और क्रान्ति आसन्न होती है, तब साहित्य की धारा रोमांटिक हो उठती है। … किन्तु तू जिस काल-देवता के अंक में बैठा है, उसकी सारी मान्यताएँ चंचल और विषण्ण हैं तथा उन्हें इस ज्ञान से भी काफी निराशा मिल चुकी है कि रोमांस की राह किसी भी निर्दिष्ट दिशा में जाने की राह नहीं है। … तू क्लासिकल बने तो मृत और रोमांटिक बने तो विक्षिप्त हो जाएगा। तेरी असली राह वही है जो तू अपनी अनुभूतियों से पीटकर तैयार कर रहा है।” (रामधारी सिंह दिनकर)
‘रेणुका’, ‘हुंकार’ और ‘रश्मिरथी’, ‘सामधेनी’ और ‘कुरुक्षेत्र’, ‘द्वंद्व गीत’ और ‘बापू’ में “आत्मा के ज़ोर से … कंठ फाड़कर, ह्रदय चीरकर गानेवाले’ रामधारी सिंह दिनकर ने नए कवि की कठिनाई को ईमानदारी से महसूस करते हुए उसे मस्ती के पुराने छंदों से दूर रहने का मश्विरा दिया। नए कवि का काम मनुष्य की आत्मा पर जम गई पपड़ियों को तोड़ने का है। इसके लिए अब तक जो छन्द मनोरंजन करते थे, उन्हें तोड़ देना चाहिए।
दिनकर की यह सलाह, मालूम होता है कि आज के कवि के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक है। या अब हम यह भी कह सकते हैं कि शायद ही मनुष्य कभी एक ऐसी अवस्था में विश्राम कर सके जब उसकी मान्यताओं में पूरी तरह सामंजस्यपूर्ण स्थिरता आ गई हो। मनुष्य की स्थिति संभवतः द्वंद्व से ही परिभाषित होती है। लेकिन जाहिर है, ऐसे वक्फे उसकी जीवन यात्रा में आते हैं जब उसे लगता है कि एक लंगर है उसके पास और ऐसा वक्त भी आता है जब उसकी नौका मानो दिशा खोजती हुई बस बहती चली जाती है और नाविक ध्रुव तारा खोजता रहता है।
दिनकर ने यह भी कहा कि कविता के आस आज ऐसी पृष्ठभूमि नहीं रह गई है जो सार्वभौम हो। जब वह भूमि ही छिन गई जो सार्वभौम हो तो यह विश्वास भी जाता रहा कि कोई एक श्रोता होगा जिसके लिए कवि लिखे। वे राम तो पहले ही लुप्त हो चुके थे जिन्हें सम्बोधित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था, “तुम निरखो, हम नाट्य करें।”
कविता नाट्य नहीं रह गई थी और भाषा के संगीत की मोहक शक्ति से परिचित और उसका भरपूर प्रयोग करनेवाले दिनकर ने कहा कि नई कविता को अपना संबंध संगीत से अनिवार्य रूप से तोड़ लेना होगा। दिनकर की भर्त्सना प्रायः यह कह कर की गई है कि वे आवेशमूलक काव्य लिखते थे जिसका अर्थ यह भी है कि वे पर्याप्त रूप से बौद्धिक नहीं थे। खुद मुक्तिबोध को उनके काव्य ‘उर्वशी’ में वाचलता और अतिमुखरता दिखलाई पड़ी थी। दिनकर की आलोचना इसलिए की गई थी कि ‘आवेश’ और ‘शक्ति’ को आधुनिक संवेदना के प्रतिकूल माना गया।
यह विडंबना ही है कि मुक्तिबोध ने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में शिकायत की कि
“आधुनिक भाव बोध में वह हिस्सा शामिल नहीं है जो आवेशमूलक है।”
दिनकर ने सार्वभौमिकता के लोप की बात की थी। फिर कविता से विराटता की अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन क्या हम इससे इनकार कर सकते हैं कि भले ही केंद्र विलीन हो चुका हो, धुरी टूट गई हो लेकिन मनुष्य हमेशा ही विशाल या विराट से संयुक्त होने की आकांक्षा रखता है. अपने अधूरेपन के अहसास के कारण और इस कारण भी अनेक अनुभव ऐसे हैं जो उसने नहीं किए लेकिन जो उसके जीवन को मूल्य या अर्थ प्रदान कर सकते हैं?
