क्लॉड ईथरली होने की संभावना

मुक्तिबोध शृंखला : 13

‘क्लॉड ईथरली’ मुक्तिबोध के पाठकों के लिए परिचित कहानी है. कहानी का पात्र मात्र क्लॉड ईथरली नहीं है. एक पात्र है लेखक. वह मुक्तिबोध भी हो सकता है और सिर्फ मुक्तिबोध की एक कृति भी. दूसरा एक जासूस. और तीसरा और केंद्रीय पात्र क्लॉड ईथरली. कहानी या उपन्यास पढ़ते वक्त हमारा ध्यान मात्र मानवीय पात्रों पर और उनके बीच घटित होनेवाले प्रसंगों पर टिका रहता है. बार-बार ध्यान दिलाया गया है कि कथा में उतनी ही भूमिका या उससे कम नहीं, उसकी होती है जिसे परिवेश कहा जाता है. हर कहानीकार के बारे में यह न भी कहा जाए तो मुक्तिबोध जैसे कथाकारों को बिना उस परिवेश के समझना संभव नहीं.

इस कहानी की शुरुआत में लेखक का ध्यान तेज धूप में चमकती एक ऊँची दीवार की तरफ जाता है. लेकिन वह सिर्फ दीवार ही नहीं देखता,

मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले, सड़क के बाजू पर बाँहें बिछा कर झुक गए हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्‍यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खंभा जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक ऊँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लंब-तड़ंग भीतों की रचना अभी भी पुराने ढंग से होती है।”

धूप के साथ फूलों से लदी भीत, बिजली का ऊँचा खंभा, सूनी सड़कें, उनके ऊपर से गुजरती तारों की सीधी लकीरें  और दीवार से टिकी एक ऊँची निसैनी. भीत और निसैनी अब पुराने और लुप्त प्राय शब्द हैं. मुक्तिबोध की रचनाओं में आदमकद दीवार के साथ बाजू, भीत, निसैनी जैसे शब्द बहुत स्वाभाविक तरीके से मिलते हैं. निसैनी आमन्त्रण है सड़क नापते लेखक को कि वह चलना छोड़ या उसे बाधित कर उसपर चढ़कर झाँककर देखे कि दीवार के पार क्या है. क्या यह चोरी चोरी किसी राज को जानना है? चूँकि दरवाजे से अन्दर आप नहीं जा सकते? निर्मल वर्मा ने एक जगह लिखा है कि लेखक दरअसल आत्मा का जासूस होता है. वह आत्मा समाज की हो सकती है. लेकिन क्या समाज की एक आत्मा होती है? हो सकती है? बहरहाल! क्लॉड ईथरली का लेखक उस सीढ़ी पर चढ़कर पार देखता है,

“सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्‍या होता है। दृश्‍य कौन-से, कौन-से दिखाई देते हैं! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।

और, मैं स्‍तब्‍ध हो उठता हूँ।”

छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंखे के नीचे, दो पीली स्‍फटिक-सी तेज आँखें और लंबी शलवटों-भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्‍हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केंद्रित कर रहा है। आँखों से आँखें लड़ पड़ती हैं। ध्‍यान से एक-दूसरे की ओर देखती है। स्‍तब्‍ध, एकाग्र!”

वह व्यक्ति कौन है? उसकी और लेखक की आँखों के मिल जाने या लड़ जाने का क्या अर्थ हो सकता है? आप जिसे देख रहे हों, वह आपको उसे देखते हुए देख ले, फिर? क्या आपमें कुछ बदलता है?

कुछ दूर चलने पर एक आदमी से मुलाक़ात होती है. वह भी कुछ दिलचस्प और रहस्यमय जान पड़ता है. उससे बातचीत में मालूम होता है कि यह ऊँची दीवारों वाली बिल्डिंग शहर का प्रसिद्ध पागलखाना है. फिर दोनों खामोश साथ चलते हैं. वह आदमी रहस्यमय मालूम होता है. दोनों इस सूनी लम्बी सड़क पर जो पागलखाने के साथ-साथ चल रही है, अचानक आ मिले हैं. क्या दो अपरिचितों में संवाद संभव है?

