
[यह लेख पहले जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नया पथ के जनवरी-मार्च २०२१ अंक में प्रकाशित हुआ था. आगामी 11-12 सितम्बर को अमेरिका में होने जा रहे Dismantling Global Hindutva सम्मलेन से उद्वेलित हिंदुत्व के प्रचारक अब इस सम्मलेन को रद्द कराने की मुहीम में उतर चुके हैं. उनका चालाकी भरा तर्क यह है कि यह सम्मलेन हिन्दू-विरोधी है. इस सन्दर्भ में यह दोहराना बेहद ज़रूरी है कि हिंदुत्व विस्तारवादी फौजी तसव्वुर से लैस एक राजनीतिक विचारतंत्र जो हिन्दुओं के नाम पर हिंसात्मक राजनीती करता है मगर इसका हिन्दू धर्म या जीवन शैली से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस वजह से इस लेख को यहाँ साझा किया जा रहा है.]
“समस्त राजनीति का हिन्दूकरण करो और हिन्दूतंत्र का सैन्यीकरण करो – तब हमारे हिन्दू राष्ट्र (नेशन) का पुनरुत्थान होना तय है, उसी तरह जैसे अंधेरी रात के बाद सुबह का आना अनिवार्य होता है”। – विनायक दामोदर सावरकर, 25 मई 1941 को अपने 59 वें जन्मदिन पर हिंदुतन्त्र (हिन्दूडम) के नाम संदेश।
“हमारी भुजायें एक ओर अमेरिका तक फैली थीं – कोलंबस के अमेरिका ‘आविष्कार’ से बहुत पहले – तो दूसरी ओर चीन, जापान, कम्बोडिया, मलय, श्याम, इंडोनेशिया और समस्त दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैली हुई थीं, और उत्तर में मंगोलिया और साइबेरिया तक। हमारा शक्तिशाली राजनीतिक साम्राज्य इन दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों तक फैला था और 1400 वर्षों तक जारी रहा, अकेले शैलेन्द्र साम्राज्य 700 वर्षों तक फलता फूलता रहा – और चीन के विस्तार के खिलाफ़ चट्टान की तरह खड़ा रहा”। – माधव सदाशिव गोलवालकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक, बँच ऑफ थॉट्स, विक्रम प्रकाशन, बंगलोर, 1968, पृ 9
हिन्दुत्व-विचारतंत्र के इन दो महारथियों की ये उक्तियाँ पढ़ने के बाद आइए अब एक उद्धरण उस शख़्स का देखें जिसे हिंदुत्ववादी हड़पने की पुरज़ोर कोशिश किया करते हैं। ये शख़्स और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद हैं। मुलाहिज़ा फरमाएं :
“भावनाओं का ताल्लुक़ इंद्रियों से ज़्यादा होता है अक़्ल (तर्कबुद्धि) से कम; और इसीलिए जब उसूल सिरे से ग़ायब हो जाते हैं और भावनाएं कमान संभाल लेती हैं तब धर्म कट्टरता में बदल जाते हैं… तब वे किसी मायने में पार्टीगत राजनीति से बेहतर नहीं रह जाते हैं… सबसे भयंकर क़िस्म के अज्ञानतापूर्ण खयाल उठा लिए जाएंगे और उनके लिए हजारों लोग अपने ही भाइयों के गले काटने पर उतर आएंगे”। – स्वामी विवेकानंद, “द मेथड्स एंड पर्पस ऑफ़ रिलिजन”, द डेफ़िनिटिव विवेकानंद, रूपा, नई दिल्ली, 2018, पृ 211
हिन्दुत्व का सरोकार राजनीति से है धर्म से नहीं
ऊपर उद्धृत सावरकर और गोलवालकर के कथनों से यह साफ़ हो जाना चाहिए कि ‘हिन्दुत्व’ का सरोकार धर्म, विश्वासों या उन मूल्यों से क़तई नहीं है जो लोगों की रोज़ाना ज़िंदगियों में राह दिखाती हैं बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीति से है। अगर सावरकर पूरी राजनीति का हिन्दूकरण और जिसे वे ‘हिन्दूतंत्र’ कहते हैं उसका सैन्यीकरण चाहते थे, तो वह फ़क़त इसलिए कि वे हिन्दू धर्म और ‘हिन्दुत्व’ या ‘हिंदूपन’ का इस्तेमाल करके एक हिंसात्मक राष्ट्रवादी राजनीति और पहचान गढ़ना चाहते थे। हिंदुत्व के नाम से जाने जाने वाले इस नज़रिए के लिए हिंसा-प्रेम और शस्त्र-मोह बिल्कुल केन्द्रीय महत्व रखता है। हमारे मौजूदा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की ‘शस्त्र पूजा’ करते हुए तस्वीरें (ऊपर देखें )तो आप को याद ही होंगी. इस मौक़े पर हमें यह भी याद कर लेना चाहिए कि इस साल के बजट में एक सौ सैनिक स्कूल खोलने की पेशकश की गई है जिन्हें ‘ग़ैर सरकारी संगठनों’ के साथ मिलकर खोल जाना है। हैरत में न पड़िएगा अगर ये सभी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन ही निकलें ।
