Guest post by KULDEEP KUMAR
अज्ञेय की प्रसिद्द कविता-पंक्तियाँ हैं:
“दुःख सबको मांजता है/
स्वयं चाहे मुक्ति देना वह न जाने/
किन्तु जिनको मांजता है/
उन्हें यह सीख देता है/
कि सबको मुक्त रखें.”
लेकिन दुःख की इस सीख पर क्या कोई अमल भी करता है? पुराना या आज का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता. बल्कि देखने में तो यह आता है कि दुःख के भी खाने बन जाते हैं. हमें केवल अपना या अपनों का दुःख ही दुःख लगता है. पराई पीर जानने वाले वैष्णव हम नहीं हैं.
जबसे सुना है कि ओसामा बिन लादेन की ह्त्या उसकी दस-बारह साल की बेटी की आँखों के सामने हुई, तभी से विचलित हूँ. मुझे मालूम है कि आज जिस तरह की फिजा बन गयी है, उसमें यह कहना भी जोखिम से खाली नहीं है. मुझे ओसामा बिन लादेन के प्रति सहानुभूति रखने वाला घोषित किया जा सकता है. उसकी बेटी को तो पता भी नहीं होगा कि उसका बाप वाकई में क्या था. क्या उस बच्ची का दुःख इसलिए कम हो जाता है क्योंकि वह ओसामा की बेटी है? हम लोगों ने अपने लिए जिस तरह के तर्क गढ़ लिए हैं, उनके अनुसार तो इस बच्ची के दुःख के बारे में सोचना और बात करना भी आतंकवाद के प्रति सहानुभूति दिखाना होगा.