“और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी हो कर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।

अपने-अपने शून्‍यों की खिड़कियाँ खोल कर मैंने हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, ‘आप क्‍या काम करते हैं?’

मैंने झेंप कर कहा, ‘मैं? उठाईगिरा समझिए।

समझें क्‍यों? जो हैं सो बताइए।

पता नहीं क्‍यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिंदगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर-स्‍त्री को नहीं देखता; रिश्‍वत नहीं लेता; भ्रष्‍टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्‍ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है। इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्‍या हैं?’

वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, ‘मैं भी आप ही हूँ।’

बड़ी अच्‍छी बात है। मुझे भी इस धंधे में दिलचस्‍पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता-जुलता है।

तो वह गुप्तचर है.

“जो आदमी आत्‍मा की आवाज दाब देता है, विवेक-चेतना को घुटाले में डाल देता है, उसे क्‍या कहा जाए!”

कोई यह पेशा क्यों अख्तियार करता है?

“साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्‍तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्त्वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्‍व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए!

लेकिन, प्रश्‍न यह है कि वे वैसा क्‍यों करते हैं! किसी भीतरी न्‍यूनता के भाव पर विजय प्राप्‍त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्‍ते भी हो सकते हैं! यही पेशा क्‍यों? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्‍वय है!”

पेट और प्रवृत्ति के समन्वय में सिर्फ अनुप्रास अलंकार नहीं है. हालाँकि इससे मुक्तिबोध के शब्द या भाषा-कौशल का परिचय मिलता है. वह आरोप याद कीजिए कि उनकी भाषा उनके भावों को वहन नहीं कर पाती. बात ठीक उलटी है. मुक्तिबोध अपनी अद्वितीय भाषा गढ़ रहे थे. पेट और प्रवृत्ति का मेल, या नशे और पेशे का मेल, बात एक है. लेकिन यह मेल मुश्किल होता है.

लेखक उस रहस्यमय व्यक्ति से, जो जासूस निकला, खिंचाव महसूस करता है.

“उस आदमी में मेरी दिलचस्‍पी बहुत बढ़ गई। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़ कर मैं झाँक चुका था। इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।”

वह जासूस उस पागलखाने के बारे में बतलाना जारी रखता है,

उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिए गए हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्‍हें पागल कहने की इच्‍छा रखने के लिए आज की निगाह होना जरूरी है।

मैंने उकसाते हुए कहा, आज की निगाह से क्‍या मतलब?’

उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखें डाल कर उसने कहना शुरू किया,

जो आदमी आत्‍मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्‍मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्‍यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्‍मा की आवाज जरूरत से ज्‍यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्‍म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।

मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता “अँधेरे में” का पागल सहसा याद आ जाता है. वह भी एक आत्मोद्बोधमय गान गाता है. उसमें अपने कर्तव्य न निभाने के लिए भर्त्सना है तो उनके लिए उद्यत होने का आह्वान भी है.

लेखक के मन में उसे लेकर उत्सुकता है जिसे उसने चोरी से देख लिया था.

“मैंने बात पलट कर उससे पूछा, ‘तो हाँ, तुम उस पागलखाने की बात कह रहे थे। उसका क्‍या?’

मैंने गरदन नीचे डाल ली। कानों में अविराम शब्‍द-प्रवाह गतिमान हुआ। मैं सुनता गया। शायद वह उसके वक्‍तव्‍य की भूमिका रही होगी। इस बीच मैंने उससे टोक कर पूछा, ‘तो उसका नाम क्‍या है?

क्‍लॉड ईथरली!

क्‍या वह रोमन कैथलिक है आदिवासी इसाई है?’

…..उसने कहा, ‘क्‍लॉड ईथरली वह अमरीकी विमान चालक है, जिसने हिरोशिमा पर बम गिराया था।

मुझे आश्‍चर्य का एक धक्‍का लगा। या तो वह पागल है, या मैं! मैंने उससे पूछा, ‘तो उससे क्‍या होता है?’