यह कोई हमारी मनगढ़ंत कल्पना नहीं है। हिन्दुत्व की संघ की समझ सीधे सीधे सावरकर के उस आदेश से निकलती हैं जिसमें वे राजतन्त्र (पॉलिटी) के हिन्दूकरण और हिन्दूतंत्र के सैन्यीकराण की बात करते हैं – बावजूद इसके कि खुद सावरकर कभी संघ में शामिल नहीं हुए।
अब ज़रा एक बार दूसरे उद्धरण पर नज़र डालें जो संघ के सरसंघचालक गोलवालकर का है। यह साफ़ है कि इसका ताल्लुक़ भी धर्म से नहीं है – बल्कि इसमें हमें दुनिया के बारे में एक खुल्लमखुल्ला विस्तारवादी सैन्यवादी राजनीतिक दृष्टि देखने को मिलती है। यहाँ गोलवालकर “दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों में” 1400 सालों तक कायम रहे “हमारे शक्तिशाली राजनीतिक साम्राज्य” के प्रताप की धूप का आनंद लेते नज़र आते हैं। और महरबानी कर के यह समझने की भूल न करें कि यह किसी गए ज़माने के खयाली इतिहास का महिमा मंडन भर है – क्योंकि संघ के लिए यह तसव्वुर उसके वजूद का कारण है; उसका अस्तित्व ही इस तरह के खयालों पर टिका है। 1925 में अपने गठन से लेकर आज तक वह सिर्फ़ बाबर और औरंगज़ेब के खिलाफ़ ही तलवारें भाँजता रहा है – यहाँ तक कि उसने हमेशा उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन से दूरी बनाए रखी और आज भी, ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसे आम लोगों के सवालों से दूरी बना कर रखता है। अपने इस सैन्यवादी राजनीतिक तसव्वुर को बनाए रखने के लिए उसे हिंदुओं को अपने शौर्य का अहसास दिलाते रहने की लगातार ज़रूरत पड़ती रहती है जिसके लिए ऐसे क़िस्से बहुत काम आते हैं।
दरअसल संघ और उसका बिरादराना संगठन हिन्दू महासभा ‘हिन्दू एकता’ के अपने अरमान को हासिल करने की धुन में इस क़दर उन्मत्त रहते थे (और हैं) कि वे दलित व अन्य निचली जातियों की बराबरी और समानाधिकार की दावेदारियों से भी तिलमिला उठते थे क्योंकि इससे उन्हें हिन्दू एकता ख़तरे में पड़ती दिखायी देती थी।
यह याद रखना बहुत जरूरी हैं, जिसे हम अक्सर भूल जाते हैं, कि 1934 और 1948 के दरमियान गांधीजी की हत्या की पाँच बार कोशिशें हुईं जिसके बाद छठी बार 30 जनवरी 1948 को कामयाबी के साथ उनका क़त्ल कर दिया गया। छः बार ही उनकी हत्या की कोशिशें और अंत में हत्या हिन्दू आतंकवादियों द्वारा की गई थीं– और इनका जनक था घृणा और हिंसा का वह विचारतंत्र जिसे हम हिन्दुत्व के नाम से जानते हैं। यह भी याद रखना जरूरी हैं कि उनकी हत्या की पहली कोशिश जून 1934 में शूद्र-अतिशूद्र जातियों द्वारा उठाई गई मंदिर-प्रवेश की मांग के इर्द-गिर्द चल रहे विवाद की पृष्ठभूमि में हुई थी। 1933 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने मद्रास लेजिसलेटिव असेंबली में मंदिर प्रवेश विधेयक पेश किया था। इससे ठीक पहले का घटनाक्रम भी याद रखना होगा जिसके अंत में, गांधीजी के आमरण अनशन के बाद, डॉक्टर अंबेडकर और हिन्दू नेताओं के बीच पूना पैक्ट पर दस्तखत हुए थे। हालांकि गांधीजी के आग्रह के चलते पूना पैक्ट ने अलग निर्वाचक मण्डल के प्रावधान को खत्म कर दिया था और उसके कारण उन्होंने दलितों से स्थायी दुश्मनी मोल ली थी, यह भी सच है कि दूसरे छोर पर उसने हिन्दू आतंकवादियों को भी उनका दुश्मन बना दिया था। आख़िरकार, यह नहीं भूलना चाहिए कि उसी करार में प्रांतीय विधायिकाओं में दलितों और आदिवासियों (अनुसूचित जातियों और जनजातियों) के लिए आरक्षण का प्रावधान था जिसने इन हिन्दू अतिवादियों को बेहद क्रोधित कर दिया था – और इसके लिए वे गांधीजी को ही ज़िम्मेदार ठहराते थे।
बहरहाल, गोलवालकर पर लौटें। उनके उद्धरण में एक और बात ग़ौरतलब है – एक ऐसी राजनीति जो सल्तनत व मुग़ल शासन को ‘विदेशी’ कहते नहीं थकती, उन्हें एक बार के लिए भी उसमें और दक्षिण एशिया के 1400 साल तक फैले हिन्दू साम्राज्य का जश्न मनाने में कोई विरोधाभास नहीं दिखाई देता। उसकी तुलना में भारत में “मुस्लिम” शासन तो 800 साल तक ही था!
