घृणा का दैत्य और स्नेह का शुचि-कान्त मादक देवता

मुक्तिबोध शृंखला:26

पूँजीवाद से मुक्तिबोध की घृणा समझौताविहीन थी। क्या वे उसके कारण कम्युनिस्ट हुए या कम्युनिस्ट होने के कारण पूँजीवाद को उन्होंने अस्वीकार किया? यह प्रसिद्ध है कि नेमिचंद्र जैन ने उन्हें कम्युनिस्ट बनाया। 30 अक्टूबर 1945 के पात्र में वे नेमिजी को लिखते हैं,

याद है, आपकी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। आपने एक व्यक्ति के साथ नाज़ुक खेल खेला है। उसे कम्युनिस्ट बनाया, दुर्धर्ष घृणा के उत्ताप से पीड़ित।”

सिर्फ घृणा नहीं, उस व्यक्ति यानी मुक्तिबोध को अधिक ‘सहनशील भावनामय’ भी बनाया। सहनशील भावनामयता या प्रेम और घृणा, दोनों ही एक साथ एक ही वक्ष में हैं। बल्कि एक के लिए दूसरी ज़रूरी है। ‘नूतन अहं’ शीर्षक कविता में आरम्भ ही इस प्रश्न से होता है;

कर सको घृणा 

क्या इतना

रखते हो अखंड तुम प्रेम?

जितनी अखंड हो सके घृणा

उतना प्रचंड

रखते हो जीवन का व्रत-नेम?”

उसी तरह ‘दो ताल’ शीर्षक कविता में भी घृणा और स्नेह या प्रेम का युग्म है:

चल रही है ज़िंदगी की राह

मादक राग-सी दो ताल पर

गहरी घृणा के, स्नेह के.”

अखंड घृणा के साथ जीवन के व्रत-नेम पर ध्यान देना चाहिए। जीवन के साथ एक प्रकार का पवित्र रिश्ता। उसके सारे व्रत, नेम का पालन! मुक्तिबोध अपनी रचनाओं में धार्मिक ध्वनि की भाषा का सहज और प्रभावशाली उपयोग करते हैं। कुछ व्रत करने पड़ते है, नेम या नियमों का पालन करना पड़ता है जिससे प्रेम सिद्ध हो सके! 

प्रेम से एक निर्मलता आती है, हल्कापन:

प्रेम करोगे सतत? कि जिससे

उससे उठ ऊपर बह लो

ज्यों जल पृथ्वी के अंतरंग में

घूम निकल झरता निर्मल वैसे तुम ऊपर बह लो”

लेकिन फिर यह प्रेम अकेला नहीं है:

क्या रखते अन्तर में तुम इतनी ग्लानि

कि जिससे मरने और मारने को रह लो तुम तत्पर”

यह प्रेम और घृणा का मेल व्यक्ति को उसकी सीमाबद्धता से मुक्त करता है। क्योंकि ये दोनों ही मात्र उसके अहं की तुष्टि के लिए नहीं हैं। इनका आशय बृहत् है, उसके निजी स्वार्थ के पोषण के लिए नहीं:

है ख़त्म हो चुका स्नेह-कोष सब तेरा

जो रखता था मन में कुछ गीलापन

और रिक्त हो चुका सर्व-रोष

जो चिर-विरोध में रखता था आत्मा में गरमी, सहज भव्यता

मधुर आत्म विश्वास।”

यह ग्लानि और साथ ही प्रेम आत्मा को अहोरात्र बेचैन किए रखता है

जिससे देह सदा अस्थिर थी, आँखें लाल, भाल पर

तीन उग्र रेखाएँ, अरि के उर में तीन शलाकाएँ सुतीक्ष्ण।”

भव्यता के भाव के लिए घृणा और प्रेम का यह संगम अनिवार्य है। उसका प्रेम झूठा है जिसे किसी से घृणा ही नहीं है। दोनों का मूल्य अवश्य इससे तय होता है कि वह प्रेम किसके प्रति है, क्या वह सीमित करता है या अपने से ऊपर उठकर जल की तरह निर्मल प्रवाहमयता प्रदान करता है? क्या वह घृणा भी सिर्फ अपने अहं को सहलाने के लिए है?

