Guest post by ARVIND KUMAR
अभय दुबे की पुस्तक हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति पर जारी बहस में एक योगदान।
दि प्रिंट में 8 जुलाई 2020 को योगेंद्र यादव का लेख ‘भारतीय सेक्युलरिज्म पर हिन्दी की यह किताब उदारवादियों की पोल खोल सकती थी मगर नज़रअंदाज़ कर दी गई है’, अभय दुबे की पुस्तक को केंद्र मे रखकर लिखा गया है. उन्होनें लिखा: “अगर अभय की किताब के तर्क उन सेकुलर बुद्धिजीवियों के कान तक टहलकर नहीं पहुंचे जिनके लिखत-पढ़त की उन्होंने आलोचना की है तो इसकी वजह को पहचान पाना मुश्किल नहीं. वजह वही है जिसे अभय ने अपनी किताब में रेखांकित किया है कि भारत के अँग्रेज़ीदाँ मध्यवर्ग की सेकुलर-लिबरल विचारधारा और देश के शेष समाज के बीच सोच समझ के धरातल पर एक खाई मौजूद है.” योगेंद्र के लेख के जवाब में, दि प्रिंट में ही 15 जुलाई को राजमोहन गांधी का लेख ‘भारत में धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित नहीं हुई है, इसके पैरोकारों को आरएसएस पर दोष मढ़ना बंद करना होगा’ पढ़कर संतोष और असंतोष दोनों हुआ. संतोष इसलिए कि योगेंद्र के आग्रह पर बुद्धिजीवियों ने बहस को आगे बढ़ाने की पहल तो की. इसी कड़ी में 16 जुलाई 2020 को काफ़िला में छपा आदित्य निगम का लेख ‘डिसकोर्स ऑफ हिन्दू युनीटी इन द स्ट्र्गल अगेन्स्ट द राइट’ को भी देखा जा सकता है.