अब उसने बहुत ही नाराज हो कर कहा, ‘अबे बेवकूफ! नेस्‍तनाबूद हुए हिरोशिमा की बदरंग और बदसूरत, उदास और गमगीन जिंदगी की सदारत करनेवाले मेयर को वह हर माह चेक भेजता रहा जिससे कि उन पैसों से दीन-हीनों को सहायता तो पहुँचे ही; उसने जो भयानक पाप किया है वह भी कुछ कम हो!

यह कैसे हो सकता है कि भारत के एक शहर के एक पागलखाने में क्‍लॉड ईथरली हो?

“….लगा कि मैं सचमुच इस दुनिया में नहीं रह रहा हूँ, उससे कोई दो सौ मील ऊपर आ गया हूँ, जहाँ आकाश, चाँद-तारे, सूरज सभी दिखाई देते हैं। रॉकेट उड़ रहे हैं। आते हैं, जाते हैं और पृथ्‍वी एक चौड़े-नीले गोल जगत-सी दिखाई दे रही है, जहाँ हम किसी एक देश के नहीं हैं, सभी देशों के हैं। मन में एक भयानक उद्वेगपूर्ण भावहीन चंचलता है! कुल मिला कर, पल-भर यही हालत रही। लेकिन वह पल बहुत ही घनघोर था। भयावह और संदिग्‍ध! और उसी पल से अभिभूत हो कर मैंने उससे पूछा, ‘तो क्‍या हिरोशिमा वाला क्‍लॉड ईथरली इस पागलखाने में है।

वह हाथ फैला कर उँगलियों से उस पीली बिल्डिंग की तरफ इशारा कर रहा था, जिसके अहाते की दीवार पर चढ़ कर मेरी आँखों ने रोशनदान पार करके उन तेज आँखों को देखा था, जो उसी रोशनदान में से गुजर कर बाहर जाना चाहती हैं। ….तो इसका मतलब यह हुआ कि मेरी देखी वे आँखें और किसी की नहीं, खास क्‍लॉड ईथरली की ही थीं। लेकिन यह कैसे हो सकता है!

उसने मेरी बात ताड़ कर कहा, ‘हाँ, वह क्‍लॉड ईथरली ही था।

मैंने चिढ़ कर कहा, ‘तो क्‍या यह हिंदुस्‍तान नहीं है। हम अमेरिका में ही रह रहे हैं?’

कहानी भारत के उस ज़माने की है जिसे नेहरू युग कहा जाता है. गाँधी युग का ही विस्तार. आत्म छवि भारत की एक अहिंसक देश की थी. लेकिन क्या वह धोखा नहीं था? आत्म छल?

“उसने मानो मेरी बेवकूफी पर हँसी का ठहाका मारा, कहा, ‘भारत के हर बड़े नगर में एक-एक अमेरिका है! तुमने लाल ओठवाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखी, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे! शानदार मोटरों में घूमने वाले अशिक्षित लोग नहीं देखे! नफीस किस्‍म की वेश्‍यावृत्ति नहीं देखी! सेमिनार नहीं देखे! एक जमाने में हम लंदन जाते थे और इंग्‍लैंड‍ रिर्टन कहलाते थे और आज वाशिंगटन जाते हैं। अगर हमारा बस चले और आज हम सचमुच उतने ही धनी हों और हमारे पास उतने ही एटम बम और हाइड्रोजन बम हों और रॉकेट हों तो फिर क्‍या पूछना! अखबार पढ़ते हो कि नहीं?’

मैंने कहा, ‘हाँ।

तो तुमने मैकमिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसनेको दी थी। उसने क्‍या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किंतु संस्‍कृति और आत्‍मा से हमारे साथ है। क्‍या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्त्वपूर्ण तथ्‍य पर प्रकाश डाल रहा था।

और अगर यह सच है तो यह भी सही है कि उनकी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट हमारी संस्‍कृति और आत्‍मा का संकट है! यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्‍य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्‍मा को शिक्षा और संस्‍कृति प्रदान करते हैं! क्‍या यह झूठ है। और हमारे तथाकथित राष्‍ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केंद्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं?’