‘बेचैन’ के साथ ‘अहोरात्र’ की सहज उपस्थिति को भी नोट कीजिए।  

‘पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता में उस समाज के ज्ञान, संस्कृति, अंतः शुद्धि के दावे और वह जो रेशमी शब्द-संस्कृति का आवरण ओढ़े रहती है, उससे क्रोध उमड़ता है क्योंकि वह सब एक जलते असत्य को टालने के लिए है। वह जलता सत्य इतना सरल है कि उसे स्वीकार करने और बोलने में बौद्धिकता शरमाती है। मुनाफे के लिए आबादियों को खोखला करने की चालाक क्रूरता का दूसरा नाम ही संस्कृति है।

छल, धोखे की यह संस्कृति, जो व्यक्ति-स्वतंत्रता के वायदे पर टिकी है, व्यक्ति की सृजनात्मकता पर लगे बंधनों से उसे मुक्त करने का दावा और वायदा करके अपना औचित्य साधन करना चाहती है। कुछ चेहरे जब दमकते हैं लाखों चेहरों पर राख पुती होने के कारण या उसके बावजूद तो भयंकर क्रोध उमड़ना ही चाहिए।

मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ते पढ़ते फादर स्टैन स्वामी के क्रोध का ध्यान हो आया। यीशू की राह पर चलने का संकल्प लिए हुए एक युवा तमिलनाडु से दूर झारखंड के छोटे शहर चाईबासा के बाज़ार को देखता है।  बाज़ार जो खुली खरीद-बिक्री की जगह है। एक आदिवासी औरत, बगल में एक मुर्गी दबाए हुए। और उससे वह मुर्गी छीनकर एक गंदा, मलिन पांच रुपए का नोट उसकी तरफ फेंकते हुए बाज़ार के दलाल। ‘मैं नहीं देना चाहती, नहीं देना चाहती” का उसका आर्त्तनाद बाज़ार में खो जाता है, लेकिन वह स्टैन स्वामी के कानों से होकर उनके दिल को हिलोड़ता रहता है। इस घटना के दशकों बाद इसकी याद करते समय फादर के चेहरे पर से कोप की लहर गुजर जाती है। वह पुकार उनके जीवन की दिशा बादल देती है। वे क्रुद्ध ईसा के रास्ते पर चल पड़ते हैं। ईसा जो सिर्फ मुस्कुराते नहीं, जिनके चेहरे पर शांत स्मित, करुणा और क्षमा ही नहीं जिनके हाथ में कोड़ा भी है।

क्या यह कुपित या कोपित संत है जो ‘एक नीली आग’ में दिखलाई पड़ता है? आसमान के किनारे पर नीली आग की तलवार चमकती है,

वह लावण्य की असि-सी हँसी

है काँपती दुःस्वप्न सी

उसकी वह विसुध मुस्कान

मेघों के सघन गुरु गर्व-तम को चीर,

पैनी पैठती ही गई तन्मय तीक्ष्णतम गंभीर.”

विश्व इसे देख स्तब्ध हो उठता है,

विश्व के भय-स्तब्ध मस्तक पर चमकती,

वह अलौकिक कोप-सी,

वह कोप की छवि-सी,

सहज निष्काम

मानव-मुक्ति हित विह्वल सरल-मन,

किन्तु कोपित संत की अनिवार आहत, शाप-आतुर

भावनाओं के छ्न्द-सी चमकी।”

यह ईसा का कोप है जिसके चलते वे रो पड़ते हैं और कोड़ा भी उठा लेते हैं:

कोप के लावण्य की प्रभुता सहज सुकुमार।”

जिस समय मुक्तिबोध ये कविताएँ लिख रहे थे, फिलीपींस में कुछ कलाकार मिलकर एक गिरजाघर बना रहे थे जिसे क्रुद्ध ईसा का चर्च कहा गया। यह कोप स्वाभाविक था जो ईसा के मन में उठा, जिसने गाँधी को अपना पेशा छोड़ने को बाध्य किया और जिसने फादर स्टैन स्वामी के समक्ष ईसा का वास्तविक संदेश आलोकित कर दिया। यह सात्त्विक कोप है और वह शोषण के पुराने विश्व को नष्ट करने के लिए ही जगा है:

वह तो प्राकृतिक भयकर दमकता कोप ज्योतिर्मान,

टाला जा नहीं सकता

हटाया जा नहीं सकता

बुझाया जा नहीं सकता।”

यह जो क्रोध है वह स्नेह के कारण ही है या उसी का दूसरा रूप है:

प्रकृति के अटल अन्तर का अमृत

संतप्त हो, अति क्रुद्ध हो

लहरा उठा बन कटु गरल की धार।”

कम्युनिस्ट एक अर्थ में इस घृणा का दार्शनिक है:

मेरी घृणा का दार्शनिक

संतप्त-मन

उठती हुई गिरती हुई उत्तल लहरों को विषैले सिंधु की

नित देखता रहता, कठोर पहाड़-सा

विक्षुब्ध सागर तीर के।”

