आतंकवादी कविता के विरुद्ध युद्ध: अपूर्वानंद

‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ ने आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय युद्ध में नई जीत हासिल की है. वह कालीकट विश्वविद्यालय के स्नातक स्तर की  अंग्रेज़ी की पाठ्यपुस्तक –‘लिटरेचर एंड कंटेम्पररी इश्यूज’ से ‘अल कायदा से जुड़े एक आतंकवादी’ इब्राहिम अल रुबाईश की कविता ‘ओड टू द सी’ को निकलवा देने में सफल रहा है.  आन्दोलन की केरल इकाई के सचिव ने इस कविता को पाठ्यपुस्तक में शामिल करने को ‘गंभीर मामला’ बताते हुए कहा था कि किताब को वापस लेने और विश्वविद्यालय द्वारा माफी माँगने के बाद इसकी जांच होनी चाहिए कि ‘बोर्ड ऑव स्ट्डीज़’ और अकेडमिक काउन्सिल’ में आतंकवादियों के समर्थक कौन हैं जिससे इस तरह की सामग्री के चुनाव के पीछे की साजिश का पर्दाफ़ाश हो सके.

कुलपति ने फौरन अपने डीन प्रोफ़ेसर एम.एम. बशीर को मामले की जांच करने को कहा. उन्होंने कहा कि ऊपर से निर्दोष लगने वाली इस  कविता में रुबाइश ने अत्यंत अर्थगर्भी प्रतीकों का इस्तेमाल किया है जो खतरनाक भी हो सकते हैं.मसलन, उसने ‘फेथलेस’ शब्द का प्रयोग किया है जो अरबी शब्द ‘काफिर’ का अंग्रेज़ी अनुवाद है. फिर जैसा आज का अकादमिक रिवाज है, वे इंटरनेट पर गए और पता किया कि इस कवि  ने अमरीका के खिलाफ जंग का आह्वान भी किया था. भला इसके बाद और सोचने की ज़रूरत ही क्या रह जाती है?पाठ्यपुस्तक के संपादकद्वय में से एक ने लगभग माफी माँगते हुए कहा कि डेढ़ साल पहले इसे संपादित करते वक्त रुबाइश के बारे में ज़्यादा सामग्री ‘ऑनलाइन’ मौजूद न थी. अगर उन्हें कवि के  राजनीतिक रुझान  का जरा भी अंदाज होता तो वे इसे कतई न चुनते.

संपादकों ने छात्रों के सामने मानवीय आवश्यकता के रूप में कविता की भूमिका को समझने का एक नया परिप्रेक्ष्य खोला था.  उसके लिए उन्हें माफी मांगनी पड़े,यह विडंबना है. उन्होंने अंग्रेज़ी के छात्रों को समकालीन मुद्दों के साथ साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए एक नमूना चुना था. आतंकवाद के खिलाफ अन्तराष्ट्रीय एकजुटता आज का मुद्दा है. सबसे बड़ा  आतंकवाद विरोधी योद्धा देश अमरीका ने अपना  युद्ध किस तरह लड़ रहा है ,उसका एक प्रमाण क्यूबा के गुवंतानामो बे  में गैरकानूनी तरीके से बनाई गई जेल है जहां उसने दुनिया भर से अवैध तरीके से पकड़े गए लोगों को सालों से कैद कर रखा है.अमरीका के उच्चतम न्यायालय ने भी इसे अस्वीकार्य ठहराया है. राष्ट्रपति पद के पहली बार उम्मीदवारी पेश करते हुए बराक ओबामा ने इसे बंद करने का वादा किया था. अमरीका में रिपब्लिकन  दल के विरोध के कारण अब तक यह हो नहीं पाया है.

इसी गैरकानूनी जेल में सख्त अलगाव और अकेलेपन में कैद अलग- अलग देशों के लोगों में से कई ने अपनी घुटन, दर्द, नाराजगी और शिकायत को दर्ज करने का माध्यम कविता को बनाया. 2007 में इनमें से सत्रह यमनी  कैदियों की आज़ादी के लिए लड़ रहे अटॉर्नी मार्क फाल्कौफ़ ने एक संग्रह सम्पादित किया, ‘पोएम्स फ्रॉम गुंतानामो: द डिटेनीज़ स्पीक’. इनका अंग्रेज़ी अनुवाद पेंटागन के सैन्य अधिकारियों ने  कुछ भाषाविदों से कराया जिन्हें साहित्यिक अनुवाद का न प्रशिक्षण था न अभ्यास. दूसरा तथ्य , जो कालीकट विश्वविद्यालय को ज़रूर ध्यान रखना चाहिए था,यह है कि यह संग्रह एक अमरीकी विश्वविद्यालय यूनिवर्सिटी ऑव आयोवा ने प्रकाशित  किया था.

