कस्बे में ब्रह्माण्ड

मुक्तिबोध शृंखला : 12

“किसी और कवि की कविताएँ उसका इतिहास न हों, मुक्तिबोध की कविताएँ अवश्य उनका इतिहास हैं. जो इन कविताओं को समझेंगे उन्हें मुक्तिबोध को किसी और रूप में समझने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, ज़िंदगी के एक-एक स्नायु के तनाव को एक बार जीवन में दूसरी बार अपनी कविता में जीकर मुक्तिबोध ने अपनी स्मृति के लिए सैंकड़ों कविताएँ छोड़ी हैं और ये कविताएँ ही उनका जीवन वृत्तांत हैं.”

श्रीकांत वर्मा ने मुक्तिबोध के पहले संग्रह की भूमिका में यह लिखा है. साहित्य पढ़नेवाले जानते हैं कि लेखन और लेखक में घालमेल के कई खतरे हैं. लेखन का प्रमाण या उसके सूत्र लेखक के जीवन में खोजने से हम गलत नतीजों पर पहुँच सकते हैं. कई बार रचना रचनाकार के खिलाफ भी होती है. वह खुद अपने जीवन की आलोचना अपनी रचनाओं में करता हो सकता है. मुक्तिबोध ने खुद रचना के जन्म की प्रक्रिया पर लिखते हुए उसे उस बेटी की तरह बतलाया है जिसकी नाभिनाल कट जाने के बाद वह अपने रचनाकार से स्वतंत्र जीवन प्राप्त कर लेती है. कई बार जैसे संतानें पिता-माता की सबसे बड़ी आलोचक हो जाती हैं, वैसे ही रचना और रचनाकार का रिश्ता भी हो सकता है. अंतर्विरोध का सिद्धांत रचना को समझने में एक सीमा से आगे मदद नहीं करता.

मुक्तिबोध के तनावपूर्ण जीवन के बारे में उनके समकालीनों ने लिखा है. हरिशंकर परसाई ने उनकी बेधक आँखों की चुभन महसूस की थी और यह नोट किया था कि वे एकदम से गले लगानेवाले, उद्वेलित व्यक्तित्ववाले आदमी नहीं थे. अपने एक पत्र में अज्ञेय उनकी रचनाओं की भाषा के “नर्वस” स्वभाव की तरफ इशारा करके मुक्तिबोध से संयम की अपेक्षा करते हैं. मुक्तिबोध की असुरक्षा, हर किसी को जाँच-परखकर ही उससे संबंध बनाना, यह भी उसका स्वभाव था, परसाई लिखते हैं. मुक्तिबोध की इस छवि की छाया उनकी रचनाओं के पथ पर पड़ी है. लेकिन अभी हम उसकी भी बात नहीं कर रहे. 

मुक्तिबोध के जीवन और उनके लेखन में एक व्यक्ति के बनने, खुद उसके अपने निर्माण की ही कहानी कही गई है. वह व्यक्ति खुद मुक्तिबोध हैं, ऐसा  नतीजा भी निकाला जा सकता है. उससे स्वतंत्र भी इस व्यक्ति को पहचाना जा सकता है.  वह मुक्तिबोध का समकालीन ही हो, आवश्यक नहीं, हम आप भी हो सकते हैं. व्यक्ति बनने का संघर्ष कितना कड़ा है, यह मुक्तिबोध की कविताओं, कथा-साहित्य और निबंधों से भी जाना जा सकता है. यह कस्बाई, निम्न मध्यवित्त समुदाय का व्यक्ति है. श्रमिक नहीं, किसान नहीं. लेकिन उनसे कुरबत महसूस करनेवाला. सिर्फ महसूस नहीं करना बल्कि अपनी नियति को उसके भाग्य के जोड़ने की कोशिश करनेवाला.

