कट्टरता के खिलाफ अज्ञेय: वैभव सिंह

Guest post by VAIBHAV SINGH

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिंदी के ही नहीं वरन समूचे भारतीय साहित्य में निरंतर जिज्ञासा और पाठकीय आकर्षण पैदा करने वाले रचनाकार के रूप में देखे जाते हैं। विभिन्न किस्म की दासता-वृत्तियों, परजीवीपन और क्षुद्र खुशामद से भरे मुल्क में उनका स्वाधीनता बोध जितना गरिमावान लगता है, उतना ही चौंकाने वाला भी। इसी स्वाधीनता बोध ने अज्ञेय की दृष्टि को भारत के लोकतांत्रिक मिजाज के अनुसार ज्यादा खुला व अपने रचना संसार को स्वेच्छा से निर्मित करने लायक बनाया। उनके इस स्वाधीनता बोध का प्रभाव व्यापक रूप से सृजन के बहुत सारे आयामों पर पड़ा है।

अज्ञेय के साहित्य पर लिखने वाले कई आलोचकों ने इस प्रभाव के मूल्यांकन का प्रयास किया है। जैसे कि निर्मल वर्मा ने स्वाधीनता बोध से उत्पन्न उनकी इसी खुली, व्यापक दृष्टि को उनके संपादन कर्म से जोड़कर देखा था। अपने द्वारा संपादित पत्र प्रतीक व दिनमान  में उन्होंने मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह व सज्जाद जहीर को जोड़ा तो तार सप्तक के विविध खंडों में अपने से पूर्णतया भिन्न दृष्टिकोण वाले कवियों को। स्वाधीनता के प्रति तीव्र संवेदनशीलता को व्यक्तिवाद के दायरे में रखकर समझने की सरल चिंतन-प्रक्रिया साहित्य में बहुतायत से मौजूद रही है। ऐसा मानने वालों की सीमा प्रकट करते हुए निर्मल वर्मा ने कहा है कि स्वाधीनता के प्रति अत्यंत सचेत अज्ञेय के प्रति लोगों को झुंझलाहट उस समाज में स्वाभाविक थी जहां लोगों को हर समय किसी ‘ऊपर वाले’ का मुंह जोहना पड़ता है। इन ऊपर वालों में परिवार, जाति, रूढ़ि, पार्टी, विचारधारा, संगठन आदि सभी कुछ शामिल रहा है। यहां तक कि गांव में जातिवाद-परिवार की गुलामी करने वाले लोग जब शहर आए तो उन्होंने विभिन्न पार्टियों, संगठनों व विचारधाराओं की गुलामी को बिना किसी आलोचना के स्वीकार कर लिया। जिन्होंने नहीं स्वीकारा उन्हें कुलद्रोही, जनविरोधी, परंपराद्वेषी, धर्मविरोधी, व्यक्तिवादी आदि आरोपों का सामना करना पड़ा।

अज्ञेय की सृजनशीलता चिंतन साहित्य, कविता और रचनात्मक गद्य लेखन तीनों प्रकार से व्यक्त हुई है। अपने प्रौढ़ विचारशील निबंधों में वे लगातार स्मृति, परंपरा, संस्कृति आदि के बारे में कभी कुछ खीज पैदा करने वाली सूक्ति-शैली में तो कभी सचमुच गहराई से विचार करते रहे हैं। निबंधों मे वे उदार तथा समावेशी भारतीयता तथा तर्कवादी विचार पद्धति के परिपक्व वाहक की तरह उभरे हैं। भारत का जो विचार (आइडिया आफ इंडिया) नेहरू युग में उभरा था, कुछ इक्का-दुक्का असहमतियों के साथ अज्ञेय लगभग उसी विचार के आसपास रहे। आजादी के कुछ ही वर्षों बाद प्रकाशित उनका उपन्यास नदी के द्वीप का नायक भुवन वैज्ञानिक है जिसका संस्कार विज्ञानसम्मत ढंग से हर समस्या पर विचार करने का है। उसका वैज्ञानिक रूप भी नेहरू युग के वैज्ञानिकता के निकट है। अज्ञेय ने 1949 में नेहरू अभिनंदन ग्रंथ का संपादन किया था जिसे प्रगतिवादियों ने सत्ताप्रेम के रूप में देखा और अज्ञेय के प्रशंसकों ने अज्ञेय के मन में मौजूद प्रगतिशील आधुनिकता के प्रति झुकाव के रूप में।

