Tag Archives: माकपा

बेलगाम हिंसा और मानवाधिकार आंदोलन का ज़मीर

1 सितंबर:31 अगस्त की रात पुरुलिया की अयोध्या पहाडियों में नौदुली गाँव में तीस हथियारबंद लोग घुसे , गांववालों को घर से न निकलने का हुक्म पुकार कर सुनाया, फिर वे लतिका हेम्ब्रम के घर में घुसे  जहां वह अपने पति गोपाल के साथ सोई थी. राइफल के कुन्दों से  लतिका को पीटते हुए उन्होने धमकी दी  कि उसे उन्होंने एक साल पहले ही सी.पी.एम. छोड देने को कहा था पर उसने अब तक यह किया नहीं और अगर वह अभी भई यह नहीं करती तो वे उसे जान से मार डालेंगे.  लतिका स्त्री है, ग्राम पंचायत की प्रमुख है, पर उसकी उसके पति के साथ जम कर पिटाई की गई. हवा में गोलियां दागते हुए वे  दस किलोमीटर दूर एक दूसरे गांव जितिंग्लहर पहुंचे और देबिप्रसाद के घर पहुंचे. देबीप्रसाद के मां-बाप इनके पैरों पर गिर पडे और अपने बेटे के प्राणों की भीख मंगने लगे. पर उसे ठोकर मार कर जगाया गया और छाती में दो गोलियां मारी गईं. देबी प्रसाद की मौत हो गई. देबीप्रसाद सी.पी.एम. का सदस्य था.
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जे पी आन्दोलन की भूल

नीतीश कुमार आलोचना से परे हैं. इतिहासकार, राजनीतिशास्त्री, समाजवैज्ञानिक या पत्रकार, अभी सब नीतीशजी के गुणगान में व्यस्त हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं हुआ जब जे.पी. आन्दोलन से जुड़े लोगों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री ने पेंशन की घोषणा की, तो कहीं से आलोचना का कोई स्वर नहीं सुनाई पडा, एक जनसत्ता की सम्पादकीय टिप्पणी को छोड़कर. खबरों में यह बताया गया था कि कांग्रेस विरोधी उस आंदोलन में जो जेल गए या घायल हुए, उन्हें पेंशन दी जाएगी. जनसत्ता ने ठीक ही यह प्रश्न किया कि क्या जयप्रकाश के नेतृत्व वाले उस आन्दोलन को भारत के स्वाधीनता आंदोलन के समतुल्य माना जा सकता है. यह सवाल भी अपनी जगह ठीक था कि अगर बिहार अर्थ-संकट से जूझ रहा है, तो इस बेतुकी योजना के लिए पैसे कहाँ से निकल आए!

जे.पी. आन्दोलनकारियों के लिए पेंशन की इस योजना का लाभ किस एक दल या संगठन के लोगों को सबसे ज़्यादा मिलेगा, अंदाज करना कठिन नहीं है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ या तत्कालीन जनसंघ और अब भारतीय जनता पार्टी के सदस्य इस आंदोलन में बड़ी संख्या में थे. बल्कि यह आंदोलन पहला ऐसा बड़ा मौका था, जिसने आर.एस..एस और जनसंघ को राजनीतिक मान्यता दिलाने का काम किया. जयप्रकाश आर.एस.एस. के खतरनाक स्वभाव से परिचित न रहे हों, यह आरोप उनपर नहीं लगाया जा सकता. फिर भी कांग्रेस विरोध की राजनीति के कारण जयप्रकाशजी को आर.एस.एस. के साथ काम करने में हिचक नहीं हुई. १९७४ के पहले १९६७ वह बिंदु है, जिसे आर.एस.एस. को राजनैतिक वैधता दिलाने के सन्दर्भ में याद रखना चाहिए. कांग्रेस विरोध के प्लेटफार्म पर समाजवादियों और वामपंथियों को जनसंघ के साथ आने में कोई परेशानी नहीं हुई थी. तात्कालिक राजनीतिक यथार्थ और बाध्यताओं की दुहाई दी जा सकती है और इस तरह के गठजोड़ के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं. लेकिन क्या हम यह मान लें कि जनसंघ को राजनीतिक और आर.एस.एस. को सामाजिक वैधता दिलाने का परिणाम भारत को आगे जा कर भुगतना था, इसकी कल्पना करने की क्षमता जयप्रकाशजी में नहीं थी! अभी इस आन्दोलन की सम्यक समीक्षा होना बाकी है, लकिन मैं २००३ के दिसम्बर महीने में एक साथ तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद रांची के अपने मित्र, जे.पी. आन्दोलन के पहले दौर के कार्यकर्ता, पत्रकार फैसल अनुराग की बात भूल नहीं पाता हूँ. उन्होंने बड़ी तकलीफ के साथ कहा कि मैं अब सार्वजनिक रूप से यह कहने को तैयार हूँ की जे.पी. आंदोलन एक बहुत बड़ी भूल का शिकार था.
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वाम के खिलाफ अवाम: ईश्वर दोस्त

This is a guest post by ISHWAR DOST. Ishwar is a Left activist and journalist. He works with Jansatta.

एक वक़्त था जब नंदीग्राम माकपा के बर्ताव से अचंभे और सदमे में था। आज पूरे बंगाल में बुरी तरह खारिज कर दिए जाने पर माकपा की यही स्थिति है। कभी नंदीग्राम पीड़ित के रूप में उभरा था, आज माकपा और उसके साथ और पीछे खड़ी पार्टियों की पीड़ा समझी जा सकती है। नंदीग्राम और सिंगूर के एक स्थानीय घटना बन कर रह जाने की माकपाई उम्मीद अचानक खत्म हो गई। नतीजे बताते हैं कि नंदीग्राम की पीड़ा के साथ बंगाल के देहात ने ही नहीं, शहर कोलकाता ने भी साझा किया है। किसानों के साथ हुए हिंसक सलूक से कोलकाता के बुद्धिजीवी ही नहीं, आम लोग भी हिल गए थे।

नंदीग्राम अब माकपा की पीड़ा और छटपटाहट को समझ सके, इसमें शायद काफी देर हो गई है। ऐसा कभी हो सके, इसके लिए माकपा और उसके पीछे चलने वाली पार्टियों को सारे अहंकार छोड़ कर एक पुरानी पीढ़ी के किसी कम्युनिस्ट की तरह नंदीग्राम तक सिर झुकाए आना होगा। सत्ता और सफलता का अहंकार पीड़ा को समझने और उससे जुड़ने की क्षमता नष्ट कर देता है। इस अहंकार ने कम्युनिस्टों की एक वक्त की नैतिक, ईमानदार और जज्बाती होने की पहचान को कमजोर कर दिया है। Continue reading वाम के खिलाफ अवाम: ईश्वर दोस्त