[यह लेख कुछ अरसा पहले वाक् पत्रिका के लिए लिखा गया था – पुराने दोस्त सुधीश पचौरी के इसरार पर। जब यह लेख लिख रहा था तब से अब तक हालात कुछ बदल चुके हैं। इसे लिखते वक़्त तक भी मुझे यह गुमान था कि शायद एक रोज़ मैं हिन्दी के क़िलानुमा परिसर में घुस पाने क़ामयाब हो पाउंगा। हज़ार पहरों में घिरे इस क़िले में एक रोज़ ज़रूर दाखिल होने का मौक़ा मिलेगा। मगर इधर कुछ समय से ऐसा लगने लगा है कि यह क़त्तई मुमकिन नहीं है। हिन्दी के पहरेदार ऐसा कभी न होने देंगे। लिहाज़ा अब इस क़िले में घुसने की कोशिश छोड़ कर हिन्दुस्तानी के खुले और बे-पहरा मैदान में, खुली हवा में टहलना चाहता हूँ। कह देना चाहता हूँ पहरेदारों से कि मैं आप के मुल्क का बाशिंदा नहीं हूँ। मैं एक लावारिस मगर आज़ाद ज़ुबान में पला बढ़ा और वही मेरी ज़मीन है। अलविदा। – आदित्य निगम]
एक ज़माना हुआ हिन्दी से जूझते हुए। यह दीगर बात है कि हिन्दीवालों को इसकी ख़बर तक नहीं। हो भी क्यों? आप बेचते ही क्या हैं?