नेहरू के प्रति दृष्टिकोण को लेकर मतभेद केवल प्रगतिवादियों व प्रगतिवाद से असहमत लोगों में ही नही थे। स्वयं वामपंथियों में भारी मतभेद रहे हैं। भीष्म साहनी ने अपनी आत्मकथा आज के अतीत  में भी उस जटिल राजनीतिक वातावरण का उल्लेख किया है जब इप्टा के अंदर नेहरू की आलोचना को कई प्रगतिशील लोग सही नहीं मानते थे। भीष्म साहनी के अनुसार इप्टा में शामिल कई कलाकार नेहरू सरकार के एकदम खिलाफ नहीं थे और नेहरू की आलोचना किए जाने से वे धीरे-धीरे इप्टा के सांस्कृतिक आंदोलन से अलग होने लगे। उनमें ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे इप्टा के संस्थापक भी शामिल थे। भीष्म जी लिखते हैं-

‘नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना भले ही की जाती पर उसे इप्टा के कार्यक्रमों का एकमात्र मुद्दा बना देना बहुत बड़ी भूल थी। इससे इप्टा के कार्यक्रमों में तंगनजरी आने लगी। इप्टा के ही कार्यकर्ता एक-दूसरे की मीनमेख निकालने लगे कि कौन उनके बीच संशोधनवादी है, कौन सुधारवादी। जबकि सभी लगभग मध्यवर्ग से आए थे।’

अज्ञेय के जीवन तथा लेखन से आलोचनात्मक संवाद करने के लिए उत्सुक निर्मल वर्मा ने भी अज्ञेय को एक ओर नेहरू युग के लेखक के तौर पर देखा है तो दूसरी ओर उनकी मानसिक संरचना को बंगाली रेनेसां के बुद्धजीवियों के निकट पाया है। उन्हें लगता था कि अज्ञेय असली अर्थों में नेहरू युग के प्रतिनिधि लेखक हैं जो बिना मार्क्सवादी हुए रेडिकल है और लोकतंत्र का मान्यताओं में विश्वास रखता है। नेहरू युग की कुछ सामान्य सीमाएं भी उनके व्यक्तित्व तथा लेखन का हिस्सा थीं। जैसे कि नेहरू युग का लेखक एक ओर बहुत बदलाव चाहता था लेकिन भीतर ही भीतर उन बदलावों के प्रति आशंकित रहता था। परिवर्तन की तीव्र कामना व्यक्त करता था, साथ ही अपनी जीवन, परिवार, दफ्तर आदि संबंधित परिवेशों में ‘हारमनी’ के आदर्श को त्याग नहीं पाता था। विज्ञान के प्रति अतिशय मोह उसके परंपरा संबंधी विश्वासों को समाप्त नहीं कर पाते थे। निर्मल वर्मा के अनुसार- ‘नेहरू युग का उदात्त सौंदर्य और जड़गत सीमाएं- दोनों ही अज्ञेय के कर्म और चिंतन में देखी जा सकती हैं।’ लेकिन नेहरू से सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव ग्रहण किए जा सकते थे, सांस्कृतिक प्रभाव के लिए फिर भी लेखकों को किसी अन्य ज्यादा गहरे, तलस्पर्शी स्रोतों की तलाश रहती थी। लेखन को भले ही भारत की जमीन पर उठने वाले भिन्न-भिन्न राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव से कुछ लोग राजनीतिक कर्म मानने लगे हों, पर वह संस्कृति कर्म होने में ही अधिक प्रभावशाली होता है। निर्मल वर्मा ने अज्ञेय की सांस्कृतिक प्रेरणाओं के अनुसंधान की चेष्टा में उन्हें बंगाली रेनेसां के बौद्धिकों की परंपरा से भी जोड़ा है जो विदेशी प्रभावों को ग्रहण करने के लिए जितने खुलेपन का परिचय देता था, उतना ही स्वजातीय परंपरा के प्रति लगाव को बचाए रखता था। निर्मल वर्मा ने अपने लेख ‘अज्ञेय- आधुनिक बोध की पीड़ा’ में लिखा है –

