संदेह, अविश्वास उतना न है नकारशील

      

मुक्तिबोध शृंखला:33

अधूरापन मनुष्य की अवस्था को परिभाषित करता है। पूर्णता उसकी आकांक्षा है। इस आकांक्षा के कारण ही वह दूसरों से रिश्ते बनाता है। व्यक्तियों, समुदायों, राष्ट्रों की सीमाओं को लाँघकर नए, अब तक जो अनजान रहा, उससे जुड़ना अपने अधूरेपन से लड़ना है। प्रकृति का सायास साहचर्य भी इसी प्रक्रिया का अंग है। ब्रह्माण्ड के हर कोने तक दृष्टि प्रसारित करना भी यही है। सम्पूर्ण ज्ञान व्यापार इस अधूरेपन से पार पाने का उपक्रम है। संघर्ष है।

अपने अधूरेपन को आखिर हम किस तरह परिभाषित करें? क्या वह मेरी न्यूनता है? मैं जिस स्थिति में हूँ वह मुझे मिली है। मैं उसके लिए जवाबदेह नहीं। लेकिन मैं उसी स्थिति से पहचाना जाता हूँ। क्या मैं उसी स्थिति का बंदी हो रहूँ या उसे बदलने की कोशिश करूँ? या क्या मैं मात्र उसके पार चला जाऊँ? बिना उस स्थिति  को छेड़े? क्या ऐसा करना संभव है? यानी खुद को पुनर्परिभाषित करना? 

अधूरेपन की चेतना के साथ जुड़ा हुआ है सीमितता का अहसास। मनुष्य अपने काल और परिवेश से सीमित होता है। कई बार, बल्कि प्रायः उनका कैदी भी। यह उसकी बनाई हुई नहीं, उसे मिली हुई अवस्था है। और उस उसका अभ्यास वह अनजाने ही करता रहता है जिससे वह एक एक आश्वस्तिकर अवस्था जान पड़ने लगती है। इस सीमाबद्धता का ज्ञान मनुष्य को हो, यह कि वह उसे जड़ बना रही है, इसके लिए उसे निरंतर सक्रिय रहना पड़ता है। उसके बिना वह उसी अवस्था को वरदान मानकर उसकी रक्षा में सन्नद्ध हो उठता है।

अपनी सीमा का ज्ञान मनुष्य में अहंकार और हीनता बोध, दोनों ही पैदा कर सकता है। उसमें एक निराशा का भाव भी आ सकता है । मुक्तिबोध के सम्पूर्ण साहित्य के केंद्र में जैसे यही प्रश्न है। क्या मुझे आत्म-बोध है? क्योंकि वह होते ही अपनी मर्त्यता, अपनी सीमाबद्धता, अपने अधूरेपन के प्रति मैं सचेत हो उठता हूँ। उसके प्रति सचेत होना एक बात है, उससे मुक्त होने का प्रयास करना नितांत भिन्न। क्यों मुझे अपनी सीमा को तोड़ना ही चाहिए? क्या यह अपने-आप में अहंकार नहीं है? और क्या इसी से हिंसा नहीं पैदा होती? 

मुक्तिबोध के अनुसार पहली बात है जानना। यह कर्तव्य है और इससे विमुख नहीं हुआ जा सकता। उसके बिना आपकी अवस्था का मूल्य क्या है, आप खुद कौन हैं, यह कहना कठिन है। ‘मुझे नहीं मालूम’ शीर्षक कविता में आरंभ में ही यह प्रश्न सामने आता है:      

“मुझे नहीं मालूम
सही हूँ या गलत हूँ या और कुछ
सत्य हूँ कि मात्र मैं निवेदन-सौंदर्य!”

सही और गलत का बोध सिर्फ होने से नहीं मिल जाता। साथ ही होना भर मेरा औचित्य साबित नहीं करता। क्या मैं खुद को परिभाषित कर सकता हूँ? अपनी अवस्था को? हर किसी के भीतर ऐसा करने की क्षमता है। लेकिन उसका उपयोग नहीं हो पाता। 

“धरित्री व नक्षत्र
तारागण
रखते हैं निज-निज व्यक्तित्व
रखते हैं चुंबकीय शक्तिपर
स्वयं के अनुसार
गुरुत्व-आकर्षण शक्ति का उपयोग
करने में असमर्थ।”