घृणा नकारात्मक है, क्रोध आपको नष्ट कर सकता है। लेकिन जब घृणा के साथ एक स्नेह भी दुर्निवार भाव से जागता हो तो वह घृणा मृत्यु नहीं जीवन देती है,

मैं क्या करूँ,

यह स्नेह भी इस प्राण के पाताल से

उगकर खड़ा है भव्य गुरु अश्वत्थ-सा;

गंभीर मादक उच्चता में फैलकर यह वृक्ष

अपने वक्ष से उद्गत सघन-शाखा-प्रशाखा-भार में

गहरा ह्रदय विस्तार कर

उठकर, उठाकर शीर्ष सर्जन-शक्तिमय वह विश्व-सीमा घेरता।”

यह अश्वत्थ आगे चन्दन-वृक्ष में बदल जाता है लेकिन उसके पहले,

यह सत्य का अश्वत्थ है

जिसकी शिराओं में हृदय की प्रार्थना उद्विग्न हो

अंगार-रस-सी घूमती

जो सोचती

वह किस तरह पी ले समूचे आँसुओं के स्रोत को

अभिशप्त मानव-प्राण  के –

जिस अश्रु-सागर-पान से

इक ज्वार में वह दे डुबो संसार-व्यापी शोषणा।”

प्रार्थना पर आपका ध्यान जाना चाहिए। प्रार्थना प्रायः शांत करती है। यहाँ वह उद्विग्न अंगार-रस में बदल जाती है। वह प्रार्थना है संसार के आँसुओं को पी लेने की ही नहीं, ससार-व्यापी शोषण को समाप्त करने की भी। आगे वह बेनाम मानव-त्याग के भव्यतम अस्तित्व को समर्पित वंदना में परिवर्तित हो जाती है। कविता खासी गद्यात्मक, यहाँ तक कि निबंधात्मक हो उठी है लेकिन मुक्तिबोध को इसकी परवाह नहीं है।

वह सत्य का अश्वत्थ किस प्रक्रिया से चन्दन-वृक्ष में तब्दील हो जाता है?

यह सत्य का अश्वत्थ है

जो प्यार कर उद्भ्रांत मानव से

समर्पण-वेदना में मुग्ध चंदन हो गया।”

उद्भ्रांत मानव से प्यार करने के कारण अश्वत्थ चन्दन बन जाता है। चंदन-वृक्ष की कल्पना नाग या नागिनों के बिना होगी तो किसी और की भले हो, मुक्तिबोध की तो नहीं ही होगी। इसलिए अश्वत्थ जिस चंदन में बदलता है, उसकी ‘सौरभ-शिखाएँ’ ज्वाला की तरह जैसे ही वन में प्रसारित होती हैं, उस चंदन-वृक्ष की दरारों से विकराल, श्याम भुजंग, काली नागिनें निकल पड़ती हैं और उसकी डालियों को जकड़ लेती हैं।

सौरभ की शिखा और उसकी ज्वाला को एक संवेदना में बदलने के लिए असाधारण कला-क्षमता ही नहीं चाहिए, असाधारण व्यापक हृदय भी चाहिए। सुरभित चन्दन वृक्ष और विषैली नागिनें या नाग ‘एक स्पंदन के गहन सहभागी’ हैं। वे ध्यान से क्या सुन रहे हैं?

नभ में एक विषाद-लकीर-सी

अति दूरतक

जो तीव्र खींचती जा रही

वह मर्म-करुण पुकार दोनों सुन रहे हैं

मुग्ध अरण्य भुजंग, चनदन तरु परस्पर लिपट कर।”

विष है, दंशन है, सौरभ है और ज्वाला है।

इस कविता का अंत एक हद तक सरल गद्य है लेकिन उसकी जटिल बनावट को देखना न भूलिए:

विकराल मानव-शत्रु से

दोनों परस्पर मिल प्रतिक्षण जूझते–

मुझमें घृणा का दैत्य जो नंगा खड़ा,

और स्नेह का शुचि-कान्त मादक देवता।

चल आ रही ज़िंदगी की राह

मादक राग सी दो ताल पर

गहरी घृणा के, स्नेह के”