‘अपनी मानसिक संरचना में अज्ञेय बहुत हद तक बंगाल रेनेसां के बुद्धिजीवियों के उत्तराधिकारी रहे हैं, पश्चिमी भावबोध के प्रति एक खुला मोह और आकर्षण, किंतु अपनी जातीय परंपरा और भाषा के प्रति गहन स्तर पर संवेदनशील।’

ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मनिरपेक्षता के विषय में वे नेहरू युग की सामान्य मान्यताओं से अलग राह पकड़ रहे थे। धर्मनिरपेक्षता के पश्चिमी धारणा को भारतीय समाज पर आरोपित करने पर उनकी असहमतियां बहुत स्पष्ट तरीके से सामने आती हैं। पर धर्मनिरपेक्षता की अपनी आंशिक आलोचनाओं के कारण उस राह में वे कभी नहीं गए जहां बहुसंख्यकवाद का खतरा पैदा होने लगता है। अधिक से अधिक वे अपने प्रकृति व जीवन से जुड़े आध्यात्मिक अनुभवों को जीने की स्वतंत्रता के लिए धर्मनिरपेक्षता के बारे में आफिशियल सोच को लांघ जाते थे पर धर्म के दुरुपयोग से उनका हमेशा ही विरोध रहा। इसीलिए आश्चर्य नहीं कि अज्ञेय में संस्कृति के लिए हिंदू शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया बल्कि भारतीयता पर उनकी आस्था रही है। भारत को भी बहुकेंद्रिक, बहु-ऐतिहासिक, परंपरा बहुल ही माना। भारत को बहुकेंद्रीय संस्कृति वाला देश मानते हुए वे जिस ढंग से भारत की विविधता पर मुग्ध होते थे, वह भी नेहरू युग के गहरे असर को व्यक्त करता है। शेखर- एक जीवनी  में उनका नायक शेखर मद्रास से लेकर लाहौर व दिल्ली तक निवास करता है। उसी प्रकार नदी के द्वीप का भुवन इलाहाबाद, असम, बंगलौर, कलकत्ता, कश्मीर, नैनीताल आदि इलाकों में घूमता रहता है। शेखर को किसी एक जगह बस जाने से घृणा है तो भुवन भी विभिन्न संस्कृतियों के मध्य अपनी संवेदना का विस्तार करता है। वह बंगला, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी कविताओं पर रीझता है। वह भी लेखक की तरह यायावरी जीवन को आदर्श मानता है। आधुनिक यायावरपन भी आधुनिकता के साथ जुड़ा हुआ है जो संन्यासियों, तीर्थयात्रियों या संतों के घुमंतूपन से भिन्न प्रवृत्ति रही है। भिन्न इस अर्थ में कि प्राचीन धार्मिक घुमंतूपन में स्वयं को समर्पित करने की लालसा रहती थी। लेकिन आधुनिक यायावरी में स्वयं को पहचानने, स्वयं के बोध की आंतरिक इच्छा प्रमुख रही है। उस यायावरपन में वैश्विकता व सार्वभौमिकता की ओर बढ़ने की प्रचंड ललक मौजूद होती है और वह भी आधुनिकता का एक सामान्य लक्षण रहा है। यह संयोग से कुछ अधिक है कि मुक्तिबोध ने अपने लेखन में ‘माइग्रेशन इंस्टिक्ट’ का उल्लेख किया है और अज्ञेय ने मुक्तिबोध के इस शब्द का उल्लेख कर अपनी आधुनिकता को समझने का प्रयास किया। कुल मिलाकर, उपन्यास चरित्रों को देश के विशाल भौगोलिक क्षेत्रों व विविध संस्कृतियों में कर्मशील दिखाना भी एक प्रकार से भारतीय विविधता का बिंब व उस विविधता की स्वीकृति का प्रतीक माना जाना चाहिए।

