मुक्तिबोध शृंखला:28
मुक्तिबोध के मार्क्सवाद और उनके व्यक्तित्व में एक फाँक की शिकायत एक समय तक हिंदी के कुछ मार्क्सवादी आलोचक करते रहे। उसका कारण था उनके अनुसार मुक्तिबोध में निजता या आत्मपरकता का अतिरेक। लेकिन मुक्तिबोध मार्क्सवाद तक आए थे अपनी उस समस्या का समाधान खोजते हुए कि मनुष्य अपना विस्तार कैसे कर सकता है। एक सार्थक जीवन जीने की कोई पद्धति हो सकती है या नहीं? वह अपना अकेलापन कैसे दूर करे? अपने आत्म को वह समृद्ध कैसे करे? क्या मार्क्सवाद औसतपन का शास्त्र है? या वह व्यक्ति के, हर व्यक्ति के जीनियस को महत्त्व देता है और उसके प्रस्फुटन में उसकी मदद करता है?
‘मार्क्सवादी साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ में मुक्तिबोध मार्क्सवाद के बारे में कहते हैं:
“मार्क्सवाद मनुष्य को कृत्रिम रूप से बौद्धिक नहीं बनाता है, वरन उसे ज्ञानालोकित आदर्श प्रदान करता है। मार्क्सवाद मनुष्य की अनुभूति को ज्ञानात्मक प्रकाश प्रदान करता है। वह उसकी अनुभूति को बाधित नहीं करता, वरन बोधयुक्त करते हुए उसे अधिक परिष्कृत और उच्चतर स्थिति में ला देता है। संक्षेप में, मार्क्सवाद का मनुष्य की संवेदन-क्षमता से कोई विरोध नहीं है, न हो सकता है।”
संवेदना को बोधयुक्त करके उसके परिष्कार का क्या अर्थ है? संवेदन क्षमता तो हर मनुष्य में है। लेकिन क्या हर किसी के पास वह एक जैसी है? क्यों कुछ की वह सीमित होती है और कुछ की तीक्ष्ण? क्या इसका कारण उस मनुष्य या व्यक्ति के भीतर है? मार्क्स के अनुसार इसका कारण बाहर है। बाहरी भौतिक परिस्थितियाँ किसी मनुष्य की संवेदना की सीमा तय करती हैं ।
मार्क्स ने बतलाया कि मनुष्य प्राथमिक रूप से संवेदनयुक्त प्राणी है। वह इस विश्व को, ब्रह्मांड को अपनी इंद्रियों के माध्यम से ही ग्रहण करता है। वह जितने पूरेपन में इसे ग्रहण या आयत्त कर पाएगा, वह उतना ही स्वायत्त होगा। यानी उसकी स्वाधीनता इस ब्रह्मांड से उसके संबंध की समृद्धि पर निर्भर है। लेकिन उसकी इंद्रियों के संसार को ही सीमित कर दिया जाता है। पूँजीवाद उपयोगितावाद पर टिका हुआ है। मनुष्य की उपयोगिता पूँजी की वृद्धि के संदर्भ में ही देखी जाती है। पूँजी अपने प्रसार के प्रलोभन में न सिर्फ़ मनुष्य बल्कि प्रकृति का भी कोई कोना नहीं छोड़ना चाहती। मनुष्य का भी उतना ही बचा रहना चाहिए जिसके सहारे पूँजी और बढ़ सके, उसी तरह प्रकृति भी पूँजी की अभिवृद्धि के लिए ही शेष रहनी चाहिए।
पूँजीवाद के लिए मनुष्य की उपयोगिता उसकी श्रमशीलता के कारण है। वह तो उसके शरीर का गुण है। वही शरीर जिसकी दैहिकता का बोध मनुष्य को मनुष्य बनाता है। लेकिन पूँजीवाद श्रमिक को जीवन के न्यूनतम स्तर पर जीवित रखता है। श्रम उसके लिए आनंद नहीं यातना का स्रोत है। मनुष्य का श्रम पूँजी का बंदी है। मार्क्सवाद उसे स्वतंत्र करना चाहता है। उपयोगिता के बंधन से आज़ाद करना चाहता है। पूँजीवाद मनुष्य की अतिरिक्तता को छीन लेता है। उसे इस अतिरिक्त को हासिल करने के लिए एकांत चाहिए और अवकाश चाहिए। पूँजीवाद उसे एक चिर श्रमशील प्राणी के रूप में ही स्वीकार करता है। मार्क्सवाद का कहना है कि समाज की पहचान इससे की जा सकती है कि उसमें अवकाश का बँटवारा किस तरह का है। मेरे अवकाश पर किसका अधिकार है? समाज में एकांत क्या सर्वसुलभ है या वह कुछ का विशेषाधिकार है?
