जन: उनके साथ मेरी पटरी बैठती है, उन्हीं के साथ मेरी यह बिजली भरी ठठरी लेटती है

मुक्तिबोध शृंखला:34

“मैं उनका ही होता, जिनसे

            मैंने रूप-भाव पाए हैं।

वे मेरे ही हिये बँधे हैं

             जो मर्यादाएँ लाए हैं।

मुक्तिबोध के आरंभिक दौर की कविता ‘मैं उनका ही होता’ की ये पंक्तियाँ तरुण कवि की आकांक्षा को अत्यंत सरल तरीके से व्यक्त करती हैं। वे कौन हैं जिनसे कवि ने अपने रूप और भाव पाए हैं, यह उस वक्त और बाद की रचनाओं से स्पष्ट हो जाता है। ये साधारण जन हैं, मामूली लोग जो मुक्तिबोध की कहानियों, कविताओं और निबंधों में अलग-अलग स्थितियों में ज़िंदगी से जूझते नज़र आते हैं। जिनसे रूप और भाव पाया है, मैं उन्हीं का होता, यह इच्छा है। 

मुक्तिबोध की कविताओं का एक गुण है दुहराव। भाव का, बिंब का, चित्र का दुहराव। वह उपयोगी है और आवश्यक क्योंकि मुक्तिबोध एक नई संवेदना का सृजन कर रहे थे। संवेदना की एक नई संरचना का सृजन, जो कवि या कलाकार का काम है। उसका अभ्यास खुद कवि को करना होता है और पाठक को भी उसका अभ्यास कराना होता है। इसलिए उसे दुहराना अनिवार्य है।

इस कविता के आगे-पीछे लिखी गई एक दूसरी कविता ‘सृजन-क्षण’की ये पंक्तियाँ :

उनकी मर्यादाएँ पाकर

     दरिया अमर्याद लहराया,

     अपने स्वर में स्वरातीत गीता दुहराता

     मैंने अरे उसी को पाया। 

मर्यादा सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही हो सकती है। होरी अपने समाज की मर्यादा का पालन करते हुए, उसकी रक्षा करते हुए मारा गया। ‘बड़े घर की बेटी’ में आनंदी घर की मर्यादा रख लेती है। वह मर्यादा क्या थी? लेकिन मर्यादा की एक और समझ है जो मनुष्यता को बचाए रखती है। ‘पंच परमेश्वर’ में धर्म-बुद्धि की मर्यादा, ‘मंदिर-मस्जिद’ में इंसानियत की मर्यादा। एक संकुचित करती है, दूसरी विस्तार देती है, मुक्त करती है।

‘मैं उनका ही होता’ में इच्छा है उनका होने की,

मेरे शब्द, भाव उनके हैं,

    मेरे पैर और पथ मेरा ,

   मेरा अंत और अथ मेरा,

           ऐसे किंतु चाव उनके हैं।

‘जो तेरा है, तुझे समर्पित’, यह विनम्रता तो है कविता में लेकिन जो जैसा मिला उसे वैसा ही नहीं वापस किया। आखिर शब्द, पथ, पैर ‘मेरे’ ही हैं; अंत और आरंभ का निर्णय ‘मैं’ कर रहा है। लेकिन चाव उनके हैं। मेरे और उनके बीच अंतर है, उनके प्रति मेरा खिंचाव भी है। ‘कलाकार की आत्मा’ में यह रिश्ता इस तरह प्रकट होता है:

मैं तालहीन स्वरहीन राग हूँ केवल

 पर ताल-स्वर हैं लहरें मेरी ही तो

 निर्बंध बिखरता हास्य हमारा जग में

 पर जग के बंधन हैं सब मेरे ही तो।

ताल, स्वर-लहर मेरी है लेकिन जग के बंधन भी मेरे ही हैं भले ही मेरा निर्बंध हास्य जग में बिखरता हो। ‘उनके चाव’ पहचानना और उसे व्यक्त करना आसान नहीं, पहले उसके साथ आत्मीयता चाहिए। उसके जीवन की लघुता, उसकी विवशता को महसूस करना पहले आवश्यक है। फिर उसकी निगाह ही मेरी निगाह बन जाती है:

मैं ग्राम-कुमारी की कातर आँखों से

 हूँ देख रहा-दिन ढलता ही जाता है

 डूब चुका रवि धुँधले क्षितिज तले में

 वह निःसहाय, तम पलता ही जाता है।

‘मैं उनका ही होता’ में पैर और पथ कवि या कलाकार के हैं लेकिन ‘कलाकार की आत्मा’ में इस तरुणी की आँखें कवि की हैं और उसके पग ही कवि के पग हैं,

वह कातर-नयनी चली जा रही आतुर

मैं चला जा रहा हूँ उसके ही पग से…

‘मैं उनका ही होता’ की इन पंक्तियों का सीधा अर्थ करना कठिन है हालाँकि शब्द योजना और वाक्य रचना में कोई उलझन नहीं:

मैं ऊँचा होता चलता हूँ

उनके ओछेपन से गिर-गिर

उनके छिछलेपन से खुद-खुद

          मैं गहरा होता जाता हूँ।

उनके ओछेपन से गिरकर ऊँचा होने का क्या अर्थ? ‘मुक्तिबोध रचनावली’ की नंदकिशोर नवल की प्रति में हाशिए पर दर्ज की गई टिप्पणी ने ध्यान खींचा: ‘छिछलेपन से खुद-खुद’ में खुद खुदना के अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। ओछेपन से गिरकर उठना और छिछलेपन से खुदकर गहरा होना! इसका आशय और खुलता है ‘सृजन-क्षण’ कविता को पढ़कर:

वे अपूर्णताएं, ईर्ष्याएँ

    मुझमें घुलकर, धुलकर बनतीं सूर्य सनातन,

यह छिछलापन लघु अंतर का

     क्षण-क्षण नूतन को करता है शीघ्र पुरातन।

     यों नूतन की विजय चिरंतन,

     महामरण पर महाजन्म का उदय क्षिप्रतर,

     महाभयंकर से बहता है परम शुभंकर।

जो खंडित औभग्न रहे हैं,

     वे अखंड देवता उन्हीं के

         मुझमें आकर मग्न हुए हैं।

उनका छिछलापन, अपूर्णता, ईर्ष्या का भान और यह भी कि

जबकि मैं सुज्ञ बना हूँ

     अज्ञों का अंतर पाकर ही

     सदा रहूँ उनका चाकर ही

वे कि जिन्होंने आत्मरक्त से मुझको सींचा।

जिनके आत्मरक्त से मैं सींचा गया हूँ, आखिर उनपर मैं कैसे हँस सकता हूँ? दीख पड़ते हों और एक अर्थ में अज्ञ हों भी तो भी मुझे याद रहता है कि उनका अंतर पाकर ही मैं सुज्ञ बना हूँ! कलाकार  और इस साधारण जन का रिश्ता ऐसा है:

मैं केवल तुम पर जीवित हूँ

मेरी साँस, किंतु तेरा तन,

मेरी आस और तेरा मन,

तू है हृदय और मैं लोचन

मैं हूँ पूर्ण, अपूर्ण झेलकर

मैं अखंड, खंडित प्रतिमा पर ।

मैं मैली आँखों के अंदर ज्योति गुप्त हूँ

मैं मैले अंतर के तल में

घन सुषुप्त आत्मा प्रतप्त हूँ।

खंडित और भग्न प्रतिमा लेकिन अखंड  देवता!