विश्व-भ्रमण के शौकीन और विभिन्न संस्कृतियों वे लेखकों के प्रभाव को मुक्त मन से लेने वाले अज्ञेय  धर्म-संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त उदार भारतीयता के पक्ष में लगातर विचार किया है। अज्ञेय अपने लेखकीय जीवन में वास्तव में धार्मिक-सांस्कृतिक उदारता की जमीन पर खड़े होकर परंपरा तथा स्मृति से जुड़े विविध पक्षों पर विचार कर रहे थे। अशोक वाजपेयी ने उनके बारे में ‘अकेलेपन का वैभव’ नामक लेख में लिखा है-

‘अज्ञेय न केवल राजनीतिक स्तर पर किसी तरह की सांप्रदायिकता के विरोधी रहे बल्कि उनकी ‘जय जानकी यात्रा’ भी किसी तरह की छिछली धार्मिकता से मुक्त सांस्कृतिक आयोजन थी। आज जब हम फिर से धर्म और समाज के प्रश्न से जूझने को विवश हैं और पा रहे हैं कि आध्यात्म की इस लगातार उपेक्षा से हिंदी समाज ने जो आध्यात्मिक शून्य पैदा किया है, उसे छिछली व नकली धार्मिकता ने पूरी आक्रामकता के साथ भर दिया है। ऐसे में अज्ञेय का यह पक्ष हमारे काम का है।’

अज्ञेय ने संकीर्ण हिंदू अस्मिता पर जोर देने के स्थान पर उन्मुक्त बौद्धिकता की साहित्यिक पहचान पर जोर दिया है। उनके द्वारा किसी धर्म या धार्मिक मिथकों को साहित्य की विषय वस्तु न बनाना भी उनकी उन्मुक्त आधुनिक चेतना का साक्ष्य है। उन्होंने विभाजन व शरणार्थी समस्याओं पर छह कहानियां लिखी हैं। ये कहानियां हैं- ‘लेटरबाक्स’, ‘शरणार्थी’, ‘बदला’, ‘रमंते तत्र देवताः’, ‘मुस्लिम-मुस्लिम भाई-भाई’, ‘नारंगियां’। इसी प्रकार उन्होंने शरणार्थी शीर्षक से 11 कविताएं भी लिखीं। इन रचनाओं में उनके निशाने पर दोनों ही तरह की सांप्रदायिकताएं हैं- हिंदू व मुस्लिम सांप्रदायिकता। चरम पागलपन तथा उग्र सामूहिक उन्माद के दौर में भी मानवता की लौ बुझती नहीं, अज्ञेय अपनी कहानियों में यही दिखाते हैं। इनमें ‘रेस्क्युअर’ वाली थीम का प्रयोग किया गया है। यानी ऐसे उदार व मानवीय चेतना से संपन्न चरित्रों की रचना की गई है जो धर्म की आक्रामक कट्टरता का समर्थन करने के स्थान पर उसका प्रतिकार करते हैं और संकटग्रस्त मानवता के सामने तटस्थ हो जाने के स्थान पर उसके बचाव में उतर आते हैं। सांप्रदायिकता व उग्र राष्ट्रवाद के दौर में ‘बदला’ शब्द बहुत प्रचलित होता जाता है। दुर्भाग्य से इन दिनों टीवी चैनल के पत्रकार रोज खबरों में किसी न किसी से बदला लेने के लिए सरकार पर दबाव डालते हैं। पर अज्ञेय ने अपनी कथाओं में बदला या प्रतिशोध शब्द का अर्थ ही उलट दिया। उनकी कहानी ‘बदला’ में ऐसे सिख चरित्र का वर्णन है जो खूनखराबे के स्थान पर लोगों को सुरक्षित उनके स्थान पर पहुंचा रहा है और वह लोगों के मन में बैठी क्रूर बदले की भावना के विपरीत आचरण करने का जोखिम उठा रहा है।