इसके साथ ही इसे नोट करना ही पड़ेगा कि यह व्यक्ति पुरुष है. पुरुष होने की सारी सीमाओं के साथ. मुक्तिबोध की कहानियों में इस पुरुष-सीमा का अहसास होता है. यह व्यक्ति ईमानदारी से अपनी सीमा का विस्तार करना चाहता है. संवेदना से युक्त होना चाहता है. यह सब कुछ प्रयत्नसाध्य है, श्रमसाध्य है. यह लिखने-पढ़नेवाला व्यक्ति है. सृजन की अपनी क्षमता से परिचित. किंतु उसकी परिस्थितियों के अभाव के बोध से पीड़ित. आजीविका की समस्या जितनी वास्तविक है और उतनी ही वास्तविक है किसी भी बाह्य प्रयोजन के दबाव से मुक्त सृजन की आकांक्षा. वह कैसे पूरी हो?

मुक्तिबोध की कहानियों, कविताओं में और उनके निबंधों में भी आपको सरकारी, निजी दफ्तरों में काम करनेवाले कलम घिसनेवालों के चित्र मिलेंगे. कस्बों, छोटे शहरों के वासी. मुक्तिबोध खुद छोटे कस्बों, शहरों में रहे. लेकिन यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध का समकालीन कस्बे और छोटे शहरों में शहरियत आज के मुकाबले कहीं ज्यादा थी. ये ज़िंदा कस्बे और शहर थे. महानगरों ने उनका प्राण सोंख नहीं लिया था. फिर भी मुक्तिबोध महानगरों में जा बसनेवालों को कुछ शक की नज़र से देखते हैं. यह नहीं कि खुद उनका जी नहीं बड़े शहरों का रुख करने का या वहाँ बसने का. नेमिचन्द्र जैन से उनके पत्राचार में इसके प्रमाण हैं.

1957 के एक पत्र में मुक्तिबोध लिखते हैं,

“…मैं दिल्ली आने के लिए बिलकुल तैयार हूँ. …मौजूदा नौकरी सवा दो सौ देती है. …दिल्ली में ढाई सौ मुझे बहुत ही कम होंगे. …वैसे मेरा मन दिल्ली आने के लिए ललक रहा है.”

ऐसा काम जो पूरा खपा न ले आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में. ‘humdrum life’ किसी तरह अगर यह भी कर पाती तो कोई बात थी लेकिन वह भी नहीं होता. ऊपर से यह विषाद कि अब तक मात्र वानस्पतिक जीवन ही जिया है. राजनांदगाँव में कॉलेज में अध्यापन का मौक़ा दीख रहा है और

“शरीर आराम और शांतिपूर्ण व्यवसाय माँगता है. शरीर पर बोझ पड़ते ही, मानसिक थकान और अवसन्नता आ घेरती है. फालतू की झंझटों से मन पर भार रहने के फलस्वरूप लिखाई होना बहुत मुश्किल हो जाता है. मुझे आशा है कि राजनांदगाँव पहुँचकर मुझे कुछ आराम मिलेगा और स्वयं के साहित्यिक कार्य के लिए कुछ फुरसत मिलेगी.”

नरेश मेहता दिल्ली से मुक्तिबोध को लिखते हैं,

“लोग-बाग़ आपको दिल्ली बुलाने पर आतुर थे. अच्छा था आप आ जाते तो –क्योंकि हम सबका मित्र-स्वार्थ तो था ही लेकिन मेरी राय भिन्न थी. आप उस धातु के नहीं हैं. दिल्ली एक महान वेश्यालय है. हम जैसे लोग …तबलची या सारंगिया ही हैं और हम नहीं चाहते कि आप भी हमारी पंक्ति में ही बैठते.”

मुक्तिबोध की सांसारिकता के प्रति अनासक्त, उदात्त छवि उन्हें उनके हमउम्र और उनके समकालीन लेकिन तरुण मित्रों के पत्रों से भी उभरती है. मुक्तिबोध में कुछ पवित्र है जिसे महानगर के प्रदूषण से बचाया जाना चाहिए. लेकिन सांसारिकता से वे बुरी तरह ग्रस्त और त्रस्त थे. अपने आस पास कर्तव्य के मोहल्ले के वासियों की अगति देखकर उन्हें भय होता था. आजीविका एक बड़ा प्रश्न था जो मुक्तिबोध को भटकाता रहा. इलाहाबाद, नागपुर, बंगलोर जैसे बड़े शहरों में उन्होंने वक्त गुजारा लेकिन वे थे आखिरकार शुजालपुर, राजनांदगाँव के ही.