कोई महान् लक्ष्य उसे चाहिए। मुक्तिबोध की कहानी ‘ज़िंदगी की कतरन’ में तिवारी नाम का पात्र आत्महत्या कर लेता है। क्यों? उसका कारण उससे एक दूसरे पात्र, कहानी के वाचक के मित्र, से हुई बातचीत में मिल सकता है,
“पढ़ने में मेरा जी नहीं लगता। पढ़ने से फायदा क्या – नौकरी मिलेगी, जीविका चलेगी। लेकिन यह इतना महान् लक्ष्य नहीं है कि जो ज़िंदगी को अपनी ओर खींचता रहे, उसे अपने आकर्षण से मंत्रमुग्ध कर डाले। सवाल सचमुच मंत्रमुग्ध का डालने का ही है!”
क्या तिवारी अंतिम रूप से निराश हो गया कि उसे महानता का परस कभी नहीं मिलेगा? और इसी वजह से उसने खुदकुशी कर ली?
‘अँधेरे में’ कहानी में आधी रात ट्रेन से युवक एक कस्बे में उतरता है:
“टिकट देकर स्टेशन पर आगे बढ़ा तो देखता है कि ताँगे निर्जल अलसाए बादलों की तरह निष्प्रभ और स्फूर्तिहीन ऊँघते हुए चले जा रहे हैं. … यह विशेषता इस नगर की अपनी चीज़ है।”
लेकिन युवक ‘बौनी इमारतों और नकली आधुनिकतावाले’ इस
“… अर्ध-परिचित नगर की राह में अनुभव कर रहा था कि मानो नग्न आसमान, मुक्त दिशा और (एकाकी स्वपथचारी सौंदर्य के उत्साह-सा व्यक्ति निरपेक्ष मस्त आत्मधारा के खुमार-सा) नित्य नवीन चाँद से लाखों शक्ति-धाराएँ फूटकर नवयुवक के हृदय में मिल रही हों। नग्न, ठंडे –पाषाण, आसमान और चाँद की भाँति ही – उसी प्रकार, उसका हृदय नग्न और शुभ्र शीतल हो गया है।”
चाँद नित्य नवीन है। क्या वह एकाकी स्वपथचारी सौंदर्य का उत्साह है? व्यक्तिनिरपेक्ष मस्त आत्मधारा के खुमार-सा? लेकिन उसी चाँद से लाखों शक्ति धाराएँ फूटकर इस नवयुवक के हृदय में मिल रही हैं जो स्फूर्तिहीनता और निष्प्रभता की जड़ता को भंग करती हैं। प्रकृति प्रायः मुक्तिबोध के मनुष्य, व्यक्ति को स्फूर्ति देती है, उसके संकुचित हृदय को विस्तार की भावना से युक्त करती है। हृदय के नग्न हो जाने का क्या अर्थ हो सकता है?
जब विराट, विशाल का भाव मानव-जीवन और समाज से लुप्त हो गया हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह है ही नहीं!
इसी कहानी की रात कैसी है?
“विशाल, गहरा काला, शुक्रतारकालोकित आकाश और नीचे निस्तब्ध शान्ति...”
‘शुक्रतारकालोकित’ सिर्फ़ शब्दों का खेल नहीं है। ऐसे आकाश की कल्पना जो शुक्र तारा से आलोकित है! कुशल चित्रकार की तरह रंगों का ध्वनि के आभास से योग, जो वास्तव में किसी भी प्रकार के ध्वनि का अभाव है! उस अभाव में ही ध्वनि का भाव है। और इन सबका मेल: विशाल, गहरा काला, सिर्फ़ एक तारे की, वह भी शुक्रतारा, रौशनी में चमकता आकाश और नीचे की निस्तब्ध पृथ्वी।
विराट या विशालता के इस भाव या संवेदना का सृजन मुक्तिबोध बार-बार क्यों करते हैं? उस भाव से एकाकी मनुष्य का, जिसका जीवन अपनी धुरी से उतर गया है और जो मित्रविहीन, विषण्ण हो उठा है, योग आख़िर क्या बदल सकता है?