यह सवाल अपनी पूरी क्रूरता के साथ कोरोना महामारी के दौरान हमारे सामने दुबारा उठ खड़ा हुआ। समाज के एक हिस्से ने इसे एकांत में अपने साथ रह पाने के अवसर के रूप में देखा। लेकिन दूसरी तरफ़ बड़ी आबादी के लिए वह अकेलेपन में बदल गया। श्रम के अवसरों से वंचित रहने का अर्थ उस देह के अंत की आशंका थी। उसे भविष्य के लिए बचा लिया जाना था इसीलिए दो जून की उस खुराक का शोर उठा जिसके बिना वह देह, जो श्रम का भंडार है, बची ही नहीं रह सकती थी। फिर पूँजी के कारोबार का क्या होता और क्या होता राष्ट्र का?
यह तर्क कि इस श्रमिक देह को बस उसकी सतह पर बचाए रखना है ताकि वह उत्पादन करती रह सके, पूँजीवाद का तर्क है। सर्वोच्च न्यायालय में श्रमिकों के कुछ हितैषियों ने अर्ज़ी दी कि हरेक श्रमिक को कुछ धनराशि अलग से दी जानी चाहिए। सरकार ने कहा कि वह जो अनिवार्य है, वह कर रही है। वह उन्हें दो शाम के लिए राशन दे रही है। न्यायाधीश भी इस जवाब से संतुष्ट थे। जब खाना मिल रहा है तो फिर और किस ज़रूरत के लिए पैसा चाहिए? यह फ़ैसला देने के बाद वे अपने, अपने परिवार की आत्मीयता के एकांत में लौटे होंगे और उन्होंने ग्रीन टी की चुस्कियों के साथ आई ट्यून स्टोर से निकाल कर संगीत सुना होगा। उनके अस्तित्व के लिए यह अनिवार्य है। लेकिन शेष जन के लिए यह अतिरिक्त है। उनकी देह को इन अनुभवों से वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन बाक़ी के लिए यह विलासिता है। इसकी कल्पना राष्ट्र पर बोझ है। हर देह एक नहीं!
मार्क्सवाद इस भयंकर और मनुष्यघाती असमानता का बोध करानेवाला शास्त्र है। क्यों जीवन बहुतों के लिए अभिशाप है और क्यों वह कुछ के लिए ही वरदान है? क्यों एक को मात्र उत्पादन में लगे रहना है और दूसरा सृजन के लिए स्वतंत्र है? मार्क्स का बुनियादी सवाल यही है। मुक्तिबोध बार-बार मार्क्सवाद को विज्ञान कहते हैं। दूसरी तरफ़ वे मनुष्य को मानवीय जीवन मिल सके, इसे ही प्रत्येक मानवीय क्रिया का लक्ष्य या उद्देश्य मानते हैं। लेकिन मुक्तिबोध इसपर अल्थूसर की तरह विचार नहीं करते। मार्क्सवाद से उनका रिश्ता एक कलाकार या कवि का है। इसलिए वे उसे कुछ सरल तरीक़े से समझते हैं। जिस आदर्श की बात उन्होंने की है, वह ज्ञान से आलोकित है। वह क्या है?
