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हिन्दुत्व के कल्पना-लोक में स्त्री और RSS के लिए उसके अतीत से कुछ सवाल

[मध्ययुग में पश्चिमी जगत में आधुनिकता के आगमन ने धर्म के वर्चस्व को जो चुनौती दी थी, भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों और राजनीतिक आजादी ने यहां धर्म के प्रभाव को और अधिक सीमित कर दिया। रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समय-समय पर इस बदलाव को बाधित करने की कोशिश की। संविधान निर्माण से लेकर स्त्रियों को अधिकार-संपन्न करने के लिए ‘हिन्‍दू कोड बिल’ को सूत्रबद्ध एवं लागू किए जाने का हिन्दुत्ववादी ताकतों ने जिस तरह से विरोध किया, ऐसी ही बाधाओं का ही परिणाम रहा कि डॉ. आंबेडकर को नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। यह आलेख संविधान-निर्माण के दौरान स्पष्ट तौर पर उजागर हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्त्री-विरोधी विचारों एवं सक्रियताओं की पड़ताल करता है]

वह 1936 का साल था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विचारों एवं कार्यों से प्रभावित होकर नागपुर निवासी लक्ष्मीबाई केलकर (1905-1978) ने संघ के संस्थापक सदस्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से मुलाकात की और संघ से जुड़ने की इच्छा जाहिर की थी। सुश्री केलकर- जिन्हें बाद में लोग मौसीजी नाम से पुकारने लगे थे- को यह कतई उम्मीद नहीं रही होगी कि संघ सुप्रीमो इस प्रस्ताव को ठुकरा देंगे और उन्हें सिर्फ स्त्रियों का संगठन बनाने की सलाह देंगे। ‘’राष्ट्र सेविका समिति’’ की स्थापना की यही कहानी बताई जाती है, जिसे आरएसएस का पहला आनुषंगिक संगठन भी कहा जा सकता है।

राष्ट्र सेविका समिति की जब स्थापना हुई, तब RSS का निर्माण हुए 11 साल का वक्फा गुजर चुका था। वह दौर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ तथा सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति के लिए उठी हलचलों का था, जिसमें स्त्रियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। भारतीय राजनीतिक-सामाजिक जीवन में जबरदस्त सरगर्मियों के इस दौर में संघ संस्थापक महानुभावों में से किसी को भी यह खयाल तक नहीं आया था कि आबादी का आधा हिस्सा स्त्रियां उनके नक्शे से गायब हैं। वैसे, उन्हें इस बात का एहसास होता भी कैसे क्योंकि इन दोनों किस्म की हलचलों से उन्होंने दूरी बना कर रखी थी और अपने बेहद संकीर्ण व असमावेशी नजरिये के तहत संगठन बनाने में जुटे थे। धर्म आदि के आधार पर जिन्हें वह ‘अन्य’ समझते थे, उनको लेकर अपनी एकांगी सोच के प्रचार-प्रसार में सक्रिय थे। ( Read the full article here : :https://followupstories.com/politics/women-in-hindutva-ideological-realm-and-historical-blunder-of-rss/)

‘नफरत के गुरूजी’

गोलवलकर के महिमामंडन से उठते प्रश्न

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संघ के सुप्रीमो जनाब मोहन भागवत की सूबा मध्य प्रदेश की बैतुल की यात्रा पिछले दिनों सूर्खियों में रही, जहां वह हिन्दू सम्मेलन को संबोधित करने पहुंचे थे। सूर्खियों की असली वजह रही बैतुल जेल की उनकी भेंट जहां वह उस बैरक में विशेष तौर पर गए, जहां संघ के सुप्रीमो गोलवलकर कुछ माह तक बन्द रहे।  इस यात्रा की चन्द तस्वीरें भी शाया हुई हैं। इसमें वह दीवार पर टंगी गोलवलकर की तस्वीर का अभिवादन करते दिखे हैं। फोटो यह भी उजागर करता है कि भागवत के अगल बगल जेल के अधिकारी बैठै हैं।

विपक्षी पार्टियों ने – खासकर कांग्रेस ने – इस बात पर भी सवाल उठाया था कि आखिर किस हैसियत से उन्हें जेल के अन्दर जाने दिया गया। उनके मुताबिक यह उस गोलवलकर को महिमामंडित करने का प्रयास  है, जिसे ‘एक प्रतिबंधित संगठन के सदस्य होने के नाते गिरफ्तार किया गया था। यह जेल मैनुअल का उल्लंघन भी है। केवल कैदी के ही परिजन एवं दोस्त ही जेल परिसर में जा सकते हैं और वह भी वहां जाने से पहले जेल प्रबंधन की अनुमति लेने जरूरी है।’

गौरतलब है कि संघ के तत्कालीन सुप्रीमो गोलवलकर की यह पहली तथा अंतिम गिरफतारी आज़ाद हिन्दोस्तां में गांधी हत्या के बाद हुई थी, जब संघ पर पाबन्दी लगायी गयी थी। प्रश्न उठता है कि आखिर गोलवलकर के इस कारावास प्रवास को महिमामंडित करके जनाब भागवत ने क्या संदेश देना चाहा।

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