फाल्कौफ़ ने रुबाइश की कविता को इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता मानते हुए कहा कि  यह रुबाइश की समुद्र से शिकायत तो है ही कि वह कैदियों से साथ हो रहे जुल्म को खामोशी से देखता रहा है और एक तरह से  इसमें शामिल है, यह अमरीकी जनता की खामोशी के खिलाफ भी शिकायत है.

कलम – कागज़ से वंचित इन कैदियों ने चाय के प्याले पर, प्लास्टिक चम्मचों के सहारे खुरच-खुरच कर और दूसरे अकल्पनीय साधनों का इस्तेमाल करके ये कविताएँ लिखीं और हमकैदियों  से साझा कीं. पेंटागन के अधिकारियों ने इनका अनुवाद कराया क्योंकि उन्हें इनमें गुप्त आतंकवादी संदेश होने का अंदेशा था.फाल्कौफ़ उन्हें समझाने में सफल हुए कि ये कविताओं के रूप में कैदियों की मानवीय प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति हैं और इनके प्रकाशन से सेना को कोई ख़तरा नहीं है. अंग्रेज़ी साहित्य के अध्येता फाल्कौफ़ के अनुसार इनमें एकाध को छोड़ कर किसी में अमरीका या राष्ट्रपति बुश के खिलाफ सीधी अभिव्यक्ति भी नहीं है.

संग्रह के प्रकाशन के बाद इस पर दिलचस्प बहस हुई. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में डान चाईसन ने इस संग्रह को साहित्यिक मानने से इनकार करते हुए पूछा कि कहीं यह पेंटागन की चतुर जन-संपर्क युक्ति तो नहीं! वह एक कविता संग्रह के माध्यम से कही यह संदेश देने की कोशिश तो नहीं कर रहा कि इस जेल में भी, जिसे पिंजरा कहा जाता है,विरोध के स्वर जीवित हैं और इसलिए इसे अमानवीय कहा जाना मुनासिब नहीं . ‘द क्वार्टरली रिव्यू’ में जॉर्ज फ्रागोपुलस ने चाईसन से असहमत होते हुए भी लिखा है कि मुमकिन है वे कहना यह चाहते हैं कि जिन मानवतावादी  सिद्धांतों की हम इन कविताओं में तलाश करतेहैं,वे वही हैं जिनकी दुहाई दे कर यह जेल बनाई गई और रुबाइश जैसे कैदियों को सालों-साल दुनिया की नज़र से ओट हर तरह की न्यायिक प्रक्रिया से वंचित कर बंद रखा गया. हम जिन मानवाधिकारों का हवाला देकर इन कैदियों की रिहाई और आज़ादी की मांग करते हैं, उन्हींकी हिफाजत के नाम पर अमरीका इराक़, अफगानिस्तान, पकिस्तान और दूसरे मुल्कों लोगों को गायब करता करता है और ड्रोन हमलों में  चुन –चुन कर मारता है.

फ्रागोपुलस ने इस संग्रह को राजनीति, क़ानून, मानवाधिकार के सिद्धांत और कविता के बीच के तनावों को समझने के लिहाज से पढ़ने का अनुरोध किया है. ‘द गार्डियन’ में शिरले डेंट ने कविता को कानूनी और राजनीतिक संघर्ष में घसीटे जाने पर परेशानी जताते हुए इन कविताओं में साहित्यिकता खोजे जाने की समस्या की ओर इशारा किया है. फ्रागोपुलस ने डेंट द्वारा राजनीति और साहित्यिकता के बीच किए गए स्तर-विभाजन को अस्वीकार करते हुए लिखा है कि हम इन कविताओं को ‘साहित्य’ की तरह पढ़ने की जगह इस तरह देखने का प्रयास करें कि ये कविताएँ कविता के तौर पर क्या सुझा रही हैं.

क्या ये कविताएँ ऐसे स्थान में पैदा हुईं जो वर्तमान सभ्यता के लिए अपवाद है ? यानी क्या गुआंतानामो को हम अमरीकी लोकतंत्र के लिए अपवाद की तरह देखें या वह अमरीकी किस्म के लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए नियम है?