महानगर को लेकर एक संशय मुक्तिबोध के पत्रों में देखा जा सकता है. न सिर्फ वहाँ परायेपन का भय बल्कि यह कि कहीं हम अपना वर्ग-मूल या आधार न भूल जाएँ. उनके तकरीबन सारे प्रिय इन महानगरों में जा बसे थे. अपने वर्ग को छोड़कर उपरले वर्गों में जा रमनेवालों को एक तरह से वे वर्गघाती मानते हैं. इस शक शुबहे को परे कर दें और कस्बाई ज़िंदगी, कस्बाईपन और एक ब्रह्मांडीय मस्तिष्क (कॉस्मोपॉलिटन) के संबंध के विषय में कुछ सोचें.

आम तौर पर कस्बाईपन बौद्धिक और भावनात्मक सिकुड़न का बोधक है. एक सिमटी हुई दुनिया में रहने के कारण सिर्फ आस-पास के लोगों पर निगाह रखना, क्षुद्र पैमानों पर ही अपनी परख करना. एक प्रकार के छोटेपन में कैद हो जाना. लेकिन सच यह है कि इससे बाहर निकलने की तड़प भी इस दायरे को तोड़ने को बाध्य करती है. जैसा हमने पहले कहा, हाल-हाल तक हमारे कस्बों में इस ब्रह्मांडीयता की महत्त्वाकांक्षा शेष थी. स्कूलों में ऐसे अध्यापक मौजूद थे जो शेक्सपीयर, रवीन्द्रनाथ और चार्ल्स डिकेंस के सहारे अपनी बात कह सकते थे. रामचरित मानस की तो बात ही छोड़ दें.

कॉलेजों में पुस्तकालय थे और पढ़ने का उत्साह भी था. स्कूल अध्यापक और कॉलेज के शिक्षक में इतना अंतर न था कि एक को तो बौद्धिक माना जाए और दूसरे को बुद्धि का हम्माल. इस वजह से कस्बे और महानगर के मस्तिष्क में भी बहुत फाँक न थी. कस्बे या छोटे शहर खुद को इस विराट विश्व की एक इकाई मानते थे. उनमें न तो अहमन्यता थी और न हीनता बोध. यह विभाजन भारत में धीरे-धीरे बढ़ा. बौद्धिक, सांस्कृतिक असमानता का गहरा होना पिछली सदी के 70 के दशक के बाद की परिघटना है. कस्बे या छोटे शहर ध्वस्त हो गए. राजनीति की जगह वहाँ तिकड़मबाजी ने ले ली. किसी भी प्रकार की बौद्धिक उत्तेजना के लिए कोई स्रोत नहीं बचा. कस्बों के मलबे पर जो महानगर पनपनेवाले थे उनका “कस्बाईकरण” होना तय ही था.

मुक्तिबोध और उनके मित्रों की खतोकिताबत से 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में बड़ी हो रही पीढ़ी की जद्दोजहद से परिचय होता है. ऐसी पीढ़ी का जिसकी चिंता अपने व्यक्तित्व के सृजन की है. भौगोलिक सीमा कस्बे की हो सकती है लेकिन क्या इसी में एक ब्रह्मांडीय या कॉस्मोपॉलिटन चेतना नहीं प्रस्फुटित हो सकती?

इस पीढ़ी की और विशेषकर मुक्तिबोध के मित्रों की मंडली की विशेषता है उनका निरंतर भ्रमण. आजीविका की तलाश में और दूसरे असंतोष के कारण भी. अज्ञेय उनके घनिष्ठ नहीं हैं लेकिन परिव्राजक हैं. शमशेर हों या प्रभागचन्द्र शर्मा या शिवमंगल सिंह सुमन या प्रभाकर माचवे, सभी लगातार शहर बदल रहे हैं. इनमें से अधिकतर की यात्रा छोटे शहरों से महानगरों की ओर हुई और मुक्तिबोध बड़े शहरों से होते हुए एक कस्बे राजनांदगाँव में आकर स्थिर हो पाए.

