हिंदी में अंतर्राष्ट्रीयवाद – साहित्य और शीत युद्ध :प्रोफेसर फ़्रंचेस्का ओर्सीनी

Prof Fransesca Orisini, who has taught Hindi and Indian literature at SOAS, London, will be delivering the Seventh Lecture in the Sandhan Vyakhyanmala Series on Sunday, 18 th September, 6 PM ( IST).

She will be speaking on  हिंदी में अंतर्राष्ट्रीयवाद – साहित्य और शीत युद्ध ( Hindi Internationalism – Literature and Cold War

 Time: Sep 18, 2022 06:00 PM (IST) India

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Organised by :NEW SOCIALIST INITIATIVE ( NSI) Hindi Pradesh 


संधान व्याख्यानमाला : सातवां वक्तव्य 
विषय : हिंदी में अंतर्राष्ट्रीयवाद – साहित्य और शीतयुद्ध  

आज़ादी के बाद के दो दशक पत्रकारिता के लिए स्वर्णिम युग माना जाता है – हिंदी  और दूसरी भाषाओं में । ये वे दशक भी थे जब उपनिवेशवाद को खतम करने वाली हवा ज़ोरों से चलने लगी थी, और साथ साथ शीत युद्ध का प्रभाव भी दुनिया के हर कोने में महसूस होने लगा। तब साहित्य को बड़ी गम्भीरता से लिया जाता था। एक ख़ास क़िस्म के साहित्य के प्रचार, प्रसार और अनुवाद में बड़े पैमाने के प्रोग्राम स्थापित करके बहुत बड़ी रक़म खर्च की गयी  । मोनिका पोपेस्कु की हाल की किताब का शीर्षक लिया जाए तो शीतयुद्ध और उपनिवेशवाद से आज़ादी पाने के संघर्ष कलम की नोक पर (At Penpoint, २०२०) चलाए गए। साहित्य पर शीतयुद्ध के प्रभाव को लेकर ज़्यादातर काम अमेरिका, सोवियत  रूस और साम्यवादी चीन के प्रचार-प्रसार योजनाओं पर हुआ है । मेरा ध्यान हिंदी पत्रकारिता पर रहेगा, और विशेष तौर पर हिंदी की कहानी पत्रकारिता, जिनका पाठक-वर्ग न केवल साहित्यिक बिरादरी थी बल्कि सामान्य पाठक भी उसमें शामिल थे । क्या १९५० और १९६० के दशकों की हिंदी पत्रिकाओं में कोई अंतर्राष्ट्रीय चेतना नज़र आती है? क्या कहानी और सारिका जैसी लोकप्रिय पत्रिकाएँ भी शीतयुद्ध में भाग लेते दिखाई देती हैं ? क्या उनमें शीतयुद्ध और उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के संघर्षों की झलक मिलती है ? कहानी-पत्रिकाएँ पाठकों के मन में दुनिया की कल्पना कैसे गढ़ती हैं ? (एक ऐसी कल्पना, जो राजनीति से जुड़ी हो पर सिर्फ़ राजनीति से नहीं ।) और जो दुनिया पत्रिकाएँ–जो हर हफ़्ते या हर महीने सिलसिलेवार छपती तो हैं मगर जिनको पढ़ने के बाद रद्दी के हवाले किया जाता है—गढ़ती हैं, वह दुनिया पाठकों के मन में कहाँ तक अंकित रहती है? क्या पत्रिकाएँ भी अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को बनाने में सक्रिय होती हैं ? इन सवालों का जवाब देने की कोशिश करते हुए यह प्रस्तुति हिंदी के एक कम जाने माने पहलू पर रोशनी डालेगी।  


फ़्रंचेस्का ओर्सीनी SOAS, लंदन विश्वविद्यालय में हिंदी और भारतीय साहित्य की प्रोफ़ेसर रही है। उनकी लिखी हुई और सम्पादित किताबों में हिंदी का लोकवृत्त (The Hindi Public Sphere: Language and literature in the age of nationalism, 1920-1940, 2002), Love in South Asia (2006), Print and Pleasure (2009), Before the Divide (2010), After Timur Left (2014, with Samira Sheikh), Tellings and Texts (2015, with Katherine Schofield), Hinglish Live (2022, with Ravikant) और The Form of Ideology and the Ideology of Form: Cold War, Decolonisation, and Third World Print Cultures, with Neelam Srivastava and Laetitia Zecchini) शामिल हैं। 

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