हक़ीक़त तो यह है कि गोलवालकर अतीत पर अपनी बीसवीं सदी की सोच थोप रहे हैं। प्राचीन या मध्यकाल में न तो ज़मीन और सीमाओं का खयाल मौजूद था और न ही ‘राष्ट्रीय संप्रभुता’ का। और इसीलिए धर्म और संस्कृतियाँ राष्ट्र-राज्यों की हदों में क़ैद कर के नहीं रखी जा सकती थीं जैसे कि हम अपने समय में देखने के आदि हो गए हैं। ऐतिहासिक तौर पर, तमाम दुनिया में शासक वो ही हुआ करते थे जो आक्रमणों के जरिए अपने साम्राज्यों का विस्तार करते थे। निस्संदेह, उनकी अपनी धार्मिक संबद्धताएं थीं और अपने एजेंडे भी – मगर यह भी सच है कि दुनिया भर में, धार्मिक तौर पर सबसे ज़्यादा सहिष्णु निज़ाम उस्मानी (ऑटोमान) और मुग़ल साम्राज्य जैसे पूरब के निज़ाम थे जिन्हें गोलवालकर और उनके मुरीद ‘मुसलमान’ कहेंगे।
आधुनिक दुनिया ने राष्ट्र-राज्य बनाए और क्षेत्रीय अखंडता के आधार पर उन्हें खड़ा किया, जिनके आधार पर समरस सांस्कृतिक पहचानों वाले ‘राष्ट्र’ बनाए गए। ज़ाहिर है, ऐसी समरस या हमवार संस्कृतियाँ कहीं भी पहले से मौजूद नहीं थीं। इन्हें गढ़ा गया और उन्हें गढ़ने के लिए परम्पराएं ईजाद की गयीं। लिहाज़ा शुरू हुई ‘ख़ालिस’, ‘अदूषित’ और ‘पवित्र’ राष्ट्रीय संस्कृतियों की एक अंतहीन तलाश जो रुकने का नाम नहीं लेती है और जिसके असरात उपनिवेशित दुनिया के लिए ख़ासे दर्दनाक़ साबित हुए, क्योंकि उन्होंने उन्हीं यूरोपीय राष्ट्र-राज्यों के साँचे में खुद को ढालना शुरू कर दिया जिन्होंने उन्हें ग़ुलाम बनाया था।
‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्र-राज्यों’ के ये विचार एक मायने में दुनिया को आधुनिक यूरोप से मिला वो मनहूस तोहफ़ा था जिसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे हमारे महान चिंतकों ने सिरे से खारिज कर दिया था। उन्होंने उसे इसलिए ख़ारिज कर दिया था क्योंकि उन्हें उसमें एक ऐसा नज़रिया दिखाई दे रहा था जो भारतीय लोकाचार के ख़िलाफ़ भी था और उस उपनिषद्-प्रदत्त ज्ञान के भी विरोध में खड़ा था जिसे वे और विवेकानंद जैसे कई आधुनिक चिंतक हिन्दू धर्म और जीवनदृष्टि का निचोड़ मानते थे. रवीन्द्रनाथ और गांधीजी जैसे कई मनीषियों के लिए हिन्दू धर्म का निचोड़ उसके संकुचित कर्मकांडों में नहीं – जिसे विवेकानंद ने भी पुरज़ोर ढंग से ख़ारिज किया था – बल्कि उपनिषदों के सार्वभौमिक दर्शन में था जिसमें, उनके अनुसार, सारे धर्मों का सत्य समाया हुआ था. रवीन्द्रनाथ ठाकुर अगर ‘मनुष्य के धर्म’ की बात करते थे तो विवेकानंद भी एक ऐसे सार्विक धर्म के इंतज़ार में थे जो “न सिर्फ हिंदुस्तान के भीतर संघर्षरत सम्प्रदायों के बीच एक अभूतपूर्व एकता क़ायम करेगा बल्कि हिंदुस्तान के बाहर भी”. रवीन्द्रनाथ ने रेखांकित किया था कि,
“मनुष्य सिर्फ उसी को अव्वल के रूप में पहचानता है जिसे हर काल में, तमाम मनुष्यों से स्वीकृति मिली हो…. जो अपनी ख़ुद की आत्मा के ज़रिये सभी इंसानों की आत्मा का अनावरण करता है.”
वे आगे और रेखांकित करते हैं कि “भौतिक संपत्ति के प्राचुर्य के बीच में ही हम अक्सर ऐसे खंडहरों की निशानियाँ देख पाते हैं जब मनुष्य, स्वार्थ और सत्ता के नशे में चूर, शाश्वत मानव [चिरोमानब] के विरुद्ध विद्रोह कर बैठता है.”