अब यह कहानी है या निबंध या वैचारिक वाद-विवाद का कोई गद्य रूप, कहना कठिन है. हमारी मुलाक़ात क्‍लॉड ईथरली से अभी भी सिर्फ लेखक की आँखों से जरिए हुई है. वह भारत के भविष्य की तरफ इशारा कर रहा है:

“उसने कहना जारी रखा, ‘क्‍या हमने इंडो‍नेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्‍य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्‍य से? छि: छि:! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्‍य है!’…”

छोड़ो! तो मतलब यह है कि अगर उनकी संस्‍कृति हमारी संस्‍कृति है, उनकी आत्‍मा हमारी आत्‍मा और उनका संकट हमारा संकट है जैसा कि सिद्ध है जरा पढ़ो अखबार, करो बातचीत अंगरेजीदाँ फर्राटेबाज लोगों से तो हमारे यहाँ भी हिरोशिमा पर बम गिरानेवाला विमान चालक क्‍यों नहीं हो सकता और हमारे यहाँ भी संप्रदायवादी, युद्धवादी लोग क्‍यों नहीं हो सकते! मुख्‍तसर किस्‍सा यह है कि हिंदुस्‍तान भी अमेरिका ही है।

मुझे पसीना छूटने लगा। फिर भी मन यह स्‍वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि भारत अमेरिका ही है और यह कि क्‍लॉड ईथरली उसी पागलखाने में रहते हैं उसी पागलखाने में रहता है! मेरी आँखों में संदेह, अविश्‍वास, भय और आशंका की मिली-जुली चमक जरूर रही होगी, जिसको देख कर वह बुरी तरह हँस पड़ा।…”

एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर हम दोनों बात करते हुए नीचे एक पत्‍थर पर बैठ गए। उसने कहा, ‘देखा नहीं! ब्रिटिश-अमरीकी या फ्रांसीसी कविता में जो मूड्स, जो मनःस्थितियाँ रहती हैं बस वे ही हमारे यहाँ भी हैं, लाई जाती हैं। सुरुचि और आधुनिक भावबोध का तकाजा है कि उन्‍हें लाया जाय. क्‍यों? इसलिए कि वहाँ औद्योगिक सभ्‍यता है, हमारे यहाँ भी। मानो कि कल-कारखाने खोले जाने से आदर्श ओर कर्तव्‍य बदल जाते हों।

यह साम्यवादी मुक्तिबोध का पात्र बोल रहा है. औद्योगिक सभ्यता के अनिवार्य पापों की तरफ इशारा कर रहा है.  भारत या कोई भी समाज अगर उस तरफ बढ़ेगा तो उसके आदर्श और कर्तव्य भी बदल ही जाएँगे. यह भ्रम, जो नेहरू को भी था कि औद्योगिक सभ्यता अपनाने के बाद भी हम गाँधी के देश बने रहेंगे, भ्रम ही था.

भारत में भी युद्धवादी, संप्रदायवादी लोग हो ही सकते हैं, और होंगे ही!

लेकिन व्यक्ति में पश्चाताप की क्षमता है. खुद को दण्डित करके भी.

“उसने कहा, ‘क्‍लॉड ईथरली एक विमान चालक था! उसके एटमबम से हिरोशिमा नष्‍ट हुआ। वह अपनी कारगुजारी देखने उस शहर गया। उस भयानक, बदरंग, बदसूरत कटी लोथों के शहर को देख कर उसका दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसको पता नहीं था कि उसके पास ऐसा हथियार है और उस हथियार का यह अंजाम होगा। उसके दिल में निरपराध जनों के प्रेतों, शवों, लोथों, लाशों के कटे-पिटे चेहरे तैरने लगे। उसके हृदय में करुणा उमड़ आई। उधर, अमरीकी सरकार ने उसे इनाम दिया। वह वॉर हीरोहो गया। लेकिन उसकी आत्‍मा कहती थी कि उसने पाप किया, जघन्‍य पाप किया है। उसे दंड मिलना ही चाहिए। नहीं। लेकिन उसका देश तो उसे हीरो मानता था। अब क्‍या किया जाय। उसने सरकारी नौकरी छोड़ दी। मामूली से मामूली काम किया। लेकिन, फिर भी वह वॉर हीरोथा, महान था। क्‍लॉड ईथरली महानता नहीं, दंड चाहता था, दंड!