‘अंतरात्मा और पक्षधरता’ नामक निबंध में वे पूछते हैं:
“…मेरी अंतरात्मा कहाँ तक विकसित है! स्वयं के अनन्यीकरण, इतरीकरण के साथ, मैं कहाँ तक जगत के साथ अनन्यीकरण और उसका स्वकीयीकरण कर सका हूँ? दूसरे शब्दों में अपनी अंतरात्मा के प्रयोजन को मैं कहाँ तक दृढ़ कर सका हूँ?”
स्वयं को अन्य बनाना, स्वयं से इतर का बोध खुद में पैदा करना और फिर बाहर को अपना बनाना। यह है मक़सद ज़िंदगी का। इस मक़सद के बिना जो भी ज्ञान और अनुभव इंसान हासिल करता है, वह उसे और समृद्ध नहीं करता बल्कि उसमें एक अहंकार पैदा करता है। इस अर्थ में वह किसी प्रयोजन के बोध से वंचित होकर सीमित हो जाता है। जबकि मुझे मालूम है ,
“मेरे जीवन ने इस जगत में अब तक जो यात्रा कि है, वह प्रयोजनहीन नहीं की है।… इस जीवन-यात्रा में अभ्यंतर की एक पुकार रही है। यौवनावस्था के पूर्व से ही, मेरे प्रयोजन प्राप्त और विकसित होते गए, और उन्हीं के अनुसार मैंने अपनी भावधारा विकसित की।”
मुक्तिबोध के लिए ये प्रयोजन ही निजत्व के मूल में हैं? लेकिन वे प्रयोजन क्या हैं या वे आदर्श?
“ घर में, परिवार में, समाज में मनुष्य को मानवोचित जीवन प्राप्त हो। आर्थिक तुला के आधार पर, घर में, परिवार में, समाज में मनुष्य के मूल्य को न आँका जाए। मनुष्य अपनी और अपने परिवार की अस्तित्व-रक्षा के आर्थिक-भौतिक संघर्ष और तत्संबंधी चिंताओं से छूटकर, निर्माण और सृजन के कार्य में लगकर समाज की उन्नति और प्रगति में योग दे, तथा उसको अपने निजत्व के विकास के अवसर प्राप्त हों — सबको समान रूप से ।”
यानी मनुष्य मात्र आर्थिक प्राणी नहीं है। समाज का ज़िक्र तो मार्क्सवादी प्रायः करते हैं। घर, परिवार वाले मनुष्य या व्यक्ति के बारे में मार्क्सवादियों में, कम से कम भारतीय मार्क्सवादियों में मुक्तिबोध ने ही ध्यान दिलाया है। ताज्जुब नहीं कि उनकी कविताओं में पिता, माँ, बच्चे भटकते हुए मिल जाएँगे। पारिवारिकता में बराबरी की खोज उनकी कहानियों का विषय है। क्या उस परिवार में भी सबको ये अवसर मिल पाते हैं? क्या पारिवार की स्त्री को भी?
मक़सद है: हर कोई स्वतंत्र हो सके। खुद को हासिल कर पाने के लिए:
“किसी को भी किसी का व्यक्ति-स्वातंत्र्य ख़रीदने का अधिकार न हो, न बेचने का। व्यक्ति-स्वातंत्र्य को रहन न रखा जाए, न कोई किसी को रहन रखने दे।”
इस व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर मार्क्सवादियों में खूब बहस हुई है। क्या वह किसी बिना शर्त के है या किसी शर्त से बँधा है?
