लालगढ़ मुक्त कराया जा रहा है. पिछले आठ महीने से जिस इलाके में पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार की पुलिस नही घुस पा रही थी , उस पर केन्द्र सरकार के सशस्त्र बल की सहायता से अब बंगाल की पुलिस धीरे–धीरे कब्जा कर रही है. केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा ज़रूर था कि यह कोई युद्ध नहीं हो रहा है क्योंकि कोई भी राज्य अपनी ही जनता से युद्ध नहीं करता लेकिन लालगढ़ में अभी चल रहे सैन्य अभियान की रिपोर्ट दे रहे पत्रकार लगातार यह बता रहे है कि वहां स्थिति किसी युद्ध क्षेत्र से कम नहीं है. गांव के गांव वीरान हो गए हैं.हजारों की तादाद में आदिवासी शरणार्थी शिविरों में पनाह ले रहे हैं. ध्यान देने की बात है कि ये शिविर भी राज्य सरकार नहीं चला रही है. पहले दो बडे शिविर तृणमूल कांग्रेस के द्वारा स्थापित किए गए. लालगढ़ की जनता के लिए शिविर स्थापित करने के बारे में बंगाल की सरकार अगर नहीं सोच पाई तो ताज्जुब नहीं क्योंकि उसके हिसाब से वह उसकी जनता नहीं है, वह तो शत्रु पक्ष की जनता है!दूसरे शब्दों में वह गलत जनता है. सही जनता वह है जो मार्क्सवादियों के साथ है.
लालगढ़ में पिछले आठ महीने से एक विलक्षण जन आंदोलन चल रहा था. बुद्धदेव भट्टाचार्य के काफिले पर हमले के बाद पुलिस ने जिस तरह लालगढ़ के आदिवासियों को प्रताड़ित किया, उसने साठ साल से भी ज़्यादा से असह्य गरीबी और अमानुषिक परिस्थितियों को झेल रही आदिवासी जनता के भीतर सुलग रही असंतोष की आग को भड़का दिया. लेकिन ध्यान दें, इन पिछड़े आदिवासियों ने कितनी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया! उन्होंने ‘पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण समिति’ बनाई और लगभग हर संसदीय राजनीतिक दल से सहयोग मांगा. वह उन्हें मिला नहीं. लालगढ़ ने कहा , यहां हमारा अपमान करने वाली पुलिस और हमारी उपेक्षा करने वाले प्रशासन का स्वागत नहीं है. पुलिस और प्रशासन की उनके जीवन में अप्रासंगिकता का आलम यह है कि राज्य विहीन आठ महीनों में इस समिति ने ट्य़ूबवेल लगवाया जो बत्तीस साल के जनपक्षी वाम शासन में नहीं हो सका था, स्कूल चलाया, सड़क बनाई जो बत्तीस साल से नहीं थी और इस बीच अपराध की किसी घटना की कोई खबर नहीं मिली. एक तरह से यह जनता का स्वायत्त शासन था.
संसदीय दलों के सहयोग देने से इनकार की स्थिति में लालगढ़ में पहले से सक्रिय माओवादियों को अपना क्षेत्र विस्तार करने का अवसर दिया. नांदीग्राम में विरोधी इलाके को वापस कब्जे में लेने के सी.पी.एम. के अभियान की याद ने अगर समिति को माओवादियों का समर्थन स्वीकार करने की ओर ढकेला तो क्या इसे आश्चर्यजनक माना जाना चाहिए? यह भी ध्यान रहे कि आठ महीनों में माओवादियों की ओर से भी कोई हिंसक अभियान नहीं चलाया जा सका था. बल्कि अगर आप उनके बयान देखें तो वे किसी क्रांतिकारी मुक्ति-अभियान की बात नहीं कर रहे थे. वे तो यह कह रहे थे कि वाम मोर्चे की सरकार ने किसी केंद्रीय विकास योजना को भी चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
हाल में अपने अबाधित बत्तीस साल के शासन के गौरव का गान करते हुए वाम मोर्चे ने राष्ट्रीय अखबारों में जो रंगीन विज्ञापन दिए हैं, वे गरीबी और अपमान के तीन दशकों की कहानी को छिपाने में असफल रहे हैं. वाम दलों की दिलचस्पी जनता की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाने में नहीं रही, सिर्फ अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार में और जनता को आज्ञाकारी बनाने में ही उसकी ताकत लगी. किसी भी असहमति को कुचल देने और किसी विरोधी शक्ति को न पनपने देने के लिए चौकन्नी सी.पी.एम. की क्रूरता की कथा उसके सत्ता में आते ही सुन्दरबन के मारिचझापी हत्याकांड से शुरू हो जाती है. सिंगुर और नान्दीग्राम तक आते-आते क्रूरता और दमन के इस शासन को चुपचाप मानने से जनता ने इंकार करना शुरू कर दिया. जनता के शासन के विरुद्ध जनता के इस प्रतिवाद को वामदलों और उनके बुद्धिजीवियों ने विचारधारात्मक पाप ठहराया. आखिर जो शासन मार्क्सवादी विचारों पर आधारित है, जनता को उसके विरुद्ध जाने का अधिकार ही कैसे दिया जा सकता है!