सावरकर और गोलवालकर के ऊपर दिए उद्धरणों में, दोनों में ही हमें ऐसे ही एक आदमी के आविर्भाव का नज़ारा दिखाई देता है जो स्वार्थ और सत्ता के जूनून में पागल है.
अब ज़रा एक बार स्वामी विवेकानंद की इस बात पर ग़ौर करें जो उन्होंने ‘वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ रिलीजन्स’ में शिकागो में कही थी :
मुझे गर्व है की मैं एक ऐसे धर्म से आता हूँ जिसने सारी दुनिया को सहिष्णुता और सार्विक स्वीकृति सिखाई। हम न सिर्फ सार्विक सहिष्णुता में यक़ीन रखते हैं बल्कि हम सारे धर्मों को सत्य के रूप में क़ुबूल करते हैं.
विवेकानंद की भाषा कवि की भाषा से बिलकुल अलग है और ज़मीनी है. अगर ग़ौर से देखें तो पाएंगे कि हालाँकि वे अक्सर राष्ट्र और राष्ट्रवाद की बात करते प्रतीत होते हैं, उनका सरोकार धर्म से है जिसे वे हर हालत में राजनीति से अलग रखना चाहते हैं. ऊपर इस लेख के शुरू में दिए गए उनके कथन में वे धर्म के कट्टरता और पार्टीगत राजनीति में अध:पतन की कड़ी निंदा करते हैं और उसे सिरे से ख़ारिज करते हैं.
हिन्दू धर्म और जीवनदृष्टि
घृणा के इस सैन्यवादी और हिंसात्मक कल्ट के बरअक्स हिन्दू धर्म के विचारकों ने अपने धर्म को किस तरह व्याख्यायित किया है? बकौल आचार्य क्षिति मोहन सेन, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी ‘हिन्दू’ कहे जाने वाली तमाम धाराओं का अध्ययन करने में लगा दी और जीवन का एक अच्छा ख़ासा हिस्सा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ शांतिनिकेतन में गुज़ारा :
“ईसाइयत, इस्लाम, या बौद्ध धर्म जैसे दुनिया के अन्य विश्व-धर्मों की तरह हिन्दुइज़्म या हिन्दू धर्म का कोई एक संस्थापक नहीं था. वह पांच हज़ार सालों के दौरान आहिस्ता आहिस्ता विकसित हुआ – भारत में उपजे तमाम तरह के धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलनों को जज़्ब करके अपने में समेटते हुए.”
दूसरे शब्दों में, वह एक महासागर की तरह है जिसमें कई नदियां, कई धाराएं आकर मिलती हैं. ‘पांच हज़ार साल’ तो एक अतिश्योक्ति लगती है मगर इसमें क्या शक़ है कि जिसे आज हम ‘हिन्दुइज़्म’ के नाम से जानते हैं वह सही मायने में ‘धर्म’ नहीं है जिस अर्थ में उस शब्द को आज हम समझते हैं। यह भी तो जानीमानी बात है कि ‘धर्म’ ‘रिलिजन’ का पर्याय नहीं है बल्कि उसके मायने आचार, स्वधर्म, युगधर्म और कई ऐसे अर्थों से मिलकर बनते हैं. जब हम यह कहते हैं कि हिन्दुइज़्म या ‘हिन्दू धर्म’ हज़ारों साल के लम्बे दौर में इस विशाल भूभाग में पनपे विभिन्न धार्मिक व सांस्कृतिक आंदोलनों के समेटते हुए विकसित हुआ तो इससे हमारी मुराद क्या होती है? क्षिति मोहन सेन रज्जाब नाम के एक कवि-संत का हवाला देकर कहते हैं की जब यह बात आम हुई की उन्हें “रौशनी” मिली है तो बड़ी तादाद में लोग उनके दर्शन करने आने लगे। वे आते और उनसे पूछते कि वे क्या देख और सुन पा रहे हैं? “उनका जवाब था : ‘मैं जीवन की शाश्वत लीला देख रहा हूँ। मैं उस लोक की आवाज़ों का गायन सुन रहा हूँ। जिसका आकार नहीं है उसे आकार दो, बोलो और अपने आप को व्यक्त करो”। शायद इसी विचार का विवेकानंद सैद्धांतिकरण करते हैं जब वे कहते हैं कि “किसी भी सिद्धांत या मत पर विश्वास करने या न करने और उनके इर्द-गिर्द संघर्ष हिन्दू धर्म नहीं है, बल्कि वह तो सत्य को प्रत्यक्ष करने का नाम है। उसका सम्बन्ध विश्वास करने से नहीं बल्कि होने और बनने से है”।
शिकागो में स्वागत भाषण के जवाब में भी विवेकानंद अलग अलग जगहों से, कई अलग अलग स्रोतों से आ रही मुख़्तलिफ़ नदियों के अंततः समंदर में मिल जाने की बात पर ही ज़ोर देते हैं।