“…जो व्यक्ति स्वातंत्र्य समाजवाद और जनतंत्र के समन्वय में बाधक हो, या इन दोनों में किसी एक का भी उत्सर्ग करने के लिए उत्सुक हो, उस व्यक्ति-स्वातंत्र्य को पूरा समाज सार्वजनिक रूप से निन्दित और तिरस्कृत करे।”
ध्यान दीजिए मुक्तिबोध समाजवाद और जनतंत्र के समन्वय की बात कर रहे हैं। यानी समाजवाद स्वतः ही जनतंत्र नहीं है। आगे वे यह अवश्य कहते हैं कि समाजवाद की मूल आत्मा जनतांत्रिक है लेकिन वे इस वक्तव्य की कठिनाई से भी परिचित हैं। यह जनतंत्र मात्र उत्पादन के साधनों पर निजी अधिकार समाप्त कर उसे सामूहिक रूप से नियंत्रित करने का नाम नहीं है। उसे स्थापित करने के लिए अलग से उपाय करने पड़ते हैं। मुक्तिबोध इसे लेकर आश्वस्त हैं कि समाजवादी देशों में यह किया जा सका है,
“जनतांत्रिक संस्थाओं और जनतांत्रिक विधि-नियमों से उसे निबद्ध किया जा चुका है, किया जा सकता है। पोलैंड और युगोस्लाविया तथा अन्य देश इस जनतंत्र के उदाहरण हैं।”
इस जगह मुक्तिबोध की मुश्किल देखी जा सकती है। वे जानते हैं कि समाजवादी देशों में व्यक्ति-स्वातंत्र्य सीमित है। उसके लिए मार्क्सवादियों में प्रचलित तर्क का ही वे सहारा लेते हैं,
“जी हाँ, वहाँ समाजवादी समाज-रचना को पलटकर फिर से पूँजीवादी समाज-व्यवस्था को लाने वाली शक्तियों को स्वातंत्र्य नहीं है।”
यह कमजोर तर्क है और मुक्तिबोध खुद इसे लेकर आश्वस्त नहीं हैं। इस तर्क की आड़ में समाजवादी देशों की पार्टियों ने पूरे समाज को ही ग़ुलाम बना लिया। हमारे सामने उसका उदाहरण चीन है जिसे अभी भी कई मार्क्सवादी समाजवादी देश मानते हैं।
मुक्तिबोध को लेकिन मालूम है कि जनतंत्र के लिए विधि, नियम अलग होंगे। जिन देशों का नाम वे लेते हैं यह साबित करने के लिए कि समाजवाद और जनतंत्र में विरोध नहीं है, उनमें सोवियत संघ नहीं है और न चीन है। जनतंत्र में विचारों की विविधता आवश्यक है। जिन विधि नियमों के बारे में पहले बात की गई है, उनमें सबसे ज़रूरी है सत्ता का एक संस्थात्मक ढाँचा जिसमें अलग-अलग संस्थाएँ एक दूसरे से स्वायत्त होंगी। सभी संस्थाएँ केंद्रीय सत्ता का ही विस्तार नहीं हो सकतीं। पार्टी सारे मतों की प्रतिनिधि नहीं हो सकती। वह जनता की एकमात्र प्रवक्ता भी नहीं हो सकती।
मुक्तिबोध के मन में इसे लेकर ख़ासी दुविधा और ऊहापोह है। वह खुलकर सिर्फ़ पोलैंड की हिंदी विदुषी आग्नेश्का सोनी के साथ उनके पत्राचार में इसके बारे में बात करते हैं। उन्हें खूब पता है कि समाजवादी व्यवस्थाओं में पार्टी ने व्यक्ति पर क़ब्ज़ा कर लिया है। उसकी सर्जनात्मक स्वाधीनता अब उसके पास नहीं। वह एक ‘रेजीमेंटेड’ संसार है। वे आग्नेश्का को एक पत्र में अपनी आशंका के बारे में बतलाते हैं कि उन्हें भय था कि वे कहीं उन लोगों में तो नहीं जो साम्यवादी विश्व से अपने मतभेद के कारण निकल भागते हैं और प्रतिक्रियावादी शिविर में जा मिलते हैं। वे बोरिस पास्तरनाक और जॉर्ज लुकाच का उदाहरण देते हैं जो पार्टी से असहमति के बावजूद अपने देशों में बने रहे। निश्चय ही मुक्तिबोध को उस यंत्रणा का अंदाज़ होगा ही जो ऐसे लोगों ने झेली। मुक्तिबोध मानते हैं कि साम्यवादी दल और उसके नेताओं ने भयानक भूलें की हैं। उसकी कीमत किसने चुकाई?