इस कहानी में इस मामूली शहर की एक रात में रास्ता नापते इस युवक की भेंट एक अर्ध-वृद्ध से होती है जो एक मौलवी है। उस मुलाक़ात का चित्र देखिए:
“जो छाया दो कदम पीछे चल चल रही थी, वह नवयुवक के साथ हो गई। नवयुवक ने देखा कि सफ़ेद, नाज़ुक लाठी के हिलते त्रिकोण पर चाँद की रौशनी खेल रही है; लम्बी और सुरेख़ नाक की नाज़ुक कगार पर चाँद का टुकड़ा चमक रहा है जिससे मुँह का आधा भाग छायाच्छन्न है। और दो गहरी छोटी आँखें चाँदनी और हर्ष से प्रतिबिम्बित हैं।”
आम तौर पर ऐसे सारे अंशों से हम बस गुज़र जाते हैं। लेखक जब कहानी लिखता है या कविता भी तो वह भाव-क्षण निर्मित कर रहा होता है। घटनाओं, व्यक्ति चरित्र के संगठन के अतिरिक्त वह भाव-संगठन भी कर रहा होता है। ऐसे भाव जो हमारे जीवन में सम्भव हो सकते हैं लेकिन उन्हें इस तरह देखकर हम बस चकित रह जाते हैं।
वह मौलवी चलते चलते उसके करीब आ जाता है तब इस युवक को जान पड़ता है कि उसके चेहरे पर एक ‘स्वाभाविक अच्छाई’ हँस रही थी।
कहानी के अंतिम हिस्से में वह मौलवी उससे विदा लेता है,
“मौलवी जब गली में मुड़कर गया तो युवक की आँखें उसपर थीं। मौलवी का लम्बा, दुबला और श्वेतवस्त्रावृत सारा शरीर उसे एक चलता फिरता इतिहास मालूम हुआ। उसकी दाढ़ी का त्रिकोण, आँखों की चपल चमक और भावना शक्तियों से हिलते कपोलों का इतिहास जान लेने की इच्छा उसमें दुगुनी हो गई।”
प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में ईद की नमाज़ का चित्रण जैसे हिंदी में अपनी उदात्तता के कारण अद्वितीय है वैसे ही एक मौलवी का इतना स्नेहपूर्ण लेकिन विशालता से परिपूर्ण चित्र भी।
विशालता एक अलग क़िस्म की भी है। वह युवक अँधेरे में बढ़ता जा रहा है कि उसके पैर में कुछ नरम-नरम-सा लगता है:
“…उसका संदेह निश्चय में परिवर्तित हो गया…उसकी बुद्धि, उसका विवेक काँप गया।”
वह सड़क पर सोए लोगों के शरीर पर चल रहा है:
“वह भागने लगा एक किनारे की ओर। परंतु कहाँ — वहाँ तक आदमी सोए हुए थे। उनके शरीर की गरम कोमलता उसके पैरों से चिपक गयी थी।…उसके पैर काँप रहे थे।…अँधेरे के उस समुद्र में उसे कुछ नहीं दीखा। यह उसके लिए और भी बुरा हुआ। उसका पाप यों ही अँधेरे में छिपा रह जाएगा।”
ग्लानिग्रस्त युवक उस अँधेरे में आगे बढ़ता है,
“मौन शीतल चाँदनी सफ़ेद कफ़न की भाँति रास्ते पर बिछती हुई दो क्षितिजों को छू रही थी। एक विस्तृत, शांत खुलापन युवक को ढँक रहा था…”
चाँद वही है जिससे हज़ारों शक्ति धाराएँ युवक के हृदय को स्फूर्ति दे रही थीं। अब चाँदनी एक विशाल कफ़न है। खुलापन अभी भी है, विस्तार भी है, लेकिन उनका अर्थ बदल गया है। कहानी ख़त्म यहाँ होती है,
“उस लम्बी सुदीर्घ श्वेत सड़क पर वह युवक एक छोटी-सी नगण्य छाया होकर चला जा रहा था।”
मुक्तिबोध का गद्य कविता की तरह ही रूपकात्मक है। रूपक के प्रयोग पर शेक्सपीयर के संदर्भ में बोरिस पास्तरनाक ने कहा,
“रूपकों का प्रयोग मनुष्य के सतत अनित्य स्वभाव का सीधा परिणाम है। एक दीर्घ अवधि के विस्तार में वह अपने लिए दायित्वों का जो विशाल आयोजन करता है, उसके एकदम विपरीत भी (वह) है। इस वैषम्य के साथ मनुष्य बाध्य है कि वह जीवन पर बाज़ की निगाह डाले और अपनी व्याख्या इसके क्षणिक उद्घाटनों के माध्यम से करे। यही कविता है। रूपक का प्रयोग महान लेखक की स्टेनोग्राफ़ी है, उसके मस्तिष्क का शॉर्टहैंड है।”
मनुष्य का स्वभाव अनित्य है या अस्थायी है। इसके बावजूद वह स्थायीत्व की कामना करता है। उसे नित्यता की तलाश भी है। बल्कि उनकी रचना करता भी है। अनित्य स्थिति के बोध के साथ नित्यता या सम्पूर्णता की खोज के कारण मन में एक द्वंद्व, एक पीड़ा बनी रहती है। क्या वह इस कारण है कि वह कितना भी स्थायी होने की कोशिश करे, नित्य होने का प्रयास करे, पूर्ण होने की कामना करे, वह हमेशा अनित्य, अस्थायी और अपूर्ण रहने को बाध्य है। कुछ है जो हमेशा उसकी पकड़ से छूट जाएगा? इससे उसमें गहरा असंतोष, अपनी स्थिति के प्रति विद्रोह उठ खड़ा होता है।