अज्ञेय का साहित्य व उनके निबंध दोनों ही उदार, समावेशी और प्रगतिशील आधुनिकता के मूल्यों के पक्ष में दृढ़ता से खड़े हैं। अज्ञेय के ये मूल्य कट्टरता की उस राजनीति की आंखों के लिए किरकिरी बने रहेंगे जिसका मानना है कि भारत में लोकतंत्र व आधुनिकता के समस्त प्रयोग विफल हो चुके हैं और बहुस्तरीय षड्यंत्रों की श्रृंखलाओं के माध्यम से उन्हें नष्ट कर देना उसका अब गुप्त नहीं बल्कि घोषित लक्ष्य बनता जा रहा है।

वैभव सिंह अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापक हैं. vaibhavjnu@gmail.com पर उनसे समपर्क  किया जा सकता है.  इस लेख का विस्तृत रूप  प्रतिमान – समय समाज संस्कृति में प्रकाशित होगा.

6 thoughts on “कट्टरता के खिलाफ अज्ञेय: वैभव सिंह”

  1. अच्छा लेख. लेकिन चूँकि इसे ‘प्रतिमान’ में विस्तार पाना है, मैं कुछ अध्यापकीय टीपें देने से अपने को रोक नहीं पा रहा.

    मानसिक स्वाधीनता को लेकर अज्ञेय के यहाँ प्रचुर सामग्री है. यह उनके लिए रचनात्मक होने की शर्त है और इस शर्त को रखते हुए उनके सामने दो प्रतिपक्ष होते हैं—एक, जाति-बिरादरी-संस्थागत धर्म में या/और पुरातन ज्ञान में आस्था रखनेवाला परम्परावादी और दूसरा, कम्युनिस्ट. एक तीसरा भी है—बाज़ार (त्रिशंकु के लेखों में मुझे इसके भी उदाहरण मिले). लेकिन बाज़ार से कोई बहस तो की नहीं जा सकती! इसलिए बहस में उनकी सीधी टक्कर पहले दोनों के साथ है. दोनों उनकी दृष्टि में एक स्वतंत्रचेता मनुष्य की स्वतन्त्रता को स्थगित करते हैं. पर मुझे अज्ञेय को पढ़ते हुए हमेशा लगता रहा कि प्राक-आधुनिक मिज़ाज का परम्परावादी उन्हें कम्युनिस्टों के मुक़ाबले ज़्यादा नाक़ाबिले बर्दाश्त है, अगरचे ज़्यादा बहसें उनकी कम्युनिस्टों के साथ होती हैं, क्योंकि नेहरू-युग और शीत-युद्ध के माहौल में वही प्रतिपक्ष एकदम सम्मुख है. यह ऐसा समय है जब आधुनिक संस्थाएं बन रही हैं, बौद्धिक फ़िज़ां में आधुनिकता के ही अलग-अलग फ़िरकों के बीच टकराव है, जाति-बिरादरी-संस्थागत धर्म समाज में जितने भी मज़बूत हों, चिंतन-सृजन की और अकादमियों की दुनिया में उनका कोई पैरवीकार नहीं है, पारंपरिक ज्ञान को यथेष्ट माननेवाले विद्वान अकादमियों में हैं तो सही, पर या तो हाशिये पर हैं या पदों पर क़ाबिज़ होने के बावजूद बौद्धिक प्राधिकार से वंचित हैं. तो ज़ाहिर है, बहस भी उनसे क्योंकर और कितनी होगी? जहां गुंजाइश है, वहाँ अज्ञेय प्रगतिवादियों/वामपंथियों के साथ खड़े होकर उनसे बहस करते हैं, मसलन रसवादी नगेन्द्र से. इसीलिए सम्पादक के रूप में उनके चयन को देखें तो वहाँ प्रगतिवादी तो हैं, पर छंदोबद्ध कविता को ही कविता माननेवाले नगेन्द्र के ख़ेमे के लोग कहीं नहीं हैं. आख़िरकार अज्ञेय