भौगोलिक सीमाओं के बावजूद पूरी दुनिया और इतिहास से संपर्क और संवाद कैसे संभव हो ? मेरा ध्यान गया मुक्तिबोध के प्रशंसक नवयुवक अशोक वाजपेयी के पत्रों में इस जिक्र की तरफ कि वे उन्हें विदेशी कवियों की किताबें पार्सल कर रहे हैं. मुक्तिबोध पढ़कर उन्हें वापस करते हैं और अशोक वाजपेयी नई खेप भेजते रहते हैं. यह आज कितना आसान है लेकिन हम पिछली सदी के छठे दशक की बात कर रहे हैं.

मुक्तिबोध इस ब्रह्मांडीय मन या मस्तिष्क के निर्माण या सृजन में अपने मित्रों की, बाद में जिनकी मंडली में अशोक वाजपेयी जैसे तरुण भी शामिल हुए, भूमिका स्वीकार करते हैं,

“इंदौर में मित्रों के सहयोग और सहायता से मैं अपने आतंरिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ…”

यह उनमें ‘आत्म चेतना’ का स्फुरण था. विश्व मानव के सुख दुख से परिचय और उसमें शामिल होने की व्याकुलता और हर प्रकार की जड़ता से संघर्ष. शुजालपुर की “अर्ध नागरिक रम्य एकस्वरता के वातावरण में” मार्क्सवाद से परिचय ने उन्हें जड़त्व से मुक्ति की ‘प्रेरणा, विवेक और शक्ति’ प्रदान की.

मार्क्सवाद से परिचय से विश्वात्मक संवेदना के विकास में मदद मिली लेकिन उसके पहले बर्गसां के प्रभाववाले व्यक्तिवाद की भूमिका को नज़रअंदाज करना ठीक न होगा. क्या एक ने दूसरे को पूरी तरह विस्थापित कर दिया? व्यक्तित्व की तीव्र चेतना या आन्तरिकता का जाग्रत बोध बाह्य विश्व से तनाव पैदा करता है. यह बाहरी दुनिया कई शक्लों में और तरीकों से व्यक्ति को अनुशासित और अनुकूलित करने की तरकीब करती रहती है. उससे जूझकर खुद को बचाना होता है.

अपनी सीमाबद्धता को पहचानना, और जीवन में हमेशा ही उसके खतरे से सावधान रहना:

“यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं कि मेरी हर विकास स्थिति में मुझे घोर असंतोष रहा, और है. मानसिक द्वंद्व मेरे व्यक्तित्व में बद्धमूल है.”

सीखने का तरीका विरोधी शक्ति की प्रतिकूल आलोचना का सामना करने में है. और 

“यह भी निकटता से अनुभव करता रहा हूँ कि जिस भी क्षेत्र में हूँ वह स्वयं अपूर्ण है, और उसका ठीक-ठीक प्रकटीकरण नहीं हो पा रहा है. फलतः गुप्त अशांति मन के अंदर घर किए रहती है.”

मुक्तिबोध के निर्माण में उनके इन तमाम मित्रों के अनुभवों की भूमिका रही है. उन सबके सामने, रह वे कहीं भी रहे हों, सवाल बड़े हैं. प्रभागचन्द्र शर्मा मुक्तिबोध को उनके वैचारिक शुद्धतावाद और अनुदारता के लिए मित्रवत उलाहना देते हैं. मतभेद मित्रों में हैं और खुलकर व्यक्त किए जाते हैं, नाराजगियाँ भी. वे निजी शिकायतें हैं लेकिन एक दूसरे की रचनात्मकता के प्रति आदर भी है. असल चीज़ है आत्मीयता की खोज और उसका आश्वासन. दूसरे मित्र वीरेंद्रकुमार जैन (वीरेन) इंदौर से मुक्तिबोध को लिखते हैं,

“शुजालपुर पहुँचकर हृदय के जिस गभीरतम तल से तुमने मुझे पत्र लिखा था उसकी सचाई मेरे हृदय के आर-पार हो गयी थी. मुझमें जैसे शक्ति नहीं है—मैं छटपटा रहा हूँ कि कैसे उस चीज़ को प्यार करूँ.”