सम्पूर्णता का यह बोध हमें अपने जीवन में होता है। वह लेकिन टिक नहीं पाता। ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी में यह बोध इस प्रकार होता है:
“लगा कि सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ, उससे कोई दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ जहाँ आकाश, चाँद-तारे, सूरज सभी दिखाई देते हैं। रॉकेट उड़ रहे हैं। आते हैं, जाते हैं, और पृथ्वी एक चौड़े नीले गोल जगत्-सी दिखाई दे रही है, जहाँ हम किसी एक देश के नहीं हैं, सभी देशों के हैं। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भारहीन चंचलता है।”
यह जो एक पल है, जो हम सब के जीवन में आ सकता है, आता है, विश्वसनीय नहीं लगता। हमारी अपनी क्षणबद्धता, एकदेश बद्धता हमें यथार्थ में खींच ले आती है। फिर भी यह अहसास अगर एक बार हो जाए? ‘जलना’ कहानी में एक निहायत ही गिरी हुई आर्थिक स्थितिवाले घर का सदस्य बारिश से खुद को, घर को बचाने की कोशिश कर रहा है। जिस सुबह वह जगा है उसके आगे पड़े दिन से उसे जूझना है। एक एक मामूली आदमी का मामूली दिन है। लेकिन
” ज्यों ही वह पुरानी चौखट पर नए ठुँके पल्लों को बंद करने के लिए मुड़ा, उसकी आँखें दूर के बादलों में उस पार क्षितिज पर टिक गईं, जिसमें पूर्व दिशा की किरणें टूट टूट कर धुँधले-भस्मीले बादलों पर आक्रमण कर रही थीं। तालाब का कोहरे में खोया हुआ किनारा नीले-सलेटी रंग में डूबा हुआ दिखाई दे रहा था, लेकिन पानी में चमकते हुए हरे-हरे वृक्षों के शिखर पर ललाई की संभावना प्रकट हो रही थी।”
वह व्यक्ति
“इस आरपार फैले हुए विस्तृत दृश्य को देखकर … एकबारगी स्तब्ध हो गया।”
और
“अकस्मात उसे भान हुआ कि मनुष्य अपने इतिहास से जुदा नहीं है, वह कभी अपने इतिहास से जुदा नहीं हो सकता। न अपने बाह्य जीवन के इतिहास से, न अपने अंतर्जीवन के अहसास से।”
क्या वह उस खिड़की को बंद कर देता है या खुला रहने देता है? सुबह की चाय बन चुकी है। बच्चा रद्दी इकठ्ठा कर रहा है जिसे वह व्यक्ति बेचकर कुछ पैसे जुगाड़ करेगा। उसकी पत्नी चाय बना चुकी है और उसकी घूँट हलक में उतरी ही है कि वह देखती है कि जो खिड़की उसने खोली थी, वह बंद कर दी गई है।
“वह एकदम उठी और उसके पल्लों को उसने ज़ोर से खोल डाला।
बादल हट चुके थे और उसकी विपरीत दिशा में… दौड़ते जा रहे थे। नवोदित सूर्य की गुलाबी, सुनहली, नारंगी किरणें एक केंद्र से चारों ओर दौड़ रही थीं। तालाब के पानी में उनके प्रतिबिम्ब डूब गए थे। हरियाला मैदान लाल-सुनहला हो गया था। और दूर तिकोनी पहाड़ी एकदम नीली दिखाई दे रही थी।”
फिर?
“वह उस दृश्य को देखती खड़ी रही। उस सौंदर्याभा का जल उसके चेहरे पर छा गया। उसे अच्छा लगा। पास ही कमरे में, नल से उसने बालटियाँ लगा दीं।”
उस विराट की सौंदर्याभा के जल का स्पर्श!
मनुष्य का स्वभाव अनित्य है या अस्थायी है। इसके बावजूद वह स्थायीत्व की कामना करता है। उसे नित्यता की तलाश भी है। बल्कि उनकी रचना करता भी है। अनित्य स्थिति के बोध के साथ नित्यता या सम्पूर्णता की खोज के कारण मन में एक द्वंद्व, एक पीड़ा बनी रहती है। क्या वह इस कारण है कि वह कितना भी स्थायी होने की कोशिश करे, नित्य होने का प्रयास करे, पूर्ण होने की कामना करे, वह हमेशा अनित्य, अस्थायी और अपूर्ण रहने को बाध्य है। कुछ है जो हमेशा उसकी पकड़ से छूट जाएगा? इससे उसमें गहरा असंतोष, अपनी स्थिति के प्रति विद्रोह उठ खड़ा होता है।
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