उसने वारदातें शुरू कीं जिससे कि वह गिरफ्तार हो सके और जेल में डाला जा सके। किंतु प्रमाण के अभाव में वह हर बार छोड़ दिया गया। उसने घोषित किया कि वह पापी है, पापी है, उसे दंड मिलना चाहिए, उसने निरपराध जनों की हत्‍या की है, उसे दंड दो। हे ईश्‍वर! लेकिन अमरीकी व्‍यवस्‍था उसे पाप नहीं, महान कार्य मानती थी। देश-भक्ति मानती थी। जब उसने ईथरली की ये हरकतें देखीं तो उसे पागलखाने में डाल दिया। टेक्‍सॉस प्रांत में वायो नाम की एक जगह है वहाँ उसका दिमाग दुरुस्त करने के लिए उसे डाल दिया गया। वहाँ वह चार साल तक रहा, लेकिन उसका पागलपन दुरुस्त नहीं हो सका।

चार साल बाद वह वहाँ से छूटा तो उसे राय.एल. मैनटूथ नाम का एक गुंडा मिला। उसकी मदद से उसने डाकघरों पर धावा मारा। आखिर मय साथी के वह पकड़ लिया गया। मुकदमा चला। कोई फायदा नहीं। जब यह मालूम हुआ कि वह कौन है और क्‍या चाहता है तो उसे तुरंत छोड़ दिया गया। उसके बाद, उसने डल्‍लॉस नाम की एक जगह के कैशियर पर सशस्‍त्र आक्रमण किया। परिणाम कुछ नहीं निकला, क्‍योंकि बड़े सैनिक अधिकारियों को यह महसूस हुआ कि ऐसे प्रख्‍यात युद्ध वीरको मामूली उचक्‍का और चोर कह कर उसकी बदनामी न हो। इसलिए उसके उस प्राप्‍त पद की रक्षा करने के लिए, उसे फिर से पागलखाने में डाल दिया गया।

यह है क्‍लॉड ईथरली! ईथरली की ईमानदारी पर अविश्‍वास करने की किसी को शंका ही नहीं रही। उसकी जीवन-कथा की फिल्‍म बनाने का अधिकार खरीदने के लिए कंपनी ने उसे एक लाख रुपए देने का प्रस्‍ताव रखा। उसने कतई इनकार कर दिया। उसके इस अस्‍वीकार से सबके सामने यह जाहिर हो गया कि वह झूठा और फरेबी नहीं है। वह बन नहीं रहा।

कौन नहीं जानता कि क्‍लॉड ईथरली अणु युद्ध का विरोध करनेवाली आत्‍मा की आवाज का दूसरा नाम है। हाँ! ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। आध्‍या‍त्मिक अशांति का, आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता का ज्‍वलंत प्रतीक है। क्‍या इससे तुम इनकार करते हो?

क्‍लॉड ईथरली को लेकर अमरीका में द्वंद्व बना रहा. क्या ऐसे व्यक्ति का होना संभव है? दार्शनिकों ने उस प्रमथ्यु-अंतराल की बात तो की थी जो मानव समाज की त्रासदी रही है. प्रमथ्यु ने पार्थिव मानव-जाति को अग्नि प्रदान की. लेकिन उस अग्नि का प्रयोग इतना आत्मा को प्रज्ज्वलित करके के लिए नहीं किया गया उससे ज़्यादा दूसरों को जलाने के लिए. क्‍लॉड ईथरली जैसे लोग इस अंतराल को अपने पश्चात्ताप से भरने की कोशिश करते हैं. जो पूँजीपति मुनाफ़ा छोड़कर पूँजीवाद विरोधी हो जाता है, उसे या तो पाखंडी या पागल कहा जाता है. नियम मुनाफे का है, ठगी का है, हिंसा का है. जो इस नियम में छिपे पाप को पहचान लेता है, वह चैन से नहीं रह सकता. उसकी जगह या तो जेल में है या पागलखाने में.