समंदर में या महासागर में तमाम तरह के जीव और वनस्पति जीवन एक साथ रहते हैं और ये सब हमेशा एक दूसरे के साथ मिलजुल कर नहीं रहते हैं। उनके बीच संघर्ष और टकराव भी देखने को मिलते हैं मगर चूँकि वह एक ही समंदर हैं इसलिए तमाम प्राणियों को आख़िरकार एक साथ रहना सीखना पड़ता है।
ऐसा ही उन तौर तरीक़ों, उन अमलों के साथ होता है जो हज़ारों सालों में विकसित हुए हैं। और सभी आधुनिक हिन्दू चिंतक व सुधारक इस बात को अच्छी तरह समझते थे। वे जानते थे की या कहना क़ाफ़ी नहीं है कि वेदों और उपनिषदों से लेकर पुराणों और तंत्रों तक सब कुछ एक ही साथ, एक ही तरह से वैध हैं। इन में आपस में गहन अंदरूनी टकराव और विरोध हैं मगर एक दूसरे अर्थ में कहा जा सकता है कि इनके बीच एक स्तर पर ‘समझदारी का सामान्य क्षितिज’ है – ब्रह्माण्ड और जीवन के बारे में सामान्य मान्यताएं हैं जहाँ संसार अनादि अनंत है, समय शाश्वत है और एक परम-आत्मा है जिसे कभी ब्रह्म, कभी प्रजापति तो कभी ब्रह्म-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति के रूप में जाना जाता है या बाद में ईश्वर के रूप में। कभी कभी बाउल परंपरा की तरह उसे सिर्फ ‘मोनेर मानुष’ या दिल में रहने वाला इंसान कहा जाता है।
मगर ‘हिन्दू धर्म’ के इस विशाल सागर में हमेशा लोकयत या चार्वाक जैसी नास्तिक धाराएं भी हुआ करती थीं जो वेदों ऑथोरिटी को तो नकारते थे ही अनश्वर आत्मा की धारणा को भी ख़ारिज करते थे। मगर प्राचीन काल से ही भारत नाम के इस महा-समंदर का निर्माण सिर्फ उन धाराओं से नहीं हुआ जिन्हें हम आज हिन्दू धर्म कहते हैं बल्कि उसके बनने में बौद्ध, जैन व आजीविकों जैसी श्रमण धाराओं का भी भरपूर योगदान रहा है।
और फिर बाद में इस्लाम और ईसाइयत का आगमन होता है – हालाँकि हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि सेंट टॉमस ख़ुद हिंदुस्तान आने वाले पहले ईसाई थे जो सन 52 में केरल में आये थे। इसी तरह अरबों के साथ व्यापर के ज़रिये हमारे रिश्ते और कई सदियों पीछे जाते हैं – इस्लाम के उदय से भी पहले।
इसीलिये स्वामी विवेकानंद इतनी आसानी से कह पाते हैं कि “आर्य, द्रविड़, टार्टर, तुर्क, मुग़ल, यूरोपीय – दुनिया के सभी राष्ट्र यहाँ आये हैं और इस ज़मीन में अपना ख़ून दे गए हैं.” [‘द फ़्यूचर ऑफ़ इंडिया’] क्या यह महज़ इत्तफ़ाक़ है कि उनका यह कथन उनके सौ साल से भी ज़्यादा बाद में लिख रहे उर्दू शायर राहत इन्दोरी के “सभी का खून है शामिल इस मिटटी में” के साथ लगभग हूबहू मिल जाता है? यक़ीनन इन दोनों के पीछे एक समान इथोस, एक मुश्तरका जज़्बा है जो हम सब की विरासत है – हम जो इस ज़मीन के बाशिंदे हैं।
विदेशी कौन है?
आरएसएस और हिंदुत्व वालों को लगातार अपने मतलब का मन-गढ़ंत छद्म -इतिहास पैदा करने और उन्हें सच कह कर प्रचारित करने में महारत हासिल है और यह काम वे पिछले सौ सालों से किये जा रहे हैं। उन्हें अपने इस काम में अक्सर इस बात से मदद मिल जाती है कि हम में से अधिकांश लोग अपने सुदूर अतीत के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते।
दुनिया भर में कहीं भी देख लीजिये तो पाएंगे कि जिसे हम ‘संस्कृति’ कहते हैं वह हर जगह कई तरह के प्रभावों और अवयवों से मिलकर बनती है – और उनका एक साथ आना कई कारणों से हो सकता है – हिंसात्मक आक्रमण, शांतिपूर्ण व्यापर, समूचे समुदायों के एक जगह से दूसरी जगह प्रवसन, अंतर-सामुदायिक विवाह वगैरह। लिहाज़ा, ऐसा कुछ भी नहीं मिल सकता है जिसके बारे में हम ये दावा कर सकें कि वह ख़ालिस भारतीय है – वेद भी नहीं।