आधुनिकतावादी थे और आधुनिकतावादी और प्रगतिवादी, दोनों आधुनिक के ही दो फ़िरके थे, प्राक-आधुनिक जिससे बाहर खड़ा था. शेखर एक जीवनी का एक प्रसंग दिलचस्प है. शशि, जो शेखर की मौसेरी बहन है और दोनों के बीच प्रेम भी है (मानसिक स्वाधीनता को व्यक्त करता एक साहसिक प्रेम-सम्बन्ध), उसका ससुर शेखर को धक्के मारकर घर से निकालते हुए उसे “कम्युनिस्ट कहीं का!” गाली देता है. उसके कम्युनिस्ट होने का प्रमाण यह है कि वह कोई लीक की ज़िंदगी नहीं जीता, जेल काटकर आया है, और औरतों के बारे में उसका रवैया कम्युनिस्टों की तरह उन्हें साझे का माल समझने वाला है. हम जानते हैं कि शेखर का रचनाकार (यानी अज्ञेय) और उपन्यास का नैरेटर (यानी खुद शेखर) कहीं से कम्युनिस्ट नहीं हैं. ऐसे में उपन्यास में इस वाक्य का आना क्या बताता है? मैंने कहीं लिखा है कि यह अज्ञेय के अपने समय की एक ऐसी आवाज़ है जिसे अपने पाठ में आने का मौक़ा देते हुए रचनाकार जाने-अनजाने उन विशेषताओं को सामने ले आता है जिनमें शेखर/अज्ञेय और कम्युनिस्टों की साझेदारी है. यह एक अशांत और रूढ़िद्रोही आधुनिक मानस की विशेषताएं हैं और इस स्तर पर दोनों पक्षों के बीच जो समानता या सामान्यता (कॉमनैलिटी) है, वह एक प्राक-आधुनिक मानस के रू-ब-रू होने पर उसके लांछन में उद्घाटित हो जाती है. प्राक-आधुनिक का आना इस समानता के उदघाटन के लिए ज़रूरी था.

    यह सब मैं क्यों कह रहा हूँ? इसलिए कि मुझे लगता है, निर्मल वर्मा के हवाले से ‘जाति-परिवार की गुलामी’ और ‘पार्टी, संगठन, विचारधारा की गुलामी’ को वैभव जिस तरह एक ही पलड़े पर रखने के लिए तैयार हो गए हैं, अज्ञेय का मामला वैसा है नहीं. उन्हें मानसिक स्वाधीनता बहुत प्रिय है, कम्युनिस्टों से उन्हें ख़ास दिक्क़त है कि वे विशिष्ट प्रतिबद्धता वाला साहित्य रचने की मांग करते हैं जबकि “किसी एक दिए हुए ढाँचे पर साहित्य का निर्माण करने या कराने की आशा भी भ्रामक है”, लेकिन जब सामना शशि के ससुर से हो तो वे कम्युनिस्ट कहलाने के लिए भी तैयार हैं. इसका कारण है उनका आधुनिक होना. आधुनिकता की कोख से ही मानसिक स्वाधीनता की यह धारणा निकली है और वहीं से पार्टी-संगठन-विचारधारा की प्रतिबद्धता का विचार भी निकला है (‘प्रतिबद्धता’ का, ‘गुलामी’ का नहीं).
    आज शशि का ससुर पूरी ताक़त के साथ सामने खड़ा है. राजनीतिक सत्ता उसके हाथ में है, मीडिया का बड़ा हिस्सा उसके हाथ में है, अकादमियों पर उसका क़ब्ज़ा मुकम्मल होने के अगर क़रीब नहीं तो बहुत दूर भी नहीं है. तर्क-विवेक की बात करनेवाला हर आदमी उसके लिए ‘कम्युनिस्ट कहीं का’ है. अज्ञेय का स्वाधीनता-बोध इस समय उन्हें किनके साथ बहस करने और किनके साथ खड़े होने की ओर धकेलता, यह ज़रूर सोचना चाहिए.

