Guest post by ISHWAR DOST
ममता की संघर्ष गाथा जीत का जश्न बन कर कोलकाता की जिस राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश कर रही है, उसके गलियारों में कुछ वक्त के लिए ही सही, सन्नाटा-सा तैर गया होगा। यादें उभर आई होंगी। चौंतीस साल का साथ पत्थरों तक के लिए कम नहीं होता। वे मूक दीवारें एक इतिहास की गवाह हैं। एक अपराजेय-से लगते लंबे दौर की; जिसने चुनावों के सात समंदर पार किए; अभेद्य लाल दुर्ग के तिलिस्म को खड़ा किया। अब लोकतंत्र में सबसे लंबे शासन का एक अंतर्राष्ट्रीय कीर्तिमान विदा हो गया। विदाई इतनी करुण और क्रूर कि पिछले मुख्यमंत्री विधानसभा की ड्योढ़ी तक नहीं पहुंच पाए। तैंतीस में से पच्चीस मंत्री विधानसभा से बेदखल हो गए। माकपा बंगाल विधानसभा में कांग्रेस से भी छोटी पार्टी हो गई।
2008 से एक के बाद एक पंचायत, संसद, नगरपालिका चुनाव हारने के कारण इस नतीजे में आश्चर्य की कोई बात नहीं बची थी। सड़क चलते राहगीर तक को पता था क्या होने वाला है। मगर व्यापक वाम से जुड़े बुद्धिजीवियों और पार्टी के भीतर के ही बौद्धिकों तक के आलोचनात्मक विश्लेषण माकपा की आंखें नहीं खोल सके। वाम मोर्चे को बंगाल में अपनी अपरिहार्यता के तर्क पर इतना यकीन था कि उसने अपने लिए आश्चर्य और धक्के का सृजन कर लिया। उसके लिए यह ‘अभूतपूर्व उलटफेर’ हो गया। आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब देने की फितरत माकपा को आखिरकार जिस आश्चर्यलोक और रंजो-गम के गढ़हे में ले गई, उससे सावधान रहने की चेतावनी देते हजारों लेख अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉगों में कदम-कदम पर बिछे थे।