Guest post by KAVITA KRISHNAN
[यह लेख The India Forum में अंग्रेज़ी में छपा और उसके हिंदी अनुवाद का एक संक्षिप्त संस्करण सत्य हिंदी में छपा. यहाँ हिंदी में लेख को पूरा (बिना काट-छांट के) पढ़ा जा सकता है. हिंदी अनुवाद के लिए डॉ कविता नंदन सूर्य (सम्पादक, www.debateonline.in) को शुक्रिया.]
बहुध्रुवीयता अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की वामपंथी समझ को दिशा देने वाला कम्पास है. भारत और वैश्विक वामपंथ की सभी धाराओं ने लम्बे समय से साम्राज्यवादी अमेरिकी वर्चस्व वाली ‘एकध्रुवीय’ दुनिया की अवधारणा के खिलाफ ‘बहुध्रुवीय’ विश्व की वकालत की है.
दूसरी ओर, ‘बहुध्रुवीयता’ वैश्विक फासीवाद और तानाशाही की साझी भाषा का मूल आधार बन गई है. यह निरंकुश शासकों के लिए एकजुटता का ऐसा आह्वान है, जो लोकतंत्र पर उनके हमले को साम्राज्यवाद के खिलाफ जंग की शक्ल में पेश करती है. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के साम्राज्यवाद-विरोधी लोकतंत्रीकरण के नाम पर बहुध्रुवीयता को वैश्विक वामपंथ के गुंजायमान समर्थन ने, निरंकुशता का भेस बदलने और उसे वैधता दिलाने के लिए ‘बहुध्रुवीयता’ के इस्तेमाल को असीमित शक्ति प्रदान कर दी है.
राष्ट्र राज्यों के आतंरिक अथवा आपसी राजनैतिक टकरावों पर रुख तय करने लिए कितने आधार उपलब्ध हैं? इस प्रश्न के जवाब में वामपन्थ सिर्फ़ दो विकल्पों – या तो “बहुध्रुवीयता” या “एकध्रुवीयता” – को प्रस्तुत करती है. अगर आपने “बहुध्रुवीयता” को अपना मूल आधार नहीं बनाया तो वामपन्थ मानेगी कि आप ज़रूर अमेरिका/नाटो की दादागिरी वाले “एकध्रुवीयता” के पक्ष में हैं. पर “बहुध्रुवीयता” या “एकध्रुवीयता” के बीच यह कल्पित बाईनरी हमेशा भ्रामक थी. लेकिन आज “बहुध्रुवीयता” बनाम “एकध्रुवीयता” के बीच संघर्ष की मनगढ़ंत कहानी भ्रामक ही नहीं, खतरनाक है क्योंकि इस कहानी में फासीवादी और तानाशाह नेताओं को “बहुध्रुवीयता” बनाए रखने वाले नायकों का पात्र दिया गया है.
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