    वैसे भी पार्टी, संगठन, विचारधारा के प्रसंग में ‘गुलामी’ शब्द वैभव को उपयुक्त लगता है (अगर यह उद्धरण भी है तो कम-से-कम वैभव इसे लेकर कोई प्रतिकूल राय ज़ाहिर करते नहीं दीखते), यह थोड़ा आश्चर्यजनक है. उन्हें तो शायद इस बात का बहुत अच्छी तरह अंदाजा होगा कि वामपंथी लेखक-संगठन/नों के भीतर कितने अलग-अलग तरीक़े से साहित्य और साहित्यकारों के बारे में मत व्यक्त किये जाते रहे हैं! तुलसीदास, कबीर आदि से लेकर भारतेंदु और रामचंद्र शुक्ल तक के बारे में ज़बर्दस्त मतभेद रहे हैं. और ये उदाहरण तो उस समय तक के ही दे रहा हूँ जब अज्ञेय मौजूद थे. उनके बाद के समय में और भी मुखर मतभेद देखे जा सकते हैं. इस बात का प्रमाण तो इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) स्वयं है कि साहित्य-धारणा संबंधी और जनपक्षधरता संबंधी मतभेदों से संगठन के भीतर किसी के चढ़ने या लुढ़कने का रास्ता तैयार नहीं होता.

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  2. संजीव जी की टिप्पणी के लिए शुक्रिया। जरूरी बातें उठाई हैं उन्होंने। निश्चित ही विचारणीय।

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  3. संजीव, आपकी टिप्पणी को पढ़ते हुए एक बात महसूस हुई. अज्ञेय पर राय देने की हिम्मत तो मैं नहीं करूंगा मगर वैभव के लेख की एक बात जो आपने आखिर में उठाई है उसे मैंने कुछ अलग ढंग से पढ़ा. निर्मल वर्मा के हवाले से वैभव ने कहा कि “स्वाधीनता के प्रति अत्यंत सचेत अज्ञेय के प्रति लोगों को झुंझलाहट उस समाज में स्वाभाविक थी जहां लोगों को हर समय किसी ‘ऊपर वाले’ का मुंह जोहना पड़ता है” जहाँ निर्मल ने (और शायद वैभव ने भी) “इन ऊपर वालों में परिवार, जाति, रूढ़ि, पार्टी, विचारधारा, संगठन आदि सभी कुछ” को शामिल पाया. मुझे नहीं लगा कि यह दावा पार्टी/ संगठन या विचारधारा से उतना ताल्लुक़ रखता है जितना उस मानसिक बनावट से जो उन लोगों पर हावी रहता है जो एक रूढ़ीवादी पृष्ठभूमि से इनकी तरफ़ आते हैं. यह उस मानसिकता को रेखांकित करता है जो हमेशा जाति या परिवार की तरह ही पार्टी और विचारधारा में भी ‘ऑथोरिटी’ तलाशती है. यह दीगर बात है कि ख़ुद उनके ढांचों के सन्दर्भ में भी यह बात खरी उतरती हो मगर यहाँ शायद न निर्मल वर्मा की न वैभव की मुराद वह है.