ये मित्र एक दूसरे की रचनाओं में दिलचस्पी लेते हैं, आलोचना-प्रत्यालोचना में झिझक नहीं है. किंतु हर कोई दूसरे को खुद को गढ़ने में मदद कर रहा है. वीरेन लिखते हैं कि मतभेद में उनका बहुत विश्वास नहीं :

“…मैं तो मार्ग चाहता हूँ—मैं तो समन्वय, सामंजस्य, समीकरण, संतुलन का उपासक हूँ….जहाँ सभी को अवकाश हो..एकांत दुराग्रह नहीं.”

मुक्तिबोध के लिए यह एक नई संवेदना के संपर्क में आने का दौर है. लेकिन वीरेन जैसे उनकी ही बात कहते हैं. वह जो मुक्तिबोध का विषय आजीवन रहा है,

“…अपने व्यक्तित्व का एक चतुर्दिक दृढ़ निर्माण किए बिना अंदर-बाहर के कर्मक्षेत्र में बढ़ जाना खतरे से खाली नहीं.”

अपने व्यक्तित्व का निर्माण जो स्वार्थपूर्ण न हो! ‘विध्वंस और नवनिर्माण’ दोनों ही मोर्चों पर सक्रिय रहने की बाध्यता या अनिवार्यता है. साथ ही

“अपने स्वस्थ नवीन युग के सपनों और पैटर्न्स को केवल साहित्य में ही नहीं, समाज-जीवन में भी अपने हाथों स्वरूप देने का, सृजन कार्य करने की प्रत्येक जीवंत कलाकार की अनिवार्य जिम्मेदारी है.”

इसके लिए लेकिन अपने व्यक्तित्व की कमांडिंग सतह, आत्मसंगठन अनिवार्य रूप से आवश्यक है. मुक्तिबोध भी यह देखना ज़रूरी समझते हैं कि कलाकार हो या कोई और व्यक्ति, वह बोल किस सतह से रहा है. मुक्तिबोध के प्रिय राजनेता नेहरू बार-बार अपने देशवासियों से बात करते समय आदमी की क्वालिटी की फिक्र करते हैं. बिना इस क्वालिटी के समुदाय के कोई समाज बड़ा कैसे हो सकता है? यह बिना अपने आतंरिक लोक में उतरे और उसका अवगाहन किए संभव नहीं. जो बाहरी दुनिया के रंजोगम में इतना डूबा हो, वह अपनी भीतरी दुनिया की फिक्र कैसे करे? शुजालपुर में मुक्तिबोध के सहकर्मी डॉक्टर विष्णु नारायण जोशी यहाँ तक कहते हैं कि आधुनिक सभ्यता की सूजन से बचने के लिए एकांत का आविष्कार आवश्यक है.

डॉक्टर जोशी एकांत के साथ ही शहरी ज़िंदगी के सतहीपन और उसकी एकांगिता से मुक्त होने के लिए ग्रामीण जीवन की तरफ रुख करते हैं. शहरी जीवन विभक्त जीवन है, टुकड़ों में बँटा हुआ. सम्पूर्णता की संवेदना वहाँ नहीं. शायद इस वजह से निराशा भी है. लेकिन मुक्तिबोध तो छोटे शहरों में रहनेवाले और मलिन जीवन व्यतीत करनेवाले लोगों के अंतर में प्रज्ज्वलित दीपक के कवि या लेखक हैं. क्या वे महानता का अनुभव कर सकते हैं?

‘जलना’ शीर्षक कहानी में यह संभावना यों दीख पड़ती है,

“ज्यों ही वह पुरानी चौखट पर नए ठुंके पल्लों को बंद करने के लिए मुड़ा, उसकी आँखें दूर के बादलों में उस पार क्षितिज पर टिक गईं, जिसमें पूर्व दिशा की किरणें टूटकर धुँधले-भस्मीले बादलों पर आक्रमण कर रही थीं. तालाब का कुहरे में खोया हुआ किनारा नीले-सलेटी रंग में डूबा हुआ दिखाई देता था, लेकिन पानी में चमकते हुए हरे-हरे वृक्षों के शिखर पर ललाई की संभावना प्रकट हो रही थी.”