सिंधु घाटी सभ्यता का एक बहुत बड़ा हिस्सा – जिसकी खोज 1920 में हुई थी – दरअसल आज के पाकिस्तान, कश्मीर, उत्तर-पश्चिम भारत और गुजरात के कुछ इलाकों के तक फैला हुआ था और हम उस सभ्यता के लोगों के धर्म के बारे में बहुत कम ही जानते हैं. हाल के सालों की खुदाई से पता चलता है कि उसका विस्तार शायद आज के हरियाणा के हिसार जिले तक था। मगर कुल मिलाकर उस सभ्यता के बारे में हम आज भी बहुत काम जानते हैं – उतना भी नहीं जितना वैदिक लोगों के बारे में जानते हैं। मगर उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है – हिंदुत्व के ख़याली पुलाव तो तभी से बनाना शुरू हो गए थे। दोनों के बीच के रिश्तों के बारे में वे इस तरह बात करते पाए जाते हैं गोया संघी ही इन दोनों के वारिस हों। हक़ीक़त यह है की दोनों के बारे में हमारा ज्ञान बर्तानवी हुकूमत के दौर में हुए शोध और खुदाई से ही सामने आया है मगर शोधकर्त्ता भी जो नहीं जानते वो हिंदुत्व के खिचड़ी-पुलाव पकाने वाले आपको बताते नज़र आएंगे।
तो क्या वैदिक सभ्यता का उदय सिंधु घाटी सभ्यता से हुआ था? क्या दोनों कोई रिश्ता था? ऐसा लगता नहीं है। इस सन्दर्भ में दो बातें ख़ास तौर पर ग़ौरतलब हैं।
पहली, वेदों में घोड़ों की ख़ासी अहमियत है और अश्वमेध यज्ञ से लेकर घोड़ों द्वारा चलित रथों का उनमें अक्सर ज़िक्र आता है। घोड़ों की 27 पसलियाँ होती हैं जबकि हड़प्पा से मिले तमाम पुरातात्विक सुबूतों / कलाकृतियों में हमें 26 पसलियों वाले जंगली गधों के ही सुराग मिलते हैं। न तो वहां घोड़ों की हड्डियाँ मिली हैं न उनके चित्र, न ही घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथों के खिलौने। मिलते हैं तो बैल गाड़ियों के सुराग जिनमें ठोस पहिये देखने को मिलते हैं। ग़ौरतलब है की वेदों में रथों के हवाले कई बार आते हैं और इनके पहिए ‘स्पोक’ वाले होते हैं, ठोस नहीं.
दूसरी अहम् बात यह है कि वैदिक साहित्य में घुमन्तु आबादियों के ही सन्दर्भ मिलते हैं और रहने व पूजा की कोई तय जगहों के ज़िक्र नहीं मिलते, जबकि हड़प्पा की सभ्यता एक शहरी सभ्यता थी और वहां बसी हुई खेती के भी कुछ हवाले मिलते हैं।
इस सब से इतना भर कहा जा सकता है कि जो लोग वेद और वैदिक भाषा लेकर भारत आये वे भारत के मूल निवासी तो क़त्तई नहीं थे। इस सन्दर्भ में एक और दिलचस्प खोज का ज़िक्र ज़रूरी है।
ईसापूर्व 1380 के आसपास का एक शिलालेख एक संधि का ज़िक्र करता है जिसमें तीन वैदिक देवताओं का उल्लेख मिलता है। ये तीन देवता हैं इंद्र, मित्र और वरुण। मगर दिलचस्प बात यह है की यह शिलालेख जिस संधि का उल्लेख करता है वह एशिया माइनर (अर्थात आज के तुर्की के कुछ हिस्सों) के हिट्टीय राजा और एक मितन्नी राजा बीच हुई थी जिसका क्षेत्र वर्त्तमान सीरिया से इराक़ तक फैला हुआ था। इससे एक बात का तो पता चलता है और वह यह कि वैदिक संस्कृति का भौगोलिक इलाक़ा बहुत विस्तृत था और वह मूलतः आज के भारत की उपज नहीं था। वैदिक भाषा का भी उन क्षेत्रों के भाषाओँ से क़ाफ़ी नज़दीक़ी रिश्ता था जो बाद की संस्कृत की पूर्वज कही जा सकती है। लिहाज़ा संस्कृत का भी उद्भव ख़ालिस ‘भारतीय’ नहीं है।
तो फिर इस सब के मानी क्या हुए? एक, इस से हमें पता चलता है कि वेदों के लिखे जाने से पहले वैदिक देवी देवताओं और उन से जो ज्ञान हमें मिलता है वह एक बहुत बड़े और विस्तृत भौगोलिक भूभाग के ‘ओरल कल्चर’ का हिस्सा था। यह भूभाग आज के ईरान, सीरिया, इराक़ और तुर्की तक को अपने में समेटे हुए था।
दो, यह तो शायद साफ़ है कि वेदों का लिखा जाना (और उस अर्थ में उनकी रचना) हिंदुस्तान में ही हुई मगर ऐसा ज़रूर लगता है कि वह केंद्रीय और पश्चिमी एशिया से आई एक विशेष आबादी के साथ ही यहाँ आये। आज की तारीख़ में यह कहना मुश्किल है कि इस माइग्रेशन के ज़रिये आई आबादी की संख्या कितनी बड़ी थी मगर इतना तो लगता है कि उसके यहाँ बस जाने से एक अलग अध्याय की शुरुआत होती है.