‘अँधेरे में’ कहानी के युवक की तरह ही ‘उनका’ और ‘मेरा’ रिश्ता है:

“उसकी ज़िंदगी में न मालूम कितने ही आदमी ऐसे आए हैं जिन्होंने … उसकी ज़िंदगी में एक निर्वैयक्तिक गीलापन प्रदान किया। जब कभी युवक उनपर सोचता है तो अपने लिए, अपने विकास के लिए उनका ऋणी अनुभव करता है। उनके झरनों ने उसकी ज़िंदगी को एक नदी बना दिया।”

उनकी न्यूनताओं, क्षुद्रताओं से वह अपरिचित है लेकिन इस कारण उनसे वह विरक्त नहीं होता:

“… उनके व्यक्तित्व की काली छायाओं, कंटकों और जलते फास्फोरिक द्रव्यों, उनके दोषों से उसने नाक-भौं नहीं सिकोड़ी थी। अगर वह कभी आहत हो जाता, तो एक बार अपना धुँआ उगल चुकने के बाद उनके व्रणों को चूमने और उसका विष निकाल फेंकने के लिए तैयार होता।”

यह एक प्रकार की चिकित्सा ही है। 

“उनके व्यक्तित्व की बारीक से बारीक बातों को सहानुभूति माइक्रोस्कोप (बृहद्दर्शक ताल) से बड़ा करके देखने में उसे वही आनंद मिलता था जो कि एक डॉक्टर को। और उसका उद्देश्य भी डॉक्टर का ही था।”

‘ओ काव्यात्मन् फणिधर’ शीर्षक कविता में यह चिकित्सक का बिंब लौटता है:

“मेरे कोब्रा, ओ क्रेट, पुष्ट पायथन,

ताम-विशेषज्ञ, प्रज्वलंत मन,

ओ लहरदार रफ़्तार, स्याह बिजली,

….

विष-रासायनिक, चिकित्सक,

पंडित कर्कोटक,

… मेरी छाती से चिपक रक्त का पान करो,

अपने विष से मेरे आभ्यंतर प्राण भरो,

मेरा सब दुःख पियो

     सुख पियो, ज्ञान पी लो!”

चिकित्सा दुहरी है। ‘अँधेरे में’ कहानी में डॉक्टरी अलग किस्म की है:

सहानुभूति की एक किरण, एक सहज स्वास्थ्यपूर्ण निर्विकार मुसकान का चिकित्सा संबंधी महत्त्व, सहानुभूति के लिए प्यासी, लँगड़ी दुनिया के लिए कितना अच्छा हो सकता है यह वह जानता था।”

कविता में लेकिन आभ्यंतर प्राण को विष से भरने का आह्वान है। एक के बिना दूसरा करना मुमकिन नहीं है।  जनता से गहरी सहानुभूति और प्रेम के बिना उसके प्राण को विष से भरना संभव नहीं। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि यह विषय क्या है और यह प्राणदायी क्यों है! जन-जीवन से और दुनिया से लगाव और उसके प्रति उत्सुकता:

“दुनिया की कोई कलुषता ऐसी नहीं थी जिसपर उसको उलटी हो जाए सिवाय विस्तृत सामाजिक शोषणों और उनसे उत्पन्न दंभों और आदर्शवाद के नाम पर किए गए अंध अत्याचारों, यांत्रिक नैतिकताओं और आध्यात्मिक अहंताओं की तानाशाहियों को छोड़कर।”

विस्तृत सामाजिक शोषण कितने रूप हैं? और आदर्शवाद की हिंसा के क्या कम उदाहरण हैं? यांत्रिक नैतिकता पर भी ध्याना देंगे, ऐसी जिसमें मेरा कोई अभ्यास शामिल नहीं। आध्यात्मिक अहंता मात्र धार्मिक नहीं। जो भी एक विराट् आत्म के निर्माण का दवा करती है, ऐसी हर आध्यात्मिक व्यवस्था! वह ‘साम्यवादी’ भी हो सकती है।

मुक्तिबोध की कविताओं और कहानियों में इस जन से जो कि लघु है, लघुता का मारा भी है, स्नेह के अनेक चित्र हैं. ‘ओ काव्यात्मन् …’ कविता में इस जन का एक चित्र,

“रात का समय, वह गाँव, और वह औदुम्बर,

  • गहरा-सा स्याह एक धब्बा!