मुक्तिबोध के बिंबों में गणित और विज्ञान, विशेषकर खगोलशास्त्र खासी भूमिका निभाते हैं। गणित अपने अमूर्तन के कारण उनके दार्शनिक स्वभाव को आकृष्ट करता है, खगोलशास्त्र विस्तार और अनंतता के रहस्य के भान के कारण। बिना चुंबकीय शक्ति के, बिना गुरुत्वाकर्षण के व्यक्तित्व का निर्माण हो ही नहीं सकता। शक्ल बन नहीं सकती। लेकिन क्या इन दोनों से सम्पन्न होने का और इसका कि हम इनका खुद उपयोग कर सकते हैं, अहसास सबको होता है। धरती, नक्षत्र और तारागण एक नियम में बँधे दीखते हैं। वे निरंतर गतिमान भी हैं। लेकिन यह नियम उनका नहीं, न यह गति उनकी है। वह उनकी हो इसके लिए आवश्यक है कि वे उसे नियम की जड़ता को तोड़ सकें। 


“यह नहीं होता है उनसे कि जरा घूम-घाम
                                              
आएँ

नभस् अपार में
यंत्र-बद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागकर
ब्रह्मांड अखिल की सरहदें माप ले।
अरेये ज्योति-पिंड
हृदय में महाशक्ति रखने के बावजूद
अंधे हैं नेत्र-हीन
असंग घूमते हैं अहेतुक
असीम नभस् में
चट्टानी ढेर है गतिमान अनथक,
अपने न बस में।”

गतियाँ यंत्रबद्ध हैं, रास्ता प्रदत्त है। एक ही गति से उसी पथ पर घूमते चले जाने से मालूम होता है कि वे सक्रिय हैं। सच तो यह है कि उनपर खुद अपना नियंत्रण नहीं है। वह तब मालूम होगा जब वे इस पथ को छोड़ पाने का साहस कर पाएं। इस अवस्था में सुरक्षा तो है और यों कोई कारण नहीं कि इस सुरक्षा का त्याग किया ही जाए। लेकिन वह न करने का कारण वास्तव में भय है। क्या मैं अपने संबंध, अपनी गति, अपना पथ निर्मित कर सकता हूँ? जब तक ऐसा नहीं होता यह स्थिति ‘अहेतुक’ और ‘असंग’ है। अपना हेतु जान पाना और संग उपलब्ध कर सकना, यही तो मनुष्यता है। वरना


“वैसा मैं बुद्धिमान
अविरत
यंत्र-बद्ध कारणों से सत्य हूँ।
मेरी नहीं कोई कहीं कोशिशें,
न कोई निज-तड़ित् शक्ति-वेदना।
कोई किसी अदृश्य अन्य द्वारा नियोजित
गतियों का गणित हूँ।
प्रवृत्ति-सत्य से सच मैं
गलतियाँ करने से डरता,
मैं भटक जाने से भयभीत।
यंत्र-बद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागने में
                     
असमर्थ
अयासअबोध निरा सच मैं।”

‘यंत्र बद्ध कारणों से सत्य’, किसी ‘अन्य द्वारा नियोजित गतियों का गणित’! यह क्या अपमान नहीं है? मेरे होने में ‘न कोई निज-तड़ित शक्ति-वेदना’ है, न मेरी कहीं कोई कोशिश है। ऐसा प्राणी तो ‘अयास और अबोध सच’ है। आत्मसजगता का अभाव! मुझे मेरे भीतर की संभावना का ध्यान दिलाया जाता है: 

 
“कोई फिर कहता कि देख लो –
                     
देह में तुम्हारे
परमाणु-केंद्रों के आस-पास
          
अपने गोल पथ पर
          
घूमते हैं अंगारे,
घूमते हैं ‘इलेक्ट्रॉन
निज रश्मि-रथ पर।
बहुत खुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि साँचे में ढली हुई मूर्ति मैं मजबूत
                     
फिर भी हूँ देवदूत
इलेक्ट्रॉन‘ – रश्मियों में बँधे हुए अणुओं का
                                        
पुंजीभूत
                              
एक महाभूत मैं।
ऋण-एक राशि का वर्गमूल
साक्षात्
ऋण-धन तड़ित् की चिनगियों का आत्मजात
प्रकाश हूँ निज-शूल।”

“अँगारे, रश्मि-पथ, इलेक्ट्रॉन-रश्मियों में बँधे हुए अणुओं का पूंजीभूत महाभूत, ऋण-धन चिनगियों का आत्मजात प्रकाश!” यह सब लेकिन पीड़ा का कारण हैं: निज-शूल! गणित के नियम को जानने से एक जिम्मेवारी कँधे पर आ पड़ती है: गणित के नियमों को लाँघने की। वह खुद अपने प्रति रोज़ ही जागना है:


“गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागता –
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश।
एक-धन-एक से
पुनः एक बनाने का यत्न है अविरत।
आती है पूर्व से एक नदी,
पश्चिम से सरित अन्य,
संगमित बनती है एक महानदी फिर।”

सृजन बिना गणित के नियमों को तोड़े नहीं हो सकता:


“सृष्टि न गणित के नियमों को मानती है
                                   
अनिवार्य।”

जब तक नियमबद्धता से मुक्ति न हासिल की जाए, जब तक दिए हुए सत्य में स्वयं हस्तक्षेप न किया जाए, तबतक जो पूर्णता दिखलाई पड़ती है, वह ‘अपाहिज’ है:


“मेरे ये सहचर
धरित्रीग्रह-पिंड,
रखते हैं गुरुत्व-आकर्षण-शक्तिपर
यंत्र-बद्ध गतियों को त्यागकर
जरा घूम-घाम आतेजरा भटक जाते तो –
कुछ न सहीकुछ न सही
गलतियों के नक्शे तो बनते,
बन जाता भूलों का ग्राफ ही,
विदित तो होता कि
कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे खतरे,
अपाहिज पूर्णताएँ टूटतीं!”

लेकिन हमने तो संशोधन न करने को ही गौरव का विषय बना लिया है। अज्ञात और अगाध की यात्रा, अंतरण हमारे लिए वर्जित है:


“किंतु हमारे यहाँ
सिंधुयात्रा वर्जित
अगम अथाह की।
हमें तो डर है कि,
खतरा उठाया तो
मानसिक यंत्र-सी बनी हुई आत्मा,
आदतन बने हुए अद्यतन भाव-चित्र,
विचार-चरित्र ही,
टूट-फूट जाएँगे
फ्रेमें सब टूटेगा व टंटा होगा निज से।”

जो है, उस पर संदेह के बिना, अविश्वास के बिना सत्य सतही ही बना रहता है:

“इसीलिएसत्य हमारे हैं सतही
पहले से बनी हुई राहों पर घूमते हैं
                            
यंत्र-बद्ध गति से।
पर उनका सहीपन
बहुत बड़ा व्यंग्य है
और सत्यों की चुंबकीय शक्ति
                         
वह मैगनेट…
                         
हाँवह अनंग है
अपने से कामातुर,
अंग से किंतु हीन!!”

एक दूसरी कविता ‘सही हूँ या गलत’ में जैसे मुक्तिबोध इस बात को ही आगे बढ़ाते हैं। बिना परीक्षण और आलोचन और संशोधन के मात्र संगति की तलाश मूर्खता है:

“संगति-कॉम्प्लेक्स

सत्य की मनोग्रन्थि

मूर्खता की हद है।”

सहज अविश्वास चाहिए, संदेह चाहिए:

“रहा केवल संदेह

सहज अविश्वास

यह बुरी बात नहीं

अविश्वासी संदेह दृढ़-स्कंध

दृढ़ मस्तक भव्य-भाल दृढ़-भुज

निज-निर्भर अपरावलंबी वह

   चट्टानी भूमि पर जमा हुआ खड़ा है।”

निज निर्भरता, अपरावलंबिता के लिए पहले की संगतियाँ टूटनी चाहिए। झूठी आस्थाओं पर चोट पड़नी ही चाहिए। यह संदेह, अविश्वास ‘करता है मील पार झूठी आस्थाओं के!!’

हर चीज़ पर संदेह करो, यह माननेवाले भी संदेह को नकारशील मानते हैं। वह नकारात्मक है लेकिन उसमें बुरा क्या है?

“सही है कि संदेह

 सहज अविश्वास

 उतना न कभी है नकारशील

                जितना समझा गया है;

कैमरे की निगेटिव प्लेट पर

               खिंचा हुआ चेहरा हर

सफेद-सफेद धुँवा-भूत है।”

जिस तरह एक्स रे की यह विधि नकारात्मक है लेकिन उससे हुई सिद्धि स्वीकारात्मक है उसी प्रकार

“ज़िंदगी का संदेह

ऋण-एक राशि का असंभव वर्गमूल

यद्यपि कल्पनामूलक है राशि वह

जिसके कि सहारे

सृष्टि का गति-चित्र

     मस्तक में जमता।”