आग्नेश्का से बात करते हुए उन्हें लगता था कि उनकी भावधारा साम्यवादी पोलैंड से दूर चली गई है, लेकिन पोलैंड का साहित्य पढ़ने के बाद उन्हें लगा कि उनके विचार सरकार द्वारा प्रकाशित साहित्य के क़रीब हैं। यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ
“… पोलिश समाज-व्यवस्था और शासन के प्रति मुझे आश्चर्य से स्तंभित रह जाना पड़ा – वह सर्वहारा का अधिनायकत्व है या क्या!! और अगर हम यह मानकर चलें कि वह सचमुच अधिनायकत्व ही है, तो प्रश्न यह उठता है कि युगोस्लाविया से भी अधिक स्वतंत्र विचार-व्यवहार उसमें क्यों?”
किसी साम्यवादी देश में स्वतंत्र विचार-विमर्श चकित करता है, इससे उस दुनिया का नियम तो पता चलता ही है। दूसरे पत्र में वे फिर उस आरोप का ज़िक्र करते हैं जो साम्यवादी देशों पर लगाया जाता है कि वहाँ व्यक्ति-स्वतंत्रता का, कलाकार की स्वतंत्र चेतना का हनन होता है और कहते हैं पोलैंड के उदाहरण से उसका उत्तर दिया जा सकता है :
“…लोगों को समझाकर कहा जा सकता है … साम्यवाद के ऐसे महान देश भी हैं जिनमें स्वतंत्रता के उच्च आदर्श वर्तमान हैं।”
आग्नेश्का मुक्तिबोध के आश्चर्य का उत्तर देती हैं,
“तो क्या साम्यवादी भाव-धारा और स्वतंत्र भाव-धारा, दोनों विलोम हैं? मुझे तो लगता है, साम्यवादी विचार-धारा ही सबसे स्वतंत्र होनी चाहिए, सबसे आधुनिक, हर क्षेत्र में। यह शक करना कि कोई साहसमय विचार-पद्धति, कोई भी नवीन कलात्मक प्रयोग वग़ैरह, साम्यवादी आदर्शों को हानि पहुँचा सके,…यह शक करना, न केवल बुद्धिजीवियों से, बल्कि जनता से भी घोर अन्याय और अविश्वास करना है।”
आग्नेश्का आगे लिखती हैं कि मुक्तिबोध के लिए जो अपवाद है उसका कारण यह है कि हिम्मत और उदार विश्वास, रचनात्मक विश्वास के (जिनका अंधविश्वास से कोई मेल नहीं) मेल की कमी पड़ती रहती है।
वे ईसाइयत और इस्लाम के इतिहास का उल्लेख करती हैं और इनके ‘डॉग्मा’ में बदल जाने, ‘अपधर्मों’ के पूर्ण बहिष्कार के इनके अभियान और भिन्न विचारों को खदेड़ देने की अनथक प्रवृत्ति से उलट हिंदू धर्म में धर्म को एक विचार की जगह विचार-भण्डार की मानने की प्रवृत्ति को श्रेयस्कर मानती हैं। यह प्रवृत्ति
“अंगीकरण की रही है, …. भिन्न भिन्न तत्त्वों को मिलाकर एक-से पैटर्न में जुटा लेने की।”
कम्यूनिज़्म और ईसाईयत में काफी मेल माना गया है लेकिन
“क्या यह अनिवार्य है, … क्या साम्यवाद ‘आत्मसात्कारी‘ रूप धारण नहीं कर सकता?”
“क्या केवल मानव-समता और श्रम का गौरव (जिनका ठीक उलटा हिंदुत्व में दीखता है जाति-व्यवस्था के रूप में) और बाकी, जो भी चीज़ विचार या रचना, उत्कृष्ट हो, मानवतापूर्ण हो, विकासमय हो – उसे साम्यवाद क्यों न समेटे?”
आग्नेश्का यह पत्र 1963 के जून में लिख रही थीं। एक साल से भी कम वक्त में मुक्तिबोध गुजर जानेवाले थे। यह विचार-विमर्श अभी और चलना था। साम्यवाद और प्रयोग के साहस के बीच मेल के सपने पर जो बात आगे चलनी थी, वह अधूरी ही रह गई।