उसके तले में  श्रमिक-प्रपा

अंजलि से जल पीनेवाले

तृषितों के मुख-विगलित जल से

है भूमि-आर्द्र कोमल अब तक!”

जो प्याऊ से अपनी अंजलि से जल पीते हैं, उन मेहनतकशों के मुख से गिरे जल से आस-पास की आर्द्र भूमि अब तक कोमल है! मुक्तिबोध की भाषा संस्कृतनिष्ठ है लेकिन ऐसे स्थलों पर श्रमिक-प्रपा, तृषित, जल, भूमि, आर्द्र, मुख-विगलित और कोमल जैसे शब्दों के प्रयोग से उस श्रमिक जन के प्रति सम्मानपूर्ण स्नेह की आभा फूटी पड़ती है।  इस जन का वातावरण कैसा है?

“प्रशांत पल में

निःसंग, स्तब्ध,गंभीर सुगंधें लहरातीं,

और वहाँ कहीं

साँवली सिवन्ती, श्याम गुलाब सो रहे हैं,”

श्रमिक स्त्री पुरुष को शायद ही किसी ने इतने प्रेम से उपमा दी हो सिवंती और गुलाब की। यह सिवंती और गुलाब मुक्तिबोध की कविताओं में बार-बार लौटते हैं। उनकी सर्वाधिक पढ़ी गई कविता ‘अँधेरे में’ इनकी खोज की ही कविता है:

मुझे अब खोजने होंगे साथी

काले गुलाब व स्याह सिवन्ती,

श्याम चमेली, सँवलाए कमल जो खोहों के जल में,

भूमि के भीतर पाताल तल में

खिले हुए हैं संकेत

सुझाव-सन्देश भेजते रहते।”

‘मेरे लोग’ शीर्षक कविता में कविता और लोग घुल मिल गए हैं। कविता के शब्द ही लोग हैं या लोग ही कविता के शब्दों में बदल गए हैं:

“तुम्हारे शब्द मेरे शब्द

मानव-देह धारण कर

असंख्य स्त्री-पुरुष-बालक

बने जग में भटकते हैं।”

खोज किसकी है?

“कहीं जनमे

नए इस्पात को पाने।

झुलसते जा रहे हैं आग में

या मुँद रहे हैं धूल-धक्कड़ में

किसी की खोज है उनको

किसी नेतृत्व की।”

यह नया इस्पात, या नेतृत्व ज़िंदगी की कोख में जन्म लेता है दिल के खून में रँगा हुआ। ये लोग या कवि के शब्द, लोगों का चैन छीन लेते हैं क्योंकि उनके साथ हैं काल-पीड़ित सत्य के समुदाय जो उपेक्षित हैं,

“पीली-धुमैली पसलियों के पंजरोंवाली

उदासी से पुती गायें

भयानक तड़फड़ाती ठठरियों की

आत्मवश स्थितप्रज्ञ कपिलाएँ उपेक्षित काल-पीड़ित सत्य के समुदाय

या गो-यूथ… “

ये सत्य इस ठठरी-निकली गायों के झुंड की तरह हैं। यह दृश्य कितना भयानक है कि सैकड़ों गायें, जिनकी हड्डियाँ निकली हैं, एक साथ निकल पड़ी हैं। ‘सौ खुरों की खरखराती शब्द-गति को सुनकर’ लोग विस्मित, स्तब्ध खड़े रह जाते हैं। उनमें से कुछ इनका सामना नहीं करना चाहते:

“हटाओ ध्यान, हमसे वास्ता क्या है?

कि वे दुःस्वप्न-आकृतियाँ

असद् है, घोर मिथ्या हैं!!

दलिद्दर के शनिश्चर का

 भयानक प्रॉपगैंडा है!!”