“वह कहता गया, ‘इस आध्‍यात्मिक अशांति, इस आध्‍यात्मिक उद्विग्‍नता को समझने वाले लोग कितने हैं! उन्‍हें विचित्र, विलक्षण, विक्षिप्‍त कह कर पागलखाने में डालने की इच्‍छा रखने वाले लोग न जाने कितने हैं! इसलिए पुराने जमाने में हमारे बहुतेरे विद्रोही संतों को भी पागल कहा गया। आज भी बहुतों को पागल कहा जाता है। अगर वह बहुत तुच्‍छ हुए तो सिर्फ उनकी उपेक्षा की जाती है, जिससे कि उनकी बात प्रकट न हो और फैल न जाए।

वह पागलखाना या तलघर हम सबके भीतर है.

हमारे अपने-अपने मन-हृदय-मस्तिष्‍क में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्‍च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं, जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्‍य भद्र हो जाए यानी दुरुस्त हो जाए या उसी पागलखाने में पड़ा रहे!

हमें इस पागलखाने की सैर करना ज़रूरी है. वह एक प्रकार का आत्म साक्षात्कार ही है. लेकिन उससे सबको भय लगता है. इसलिए इस लेखक की तरह ही हम पागलखाने की सैर करना नहीं चाहते.

“क्‍यों नहीं? उसने झिड़क कर कहा, ‘आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्‍मा आ गई है, चेतन में स्‍व-हित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्‍य का आदर्श भले ही वह बुरा समाज क्‍यों न हो? यही आज के जीवन-विवेक का रहस्‍य है।

जीवन-विवेक की यह परिभाषा सार्वभौम है. स्वार्थ और उसके लिए बुरे समाज से तालमेल से विद्रोह करनेवाली आत्मा अवचेतन में चली गई है. उसे चेतन करना खतरनाक हो सकता है.

इससे इनकार करना कि हम अमरीकी समाज की तरह हो सकते हैं, एक मानवीय सच्चाई से मुँह मोड़ना ही तो है. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि क्‍लॉड ईथरली हमारे देश में भी हो!

क्‍लॉड ईथरली हमारे यहाँ भले ही देह-रूप में न रहे, लेकिन आत्‍मा की वैसी बेचैनी रखने वाले लोग तो यहाँ रह ही सकते हैं।

……

उसने कहा, ‘क्‍यों नहीं? देश के प्रति ईमानदारी रखनेवाले लोगों के मन में, व्‍यापक पापाचारों के प्रति कोई व्‍यक्तिगत भावना नहीं रहती क्‍या?’

समझा नहीं।

मतलब यह कि ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो पापाचार रूपी, शोषण रूपी डाकुओं को अपनी छाती पर बैठा समझते हैं। वह डाकू न केवल बाहर का व्‍यक्ति है, वह उनके घर का आदमी भी है। समझने की कोशिश करो!

मैंने भौंहें उठा कर कहा, ‘तो क्‍या हुआ?’

यह कि उस व्‍यापक अन्याय को अनुभव करनेवाले किंतु उसका विरोध करनेवाले लोगों के अंत:करण में व्‍यक्तिगत पाप-भावना रहती ही है, रहनी चाहिए। ईथरली में और उनमें यह बुनियादी एकता और अभेद है।

इससे सिद्ध क्‍या हुआ?’

इससे यह सिद्ध हुआ कि तुम-सरीखे सचेत जागरुक संवेदनशील जन क्‍लॉड ईथरली हैं।

उसने मेरे दिल में खंजर मार दिया। हाँ, यह सच था! बिलकुल सच! अवचेतन के अँधेरे तहखाने में पड़ी हुई आत्‍मा का विद्रोह करती है। आत्‍मा पापाचारों के लिए, अपने-आपको जिम्‍मेदार समझती है। हाय रे! यह मेरा भी तो रोग रहा है।”

आत्मा का यह विद्रोह हर जगह संभव है, हर व्यक्ति में क्‍लॉड ईथरली होने की संभावना है. यह शायद वही है जिसे नेहरू ने दूसरे शब्दों में यों कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति में दैवी अंश होता ही है. उस दैवी अंश को सक्रिय करना ही हमारी मानवीयता का प्रमाण है.

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