Guest post by VAIBHAV SINGH
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिंदी के ही नहीं वरन समूचे भारतीय साहित्य में निरंतर जिज्ञासा और पाठकीय आकर्षण पैदा करने वाले रचनाकार के रूप में देखे जाते हैं। विभिन्न किस्म की दासता-वृत्तियों, परजीवीपन और क्षुद्र खुशामद से भरे मुल्क में उनका स्वाधीनता बोध जितना गरिमावान लगता है, उतना ही चौंकाने वाला भी। इसी स्वाधीनता बोध ने अज्ञेय की दृष्टि को भारत के लोकतांत्रिक मिजाज के अनुसार ज्यादा खुला व अपने रचना संसार को स्वेच्छा से निर्मित करने लायक बनाया। उनके इस स्वाधीनता बोध का प्रभाव व्यापक रूप से सृजन के बहुत सारे आयामों पर पड़ा है।
अज्ञेय के साहित्य पर लिखने वाले कई आलोचकों ने इस प्रभाव के मूल्यांकन का प्रयास किया है। जैसे कि निर्मल वर्मा ने स्वाधीनता बोध से उत्पन्न उनकी इसी खुली, व्यापक दृष्टि को उनके संपादन कर्म से जोड़कर देखा था। अपने द्वारा संपादित पत्र प्रतीक व दिनमान में उन्होंने मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह व सज्जाद जहीर को जोड़ा तो तार सप्तक के विविध खंडों में अपने से पूर्णतया भिन्न दृष्टिकोण वाले कवियों को। स्वाधीनता के प्रति तीव्र संवेदनशीलता को व्यक्तिवाद के दायरे में रखकर समझने की सरल चिंतन-प्रक्रिया साहित्य में बहुतायत से मौजूद रही है। ऐसा मानने वालों की सीमा प्रकट करते हुए निर्मल वर्मा ने कहा है कि स्वाधीनता के प्रति अत्यंत सचेत अज्ञेय के प्रति लोगों को झुंझलाहट उस समाज में स्वाभाविक थी जहां लोगों को हर समय किसी ‘ऊपर वाले’ का मुंह जोहना पड़ता है। इन ऊपर वालों में परिवार, जाति, रूढ़ि, पार्टी, विचारधारा, संगठन आदि सभी कुछ शामिल रहा है। यहां तक कि गांव में जातिवाद-परिवार की गुलामी करने वाले लोग जब शहर आए तो उन्होंने विभिन्न पार्टियों, संगठनों व विचारधाराओं की गुलामी को बिना किसी आलोचना के स्वीकार कर लिया। जिन्होंने नहीं स्वीकारा उन्हें कुलद्रोही, जनविरोधी, परंपराद्वेषी, धर्मविरोधी, व्यक्तिवादी आदि आरोपों का सामना करना पड़ा।