हिंदी के ही नहीं सारी भारतीय भाषाओं के और दुनिया के सारे बड़े रचनाकारों को इस घृणा और स्नेह ने अस्थिर रखा है। 1917 की रूसी क्रांति ने एक उत्साह पैदा किया कि स्वाभाविक और स्थायी प्रतीत होनेवाली शोषण की यह दीवार ढाही जा सकती है और मनुष्य को मनुष्य की तरह स्वीकार किया जा सकता है। मनुष्य को दुबारा मनुष्य से मिलाया जा सकता है। मनुष्य जो अपनी मनुष्यता से विस्थापित हो हो गया है, उसका पुनर्वास किया जा सकता है। वह क्रान्ति आगे चलकर दुर्घटनाग्रस्त हुई या उसी में उसकी व्यर्थता के बीज थे, इस पर बहस आज तक चल रही है। लेकिंन रचनाकारों के लिए उसका एक भावनात्मक आशय था।

क्रान्ति ने अगर अपना वादा पूरा नहीं किया तो इससे उसका स्वप्न मिथ्या नहीं हो जाता, न उसपर विश्वास करनेवाले मूर्ख साबित होते हैं। इस क्रान्ति का या कम्युनिस्ट होने का आशय हमारे कवि के लिए क्या है, यह ‘क्रान्ति’ शीर्षक कविता से ही जाहिर होता है:

जलते विशाल मैदानों में

काली पहाड़ियों पीछे से अपने मटमैले पंखों पर

रेगिस्तानी तूफ़ान उठा।

योजन-योजन बंदी करता

अपनी उड़ान में एक साथ

….. “

इस तूफ़ान के बीच

“… यकायक डस लेती है मेरा वक्ष

हृदय दहलानेवाली बिजली

उस विराट् गति-मुग्ध प्रभंजन के मटमैले क्षुब्ध वक्ष की।”

यह दंश जादू करता है:

और तुरत मैं परिवर्तित हो जाता हूँ–

किसी शाप से ग्रस्त विहग ज्यों

फिर-से मानव-रूप धार लेता है।”

फिर से मानव रूप प्राप्त करना जो लुप्त हो गया है या अपने भीतर विश्व-प्रकृति का बोध जग उठना:

उस विश्व-प्रकृति का भव्य क्षोभ

मुझको लपेट लेता है अपने दीर्घ वक्ष में.

धरती के उर से निकली जो

उसके ऊष्णोछ्वास-सुरभि की मदिरा

मेरे स्पंदन में मिल जाती … “

‘ऊष्णोछ्वास-सुरभि की मदिरा’ का धड़कन में मिल जाना!

क्रान्ति मुझे बदल देती है।

इस बिजली, तूफ़ान, दंशन के बाद मैं अपने मन के परदे पर क्या देखता हूँ?

नील-श्याम-घन-दल-आलिंगित

मलयाचल पर्वत से आती

वायुवाहिनी

की आँखों में, मन में

बड़ी-बड़ी बूँदें हैं

पतली चमकीली करुणा की।”

आगे

आज विखंडित जन की, शिशु की

वृद्ध-पितामह-से वृद्धों की आँतड़ियों से

अटक-अटक जाता है जो दुःख अरुदित,

उसकी एक विशाल लहर

अनुभूति वेदना से आतुर आँखों में उसकी

बड़ी-बड़ी बूँदें बन जातीं।”

इस करुणा के बिना क्रोध हिंसा है। वह सिर्फ नया अहंवाद है। लेकिन मुक्तिबोध रोम-रोम में नए बोध से लहराते रेगिस्तानी तूफ़ान की लहर महसूस करते हैं:

झुलसते झाड़ और झंखाड़ों के रूखे मैदानों-मैदानों

उस धुँआधार अंधड़-सा जाएगा,

जाएगा मेरे क्षुब्ध वक्ष में एक नया ईमान

भयंकर एक नया ईमान

कि उष्ण वक्ष-सी धूलि-सुरभि की गहराई में डूबा

यह अकुलाता उच्छृंखल तूफ़ान

कि जिस निज मृदुल अंक के बंदी को

मन के नभ ने, आत्मा की पृथ्वी ने विमुक्त कर दिया”

इस भंयकर नए ईमान का नाम ही कम्युनिज़्म है या होना चाहिए। 1917 की वास्तविक घटना क्या थी जिसे क्रांति कहा गया, उसे लेकर हम बहस कर सकते हैं, लेकिन इतिहास में यह प्रायः होता है कि घटना के स्वरूप से उसका आशय स्वतंत्र हो जाए। रूसी क्रान्ति का जो आशय प्रेमचंद ने ग्रहण किया वही उनके भक्त मुक्तिबोध ने। सुसंस्कृत समाज की नाड़ियों में बहती हुई जन-घृणा की जगह उस खण्डित कर दिए जन के प्रति करुणा ही नहीं, अपने भाग्य को उसके भाग्य से मिला देना: यह इतना आसान नहीं । लेकिन क्या यह ऐसा सपना नहीं जो हमारा भी हो?

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