लालगढ़ से आने वाली तस्वीरें देखिए: ये जीवित नरकंकाल हैं, भूख की निरंतरता में ज़िन्दगी को दांतों से पकडे हुए! इनके-जैसे मौत की कगार पर झूल रहे लोगों के लिए जो सहारा खोजा गया, यानी, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना, उसका कार्ड भी पार्टी के कब्जे में था. यह तब पता चला जब चुनाव नतीजों के बाद सी.पी.एम के प्रति नफरत से भरी जनता ने उसके दफ्तरों और नेताओं के घरों पर हमला शुरू कर दिया. इलाका दखल की बंगाल राजनीति के अनुसरण में खेजुरी में तृणमूल कांग्रेस ने और लालगढ़ में माओवादियों ने इस जन असंतोष की आड़ में सी.पी.एम. के दफ्तरों को जलाना, उसके सदस्यों को इलाके से बाहर करना, लूटना और उनकी हत्या करना शुरू कर दिया. लालगढ में आदिवासियों के नए आन्दोलनात्मक प्रयोग को इस तरह माओवादियों ने विकृत कर दिया. आगजनी और हत्याओं ने ढहती हुई राज्य सरकार को सहारा दे दिया. हमारे मित्र कुमार राणा ने ठीक ही लिखा कि जब तक यह आंदोलन बहिष्कार की तकनीक पर चल रहा था, तब तक राज्य के पास उसे भंग करने का नैतिक अधिकार नहीं था. जैसे ही खुलेआम पीठ पर ए.के.47 लटकाकर माओवादी नेता किशनजी ने प्रेस को संबोधित किया, राज्य ने इस प्रतीक का अर्थ समझ लिया. इसके बाद इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं थी कि केन्द्र सरकार खामोश बैठे. एक तरह से माओवादियों ने एक लोकप्रिय जनान्दोलन की हत्या करने का इंतजाम कर दिया.
लालगढ पर राज्य का फिर से कब्जा हो जाएगा. फिर से सी.पी.एम. के दफ्तरों पर उसके झंडे टंग गए हैं. पर क्या सी. पी.एम. जनता के अंदर उसके प्रति पल रही घृणा की आग से बच पाएगी? क्या यह सच नहीं है कि सी.पी.एम. ने बंगाल पर शासन करने का अधिकार खो दिया है और अगर उसे लोकतांत्रिक मूल्यों का ज़रा भी लिहाज है तो कायदे से उसे शासन छोड देना चाहिए. सी.पी.एम. से यह उम्मीद करना व्यर्थ है क्योकि सी.पी.एम. संसदीय राजनीति को सिर्फ एक रणनीति मानती है, उसका लक्ष्य है एक पार्टी की हुकूमत. तीस साल में उसने सोचा कि इस हुकूमत की जड़ें पक्की हो गई हैं. यही सोवियत संघ और पूर्वी योरोप की पार्टियों ने सोचा था. ऐतिहासिक भौतिकवाद की दुहाई देने वाले जब इस गफलत में पड़ जाते हैं कि वे इतिहास के नियामक हैं तो वह उनसे निर्मम बदला लेता है. सी.पी.एम. की यह इतिहास से साक्षात्कार की घडी है.