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    1. ‘जाति-परिवार की गुलामी’ और ‘पार्टी, संगठन, विचारधारा की गुलामी’ को आपस में जोड़ने वाली बात पर सर्वाधिक आपत्ति व्यक्त की जा रही है। मेरे विचार से भारतीय बुद्धिजीवी के पास आधुनिकता से जुड़ने के लिए पार्टी-विचारधारा हमेशा से आकर्षक विकल्प रहा है। पर भारत के पिछड़े परिवेश में पार्टी-विचारधारा चूंकि स्वयं पिछड़ी भौतिक स्थितियों के मध्य काम करते रहे हैं, इसलिए उनमें जनता व बौद्धिक, दोनों की पिछडी हुई चेतना का वाहक बन जाने का खतरा भी रहता है। भारत में कम्युनिस्ट, समाजवादी, क्रांगेसी संगठनों में खास किस्म की पिछड़ी हुई चेतना का जो रिसाव हुआ है उसके पीछे भी पिछड़े भारतीय जनजीवन का दबाव है। मसलन की स्त्रियां आज भी बहुत ही प्रगतिशील संगठन में स्वयं को सहज नहीं पाती हैं। वे पार्टी-संगठन कई बार सदिच्छा के बावजूद पिछड़ेपन, मानसिक गुलामी के पुराने रूपों को तोड़ नहीं पाते हैं, भले ही उनके राजनीतिक लक्ष्यों में घोषित तौर पर क्रांतिकारिता क्यों न मौजूद हो। निर्मल ने संभवतः उसी बिंदु पर इशारा किया है जहां परिवार-जातिवाद, रूढ़ि की गुलामी से जो पिछड़ापन पैदा होता है, मानसिक गुलामी की आदत भी, वह पार्टी-संगठन के पिछड़ेपन के साथ सामंजस्य स्थापित कर लेती है। उस गुलामी व पिछड़ेपन को तोड़ने के स्थान पर पार्टी-विचारधारा उसे मजबूत करने का काम करते हैं। या फिर पार्टी-विचारधारा में अपनी गुलाम मानसिकता को कोई क्षति न होते देखने के कारण लोग उसके निकट चले जाते हैं। क्रांतिकारी दल-संगठन भी गुलाम मानसिकता का पुनरुत्पादन कर सकते हैं और इसे एक बहुत संजीदा किस्म का आधुनिकतावादी लेखक देख लेता है। सच्चे आधुनिकतावादी का टकराव तब केवल खुले समाज में मौजूद प्राक आधुनिक चेतना से ही नहीं होता बल्कि पार्टी-विचारधारा के भीतर प्रवेश कर गई प्राक आधुनिक चेतना के लक्षणों से भी होने लग जाता है। यहां आधुनिकतावादी लेखक के गुनाहों, चालाकी, समाज के प्रति गैरजिम्मेदाराना रवैये पर अभी कोई अभियोग पत्र नहीं दायर कर रहा हूं, केवल आधुनिकतावाद और प्रतिबद्धता के टकराव को समझने की कयास कर रहा हूं।

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      1. इस विश्लेषण से बहुत दूर तक इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ, वैभव। मैंने पहले भी लिखा है कि हिंदी में मार्क्सवाद का वह संस्करण विजेता बनकर उभरा जिसे अपनाने से मार्क्सवादी कहाने के लिए अपने संस्कारों के साथ तकलीफदेह लड़ाई लड़ने की ज़रुरत नहीं रह जाती थी। मेरी दिक्कत सिर्फ इससे है कि जिसे हम ‘प्रतिबद्धता’ कहते-समझते आये हैं, उसे ही ‘गुलामी’ न मान लिया जाए। ऐसा हो तो सामूहिक लड़ाई के लिए गठित हर मोर्चा, जहां आपको किसी मात्रा में अपनी निजता का विसर्जन करना ही होता है, संदिग्ध मान लिया जाएगा। पर आदित्य की और तुम्हारी बात से मैं आश्वस्त हुआ कि मैं कुछ ज़्यादा ही पढ़े ले रहा हूँ।

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