‘मुझे नहीं मालूम’ में ‘अनंग’, कामातुर सत्य’ पर व्यंग्य है। लेकिन जैसा मुक्तिबोध की कविताओं का स्वभाव है, बात खत्म होती दीखती है, होती नहीं। इसलिए कविता का आगे का हिस्सा ‘पुनश्च’ है । जैसा बुद्धिमान जानते हैं, कई बार पुनश्च ही मुख्य कथन होता है :  

“बात अभी कहाँ पूरी हुई है,
आत्मा की एकता में दुई है।
                         
इसीलिए
स्वयं के अधूरे ये शब्द और
टूटी हुई लाइनेंन उभरे हुए चित्र
              
टटोलता हूँ उनमें कि
कोई उलझा-अटका हुआ सत्य कहीं मिल जाए,
                     
वह बात कौन-सी!!
उलझन में पड़ा हूँ,
अपनी ही धड़कन गिनता हूँ जितनी कि
उतने ही उगते हैं
उगते ही जाते हैं सितारे
दूर आसमान में चमकने लगते हैं सचमुच!
                    
औरवे करते हैं इशारे!!”

आगे का अंश दिलचस्प है। अब तक नियमों की जड़ता की बात हुई है। नियम खोजते हुए मन उनके अपवाद भी खोजता हूँ:


“मैं उनके नियमों को खोजता,
नियमों के ढूँढ़ता हूँ अपवाद,
परंतुअकस्मात्
उपलब्ध होते हैं नियम अपवाद के।“

यह काटपीट चलती रहती है मन के भीतर और उसी के बीच रास्ता दीखता है:


“सरीसृप-रेखाओं से तिर्यक् रेखा काटकर
लिखा हुआ बार-बार
कटी-पिटी रेखाओं का मनोहर सौंदर्य
देखता ही रहता
कटे-पिटे में से ही झलकते हैं अकस्मात
साँझ के झुटमुटेरंगीन सुबहों के धुंधलके।
उनमें से धीरे-धीरे स्वर्णिम रेखाएँ उभरतीं,
विकसित होते हैं मनोहर द्युति-रूप।
चमकने लगते हैं उद्यान रंगीन
आदिम मौलिक!”

मुक्तिबोध की कविता में भीषण और कोमल हमेशा साथ आते हैं। यह भयंकर, यातनाप्रद प्रयास अपनी जड़ता से मुक्त होने का मात्र यंत्रणा नहीं देता। आदिम मौलिक उद्यान, मनोहर ड्यूटी-रूप, रंगीन सुबहें सभी कुछ तो मिलती हैं। इन सबका लक्ष्य क्या है आखिर? इसके बाद क्या करना है?


“गंध के सुकोमल मेघों में डूबकर
प्रत्येक वृक्ष से करता हूँ पहचान,
प्रत्येक पुष्प से पूछता हूँ हाल-चाल,
प्रत्येक लता से करता हूँ संपर्क!!”

‘सही हूँ या गलत’ में वे किसी का आश्रय होने के दावे से इनकार करते हैं और खुद को भी किसी के विकास-हित थूनी बनने देने से:

“मुझे नहीं चाहिए निज-वक्ष-समाश्रित

                   कोई मुख

किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार हित,

व्यर्थ ही जाली नहीं बनूँगा मैं बाँस की!!”

जैसे बबूल में बबूलपन की ही माँग है वैसे ही यहाँ अपनी ही तलाश है,

“चाहिए मुझे मैं

चाहिए मुझे मेरा

    खोया हुआ रूखा-सूखा व्यक्तित्व”

 इस खोज में     

“महकती महकाती गहन निजत्व गंध

अनायास सब वातावरण में

बौराई फैलती है कहते हुए

‘तुम मुझे चाहिए, मुझे दो

मुझे लो।”

‘मुझे नहीं मालूम के अंतिम अंश में प्रत्येक वृक्ष, वनस्पति से संपर्क,घनिष्ठता का उद्योग है, यहाँ जैसे प्रकृति ही खुद को निछावर कर रही है। आत्मीयता के भीतर निजता का उभार! और इस आत्मीयता में इस हासिल की हुई खुदी के गुम हो जाने का का कोई ग़म नहीं:

“और उनकी महक-भरी
पवित्र छाया में गहरी
विलुप्त होता हूँ मैंपर
सुनहली ज्वाल-सा जागता ज्ञान और
जगमगाती रहती है लालसा।
मैं कहीं नहीं हूँ।”

अपने यत्न से खुद को हासिल करना और फिर उसी हासिल को बिखरा देना। बिना उस नकारात्मक सजगता के यह गहरी आत्मलोपी विसुधता कहाँ से आए?

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