यदि आप हिंदी के font का size बड़ा करेंगे तो पड़ने में आसानी होगी ।
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आखिर कार पड़ ही लिया। इतना बेहतरीन लिखा है कि font size को नज़रंदाज़ कर के मैं पूरा पड़ गया ।
आपके विचारों के साथ मैं पूरी तरह सहमत हूँ । मै कई बार कह चुका हूँ कि जिस तरह की राजनीती सी.पी.एम. करती आ रही है बंगाल में वह कहीं से भी संतोश्जनक नहीं है। और तो और जिन सिधान्तों कि बात सी.पी.एम. करती है उन्हे मार्क्स्वादी कहना कार्ल मार्क्स का अपमान है।
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This article sheds important sidelight on the political obligation of the author. What it also shows is the author’s lack of knowledge of ground reality.The blissful ignorance which lies at the core of this article shows to ordinary men like us how academicians could write their histories and claim it as ‘our’ history.
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the CPM is fully exposed – its sectarian politics, single-party rule and building up a coterie of power. But regrettably some people seem to be selectively blind towards the political changes in West bengal. In the past 20years or so, the old feudal ruling class of rural bengal has almost taken over the reign of the CPM – or CPM happily allowed this change; those who belonged to the congress comfortably switched their loyalty just to keep their authority intact. In the Jhargram region – for that matter in all the Paschimanchal (West mediniputr, Bankura, Puruliya) the Utkali Brahmins have been continuing as the ruling class (except fo4r a brief interruption between 1978-82, when there was an emegence of working class leadership). What is more interesting is that this upper crust appers to be quicker to switch its loyalty towards the Trinamoool congress during and after the Loksabha election. In a word the power equation has not changed much. The onslaught on the CPM – carnages, driving out the leaders from areas etc, which apparently the signs of peoples outrage against the CPM has actually been masterminded by the yesterday’s CPMs – like in Khejuri.
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यह सच है कि लालगढ में बहुत कुछ गडबड था िकंतु उसका समाधान एक ही है कि माकपा से प्रशासन अलग किया जाए,पहलीबार बुद्धदेव ने यह किया है कि प्रशासन के काम से माकपा कैडरों को दूर रखा है,यह नंदीग्राम का सबक है। बुनियादी समस्या यह है कि क्या डंडे से समस्या का हल होगा जी नहीं राज्य प्रशासन को भूलो माफ करो विकास करो का रास्ता अपनाना होगा। लालगढ प्रसंग में प्रशासन यदि छत्रधर महतो या अन्य स्थानीय लोगों को पकडता है तो यह आत्मघाती कदम होगा। लालगढ को सेवा चाहिए,धरपकड नहीं। दूसरा सबक यह लेना चाहिए कि माकपा के जरिए जनता का दिल नहीं जीता जा सकता, जनता के साथ सीधे संवाद का प्रशासन ने जो रास्ता अपनाया है वह यदि पहले अपनाया गया होता तो लालगढ की घटना नहीं होती। बुद्धदेव प्रशासन की मुश्किल यह है कि उसने अभी तक माकपा के अलावा किसी की बात नहीं सुनी। राज्य प्रशासन को माकपा के अलावा राजनीितक दलों की बातों पर ध्यान देना चाहिए। पश्चिम बंगाल में पार्टी तंत्र के मातहत सारी प्रशासनिक मशीनरी कर देने के कारण माकपा की यह दुर्दशा हो रही है। लालगढ अथवा ऐसी ही अन्य घटनाओं के बारे में देश में वाम बुद्धिजीवियों की अघोषित सेंसरशिप जारी है। वाम बुद्धिजीवियों को यह सोचना चाहिए राज्य प्रशासन की खुली आलोचना से प्रशासन को मदद मिलती है या नुकसान होता है। माकपा को राजनीतिक दल के नाते आलोचना सुनने और और आलोचकों का सम्मान करने का लोकतांत्रिक मूल्य सीखना होगा, वरना एक लालगढ से निकलेंगे और दूसरे किसी और ऐसे ही झंझट में फंस सकते हैं।
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