इस कहानी का पात्र चुन्नी, नाकुछबंदा है. उसका जीवन भी कुछ वैसा ही है. एक एक इंच ज़िंदगी के लिए लड़ता हुआ. लेकिन उसे भी यह भान होता है कि

“मनुष्य अपने इतिहास से जुदा नहीं…. न अपने बाह्य जीवन के इतिहास से, न अपने अंतर्जीवन के इतिहास से.”

चुन्नी की पत्नी चूल्हे की चिंगारी से जल जाती है. बूढ़े माँ-बाप, बच्चे, दरिद्रता और इस बीच यह दुर्घटना. वह अभी रद्दी बेचकर कुछ रूपए लाया कि इस हादसे से सामना होता है. डॉक्टर के पास जाने में पैसे खर्च होंगे इसलिए वह बर्नोल खरीद कर लाता है. वह उसकी जेब में पड़ा रह जाता है. घर आकर वह चाय बनाता है. पत्नी थक कर सो गई है. बच्चा अरहर की दाल बीन रहा है.

“चुन्नी का दिल इस दृश्य को देखकर पिघल गया….वह बेहद के मैदान में चला गया. …एकबारगी उसने अपने सारे घर पर दृष्टि डाली. यह उसका जगत् है, उसे सबकी सेवा करनी है. वह ज़रूर-ज़रूर करेगा.”

चाय मुँह से लगाते ही उसे ध्यान आता है कि पत्नी के घावों पर उसने मरहम नहीं लगाया.

“वह बर्नोल लगाना क्यों भूल गया?

वह अपने कामों से, दुनिया से रिश्ते जोड़े, न कि सिर्फ़ दिल के उड़ते हुए टुकड़ों से. …”

कस्बाईपन एक दिमागी अवस्था है. आप एक दायरे में बँध जाते हैं और उसका अहसास आपको नहीं हो पाता. शुजालपुर जैसी छोटी सी जगह में रहते हुए इस अशांति के कारण मुक्तिबोध को नया विकास पथ मिला. कस्बे में ही इसके स्रोत और साधन हैं. साधारण लोग, छोटी-छोटी हस्तियाँ लेकिन

“उनके पेचीदा संघर्ष, अथाह प्रेम करने का उनका हार्दिक सामर्थ्य, और बौद्धिक जिज्ञासा के साथ ही साथ उनकी साहसिक पहल, उनकी रोमैंटिक कल्पना, उनकी राजनैतिक आशा-आशंकाएँ, उनके समाजनैतिक स्वप्न मेरे चारों ओर चक्कर लगाने लगे. मेरी परिस्थिति अब विस्तृत हो गयी, वह फैलकर मैदान बन गयी, मैदान बनकर फैलती हुई वह पूरी पृथ्वी बन गयी. मेरी चहारदीवारी अब पीछे-पीछे हटने लगी और क्षितिज में विलीन होती हुई दिखाई दी.”

मुक्तिबोध की कविताएँ हों या उनकी कहानियाँ, उनमें साधारण जिंदगी जीते हुए और उसके टुच्चेपन से जूझते हुए अपने भीतर विश्व-आत्मा विकसित करने के संघर्ष के महान दृश्य हैं. उस संघर्ष में सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत संघर्ष मिले हुए हैं:

“जीवन अपनी सचेत सर्व-साधारणता में असाधारण हो उठा था, उसकी अनवस्था में एक व्यवस्था उत्पन्न हो रही थी. जिज्ञासा, सम्मोह, साहस, कौतूहल, निष्ठा और तत्परता ज़िंदगी को नए-नए क्षेत्रों में ले जाती.” 

One thought on “कस्बे में ब्रह्माण्ड”

  1. किसी और कवि की कविताएँ उसका इतिहास न हों, मुक्तिबोध की कविताएँ अवश्य उनका इतिहास हैं. ~ बेहद सार्थक और ईमानदार टिप्पणी। सर को प्रणाम।

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