तीन, वर्त्तमान हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बसने वाले लोग वैदिक जन के आने के बहुत पहले से यहाँ रहते आये थे मगर आख़िरकार उन्हीं लोगों ने वेदों और वैदिक भाषा को अपनाया – और वही भाषा आगे जाकर संस्कृत बनी।
लिहाज़ा, यह अब स्पष्ट हो जाना चाहिए कि न तो ‘वेद’ नाम से जाने जाने वाले ग्रंथों का ज्ञान और न ही सिंधु घाटी सभ्यता – हड़प्पा व मोहनजोदड़ो – उस अर्थ में ‘भारतीय’ हैं अगर ‘भारतीय से हमारी मुराद मौजूदा राष्ट्र-राज्य से है।
इस भूखंड की भाषा, संस्कृति और धर्म उस ज़माने से कई हज़ार सालों का लम्बा सफर तय कर के एक ऐसे मुक़ाम पर पहुंची जहाँ 12 वीं से 16 वीं सदी के दरमियान जाकर ही विचारकों का एक छोटा सा गुट अपने आप को ‘हिन्दू’ के रूप में देखने लगा – हालाँकि तब उसका धार्मिक पहचान का अर्थ नहीं था. एक धार्मिक समुदाय के विवरण के रूप में, जिस अर्थ में हम इसे आज समझते हैं, इस पद का चलन 19 वीं सदी में जाकर ही आम होता है जब बर्तानवी सरकार द्वारा आदमशुमारियों में ‘हिन्दू’ को व्यापक धार्मिक अर्थों में परिभाषित किया जाने लगा। मान्यताओं और अमलों का एक समंदर जो ‘ऑर्गैनिक’ ढंग से हज़ारों सालों से विक्सित हुआ था और जिसका श्री रामकृष्ण ने, अपने आदर्श के रूप में,’जितने मत उतने पथ’ कहकर निरूपण किया था,उसे अब सरकार चलाने के ज़रूरतों के अधीन कर लिया गया. इसके बाद बहुत जल्द ही वह राजनीति और राजनीतिक लामबंदी का हिस्सा भी बन गया.
आज अचानक संघ द्वारा पैदा किया गया एक नया फ़ितूर चारों तरफ़ ज़ोर मार रहा है जिसके तहत हर जगह ‘विदेशियों’ और ‘घुसपैठियों’ की तलाश शुरू हो गई है। नागरिकता संशोधन क़ानून (सी ए ए) के पारित होने के साथ साथ राष्ट्रिय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की जो क़वायद नए सिरे से शुरू की गयी है उसके तहत यह कोशिश की जा रही है की हमारे देश की आबादी के एक बड़े हिस्से तो ‘विदेशी’ घोषित कर दिया जाए। दुनिया को देखने के आरएसएस और हिंदुत्व के तरीक़े के मुताबिक सभी मुसलमान विदेशी हैं। हालाँकि कहने भर के लिए संघ के क़ुबूल करता है कि अधिकांश मुसलमान भारतीय हैं, उसके राजनीतिक खेल में सभी मुसलमान बुनियादी तौर पर संदिग्ध हो जाते हैं। संघ के इस कुप्रचार को बेनक़ाब करने के लिए शायद एक बार फिर हमें स्वामी विवेकानंद की मदद की ज़रूरत होगी जो बड़ी साफ़गोई से हमें आक्रमणकारी शासक और उस अवाम का फ़र्क़ समझाते हैं जिन्होंने इस्लाम अपनाया था। चूँकि आरएसएस को हिन्दू धर्म को सिर्फ़ अपने राजनीतिक मक़सद के लिए इस्तेमाल करना होता है इसलिए उसे मामले के सच और झूठ से कोई मतलब नहीं होता मगर विवेकानंद जैसे धर्मगुरु के लिए उससे कन्नी काटना संभव नहीं है। इसीलिए वे इस परिघटना को हिन्दू समाज की अंदरूनी समस्याओं, उसमें मौजूद दर्जाबन्दियाँ [हायरार्की] और जाति-उत्पीड़न के ढांचों से जोड़ते हैं। उनके अपने शब्दों में :
“ख़ुसूसी विशेषाधिकार [एक्सक्लूसिव प्रिविलेज] और ख़ुसूसी दावों के दिन अब लद गए हैं, भारत की ज़मीन से हमेशा के लिए रुख़्सत हो गए हैं…. भारत में बरतानवी हुकूमत की कुछ बरकतों में से यह भी एक है। और हम इस बरकत के लिए मोहम्मदन शासन के भी कर्ज़दार हैं, इस ख़ुसूसी विशेषाधिकार के ख़ात्मे के लिए…. दबे-कुचले और ग़रीब लोगों के लिए भारत पर मुसलमान आक्रमण मुक्ति की तरह आया था। इसीलिए हमारे लोगों के पांचवा हिस्सा मुसलमान बन गया।यह सब तलवार की ताक़त पर नहीं हासिल किया गया। यह सोचना की यह सब सिर्फ़ तलवार और हथियारों के बूते पर हुआ पागलपन की हद होगी।”
हमारी आबादी का पांच में से एक हिस्सा मुसलमान इसलिए बन गया क्योंकि वह बहिष्कृत था, दबा-कुचला और ग़रीब था – इसलिए नहीं कि उसे ज़बरन मुस्लमान बनाया गया। याद रखें कि हिन्दू समाज में तो वे भगवन या ईश्वर के सामने भी बराबर नहीं थे – उन्होंने मंदिरों में दाखिल होने की बहुत कोशिशें कीं और विफल हुए। स्वामी दयानन्द सरस्वती और महात्मा गाँधी से लेकर डॉक्टर आंबेडकर तक आधुनिक भारत के न जाने कितने ही नेताओं और विचारकों ने रूढ़िवादी हिन्दू समाज में सुधार लाने की अनगिनत कोशिशें कीं मगर सब नाकाम रहे।