मानवता की रक्षा के लिए आतंकवाद विरोधी अभियान की कठिनाइयों की आड़ में अपने आप को क़ानून से ऊपर रखने की वकालत सिर्फ अमरीकी सेना या शासन नहीं करता, भारत में इसके शिकार जम्मू-कश्मीर, उत्तर पूर्व के राज्यों और आदिवासी इलाकों के लोग तो होते ही रहे हैं, मुसलमान नौजवान इसके सबसे आसान निशाना हैं.हर बार भारतीय  न्याय व्यवस्था का सजग रहना संभव नहीं होता. सालों से सेना और अर्धसैनिक बलों के हाथों मारेगए, लापता कर दिए गए लोगों के परिजनों की खामोश चीख हम तक, जिन्हें  सुरक्षित रखने के नाम पर यह किया जाता है, पहुँच नहीं पाती, उनके पक्ष में हमारे बोलने और लड़ने की बात तो दूर रही.

अमीराका के लिए अमरीकी मूल्यों और अमरीकी जान की हिफाजत अपने आप में वैध और सर्वोपरि सिद्धांत है. यूनिवर्सिटी ऑव आयोवा ने गुआंतानामो के पिंजरे में कैद इन ‘आतंकवादियों’ और ‘अमरीका- दुश्मनों’की आवाज को प्रकाशित करने का निर्णय किया तो क्या वह अमरीका विरोधी आतंकवादी साजिश में शामिल थी ? यह सवाल कालीकट विश्वविद्यालय और केरल के बुद्धिजीवियों को हथियार डालने के पहले को करना चाहिए था. लेकिन वे ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ के एक ही हमले में धराशायी हो गए.

‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ भारतीय बौद्धिकों के,विशेषकर विश्वविद्यालयों की सुविधापरस्त भीरुता का लाभ उठा कर केरल जैसी जीत कई बार हासिल कर चुका है. ए.के. रामानुजन कोई आतंकवादी न थे लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकों के लिए प्रस्तावित  उनके लेख ‘तीन सौ रामायण’ पर उसने हमला बोला और दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद् ने उसे  छात्रों के लिए नुकसानदेह बताते हुए हटा दिया. वहाँ भी यही तर्क दिया गया था,  छात्रों को पढ़ने को इतना कुछ है , रामानुजन को न भी पढ़ें तो कुछ बिगड़ नहीं जाएगा. इसके पहले एन.सी.ई.आर.टी. की किताब से एम्.ऍफ़.हुसेन के पाठ हिन्दू विरोधी कह कर हटाने का अभियान चल चुका है, अवतार सिंह पाश को भे आतंकवादी बता कर बच्चों के ली हानिकर ठहराया जा चुका है. सबसे दिलचस्प एन.सी .ई.आर.टी. की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में दिए गए एक अभ्यास को हटाने को लेकर ‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ का अभियान है. उस अभ्यास में छात्रों से इंटरनेट पर या किसी कला वीथिका में हुसेन जैसे  जैसे कलाकारों की

कलाकृतियों को देखने को कहा गया था. ‘आन्दोलन’ ने इस अभ्यास को खतरनाक बताया क्योंकि जब किशोरवय छात्र  नेट पर जाएंगे तो उन्हें हुसेन के  हिन्दू विरोधी चित्रों के प्रदूषण का शिकार होना होगा. इसे हटाने की उनकी मांग को जब एन.सी.ई.आर.टी.ने नहीं माना तो आन्दोलन ने उस पर मुकदमा कर दिया. फिर उन्होंने सी.बी.एस.ई.पर दबाव डाला. दो साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार यह अभ्यास हटा ही लिया गया.

‘शिक्षा बचाओ आन्दोलन’ न सिर्फ शिक्षा में हिन्दू हितों की रक्षा में सन्नद्ध है , वह अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी युद्ध में अमरीका का सजग सिपाही भी है. वह जो हो, लेकिन कालीकट विश्वविद्यालय के इस फैसले को अमरीका में ही किस विस्मय के साथ ग्रहण किया जाएगा, यह सोचने पर शर्म ही आती है.इस घटना से हम समझ सकते हैं कि क्यों हम कभी अमरीकी विश्विद्यालीय श्रेष्ठता के पासंग भी नहीं हो सकते. बौद्धिक भीरुता और दुर्बलता के सहारे बौद्धिक श्रेष्ठता हासिल करना संभव नहीं.

( First published in Jansatta on 28 July,2013)

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