सत्य से मुँह मोड़नेवाले सभी नहीं हैं:

“खुरों के खरखराते खरचते पद-शब्द-स्वर- समुदाय

सुनकर,

दौड़कर उन ओटलों पर,

द्वार-देहली, गैलरी पर,

खिड़कियों में या छतों पर

जो इकट्ठा हैं गिरस्तिन मौन माँ-बहनें

सड़क पर देखती हैं भाव-मंथर, काल-पीड़ित ठठरियों की श्याम गो-यात्रा

उदासी से रँगे चेहरे गंभीर मुरझाए हुए प्यारे

गऊ-चेहरे।”

इन्हें इस रूप में देखकर ‘रुलाई गुप्त कमरे में हृदय के उमड़ती है।’

यह सत्य जो इतने विषादपूर्ण और भयानक रूप में प्रकट होता है वह भले ही शिक्षित लोगों को समझ में न आए लेकिन ये माँ-बहनें इस दृश्य के आशय को सहज ही समझ पाती हैं,

नहीं आये समझ में सत्य जो शिक्षित

सुसंस्कृत बुद्धिमान दृष्टिमानों के

उन्हें वे हैं कि मन-ही मन

सहज पहचान लेतीं।

मग्न होकर ध्यान करती हैं कि

अपने बालकों को छातियों से और चिपकातीं

भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रांतिकारी सिद्ध होती है।”

इस करुणा को जाग्रत करना क्या कविता का ही काम है? राजनीति का नहीं? क्या आश्चर्य कि देश के राजनीतिक चरित्रों में जिन्हें मुक्तिबोध की कविता एकाधिक बार, एकाधिक स्थल पर याद करती है, वे गाँधी हैं। गाँधी जिन्होंने शिक्षितों, सुसंस्कृतों की जगह अपांक्तेय से अपना रिश्ता जोड़ा और करुणा को राजनीति की प्रेरणा बनाया। पंक्ति में खड़ा आख़िरी इंसान ही गाँधी का अपना आदमी हो सकता था। जैसे मुक्तिबोध की कविता ‘हर चीज़, जब अपनी’ के आख़िरी हिस्से में गाँधी ही बोल रहे हों, या शंकर गुहा नियोगी, या रमा बाई, या अम्बेडकर,

“…दिल में एक याद

चिलचिलाती-चिलकती रहती है उन लोगों की

जिनके चेहरों पर वीरान खँडहरों की धूप और घने पेड़ों के साये मँडलाया करते हैं

जो मारे-मारे-से हमारे-से

ईंटों के सिरहाने अकेले लेटते हैं

धूल के बवंडर-सा वक्त समेटते हैं..”

ये कोई दीन-हीन नहीं,

जो बहुत गुरूर से

जो सिर्फ इन्सान होने की हैसियत रखते हैं

जैसे आसमान, या पेड़, या मैदान

अपनी-अपनी

एक ख़ास शान और शख्सियत रखते हैं”

करुणा और दया में फर्क है। ये जो सिर्फ इंसान हैं जिनकी एक कुदरती शान और शख्सियत है, किसी की मुंहताज नहीं, वे

“वैसे ही और ठीक उसी ठोस

और पक्की बुनियाद पर

अपने लिए इज्जत तलब करते हैं

बराबरी का हक़, बराबरी का दावा

नहीं तो मुठभेड़ और धावा

अब आप चाहे सरकार हों

या साहूकार हों”

ये ही ‘मेरे लोग’ हैं:

“उनके साथ मेरी पटरी बैठती है उनके साथ हाँ, उन्हीं के साथ

मेरी यह बिजली भरी ठठरी लेटती है

और रात कटती है।”

वे मेरे लोग हैं, उससे बड़ा सच है कि मैं उनका हूँ:

“यह शायद मेरी बहुत बड़ी भूल है

लेकिन मेरी यह गरीब दुनिया

उन्हीं के बदनसीब हाथों से चलती है।”

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