और अगर वे – अतिशूद्र, अछूत, पंचम या परया – ईश्वर के सामने बराबर न हो सके तो उसके भक्तों के आगे कैसे हो सकते थे? उन्हें तो गांवों के सामूहिक कुंए से पानी लेने की इजाज़त भी नहीं थी। ऐसे ही रोज़ाना के सदियों से चले आ रहे तजुर्बों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करते हुए डॉक्टर आंबेडकर के महाड सत्याग्रह कर के हाल में उदघाटित नगर पालिका द्वारा बनाये गए कुंए से पानी पिया – और उसके बाद ही उन्हें भी समझ आ गया कि इन रूढ़िवादियों का सुधार असंभव है। तभी उन्होंने ने फ़ैसला कर लिया था कि बेशक वे जन्म से हिन्दू रहे हों मगर हिन्दू के रूप में नहीं मरेंगे। उनके सत्याग्रह के फ़ौरन बाद की इस रपट को ग़ौर से पढ़ें :
“इस घटना के दो घंटों बाद कुछ शैतान क़िस्म के ऊँची जातियों के लोगों ने यह अफ़वाह फैलानी शुरू कर दी कि अछूत लोग अब ज़बरन वीरेश्वर मंदिर में घुसने की योजना बना रहे हैं। और इसी के साथ साथ बांस और लाठियाँ लिए हुए एक भीड़ सडकों और नुक्कड़ों पर जमा होने लगी। महाड की पूरी रूढ़िवादी आबादी जैसे उठ खड़ी हुई और थोड़ी ही देर में सारा शहर दंगाइयों की उमड़ती हुई भीड़ में तब्दील हो गया। उन्होंने कहना शुरू किया कि उनका धर्म ख़तरे में है, और हैरत की बात तो यह कि उन्होंने यह भी कहना शुरू किया कि उनके भगवान पर भी प्रदूषित होने का खतरा आन पड़ा है। ”
इसे पढ़ते हुए मुमकिन है हाल के सालों के कई दृश्य आप के भी मन में भी उमड़ आये हों जहाँ पहले अफ़वाहों का बाज़ार गर्म किया जाता है और किसी करिश्माई अंतर्दृष्टि से या पता लगा लिया जाता है कि किस के फ्रिज में क्या रखा है, और उसके बाद यकायक शोहदों और गुंडों की एक हमलावर भीड़ इकठ्ठा हो जाती है – और हमला करती है। ये सब अपने आप, स्वतः स्फ़ूर्त ढंग से नहीं होता है मगर वो फ़िलहाल हमारी चर्चा का विषय नहीं है। बहरहाल, डॉक्टर आंबेडकर ने आख़िरकार बौद्ध धर्म अपना लिया। इतना याद रखना ज़रूरी है कि 19 वीं और 20 वीं सदी में हिन्दू समाज में जितने भी सुधारक और चिंतक हुए जो धर्म को लेकर गंभीर थे, उन सभी ने छुआछूत और जाति-उत्पीड़न के अन्याय को रेखांकित किया और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी।
अगर हम गुजरात के ऊना शहर में 2016 में हुई चार दलित नौजवानों की बेरहम पिटाई की घटना को या फिर हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक दलित लड़की के गैंगरेप की घटना को याद करें जो दोनों ही भारतीय जनता पार्टी शासित प्रदेशों में हुई तो यह समझने में दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए कि वह और आरएसएस कहाँ और किसके साथ खड़ा है। ऐसा नहीं हैं कि और सूबों में दलितों पर अत्याचार नहीं होते मगर इन राज्यों की ख़ास बात यह है कि इनमें इन अत्याचारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना तो दूर, उनके विरोध में उठने वाली आवाज़ों को चरम घृणा और बर्बरता से दबाया दिया जाता है। इसी से पता चल जाना चाहिए कि ये किन ताक़तों की नुमाइंदगी करते हैं।
हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि संघ और भाजपा की हिन्दू धर्म और जीवनदृष्टि आदि में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनकी कोशिश बस यह है कि वे किसी भी तरह हिन्दुओं को डरे हुए और कट्टर समुदाय में तब्दील कर दें ताकि अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सके। धर्म के ऐसे ही नापाक इस्तेमाल के ख़िलाफ़ स्वामी विवेकानंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर हमें हमेशा आगाह किया करते थे।