अरुंधति का निर्वासन: वैभव सिंह

Guest post by VAIBHAV SINGH

अरुंधति राय के खिलाफ अपशब्दों की, गाली-गलौच की, आरोपों की हिंसा ने हमें एक बार फिर यह प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया है – क्या हमने सचमुच अपने देश में सभ्यता व सहिष्णुता के महान मूल्यों की रक्षा करने के दायित्व से छुटकारा पा लिया है? कहीं हम पूरे राष्ट्र को ‘डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसआर्डर’ (खंडित व्यक्तित्व मनोरोग) का शिकार बनते तो नहीं देख रहे हैं जिसमें किसी व्यक्ति नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के चरित्र में परस्पर विरोधी मूल्य इस प्रकार विषैले कांटों की तरह उग आते हैं कि राष्ट्र का पूरा व्यक्तित्व चरमराने या दिग्भ्रमित होने लगता है! एक सभ्य-लोकतांत्रिक देश के रूप में आत्मछवि और हिंसक बाहरी आचरण में जितना गहरा भेद पैदा हो जाता है, वह राष्ट्र की आत्मा मार देता है। जिसने भी स्वयं में अनूठी लेखिका को जीप के बोनट से बांधने की कल्पना की, उसे संभवतः अंदाजा भी नहीं था कि वह केवल एक वक्तव्य नहीं दे रहा है, बल्कि मनुष्यता के सभी संभव परिकल्पनाओं के विरुद्ध अपराध कर रहा है। ऐसी कल्पना में बीमार विचारशून्यता ही नहीं बल्कि भयानक सड़ांध, विकृति और मनोरोग की झलक मिलती है। परेश रावल के अरुंधति के विरोध में लिखे ट्वीट से उल्लसित सोशल मीडिया के एक समूह ने तो अरुंधति राय की सामूहिक ढंग से हत्या कर उनके शव को पाकिस्तान में दफनाने की वकालत भी कर डाली।

अरुंधति राय बतौर लेखिका भारतीय राज व्यवस्था के लिए उपयुक्त या सुविधाजनक उपस्थिति कभी नहीं रही हैं, पर सौभाग्य से वे अपने पूरे प्रतिभाजन्य गौरव व पवित्र द्युति के साथ हमारे संग हैं। उनके लिए सार्वजनिक उत्पीड़न कोई नई बात नहीं है और संभवतः वे अंग्रेजी की इकलौती लेखक हैं जिन्हें जेल भी जाना पड़ा है और जिन पर देशद्रोह के आरोप भी लगे। भारत का अंग्रेजीभाषी लेखक प्रायः जिस उच्चवर्गीय मनःस्थिति में रहकर चुने हुए आभिजात्य व अलगाव को जीता है, अरुंधति इसके विपरीत हमेशा ही उस आभिजात्य व अलगाव को नष्ट करने या वैचारिक संवाद की चेष्टा करने वाली लेखिका रही हैं। उनके नए उपन्यास के प्रकाशन की घोषणा के मध्य यह तकलीफदेह तथ्य सामने आया है कि उन्हें पिछले एक साल से आत्मनिर्वासन की दशा में लंदन के होटल में रहना पड़ रहा है। देश में बढ़ती असहिष्णुता के कारण अचानक यह निर्णय लेना पड़ा कि अब इस देश से उन्हें कुछ समय के लिए दूर चले जाना चाहिए जहां वे अपना आगामी उपन्यास पूरा कर सकें। उन्हें उपन्यास लेखन जैसा अहिंसक रचनाकर्म करने के लिए भी देश में वैसी सुरक्षा व शांति नहीं मिली जिसकी वे स्वाभाविक रूप से हकदार हैं।

करीब बारह वर्ष पूर्व तुर्की लेखक ओरहान पामुक को अपने ही देश में कई किस्म की मुकदमेबाजियों, पज्ञकारों की तनी हुई भृकुटियों व कथित राष्ट्रवादियों के हाथों अपमानित होने के कारण तुर्की को छोड़ना पड़ा था और तब उन्होंने कहा था कि लेखक का काम सभ्यता की ‘अनदेखी पीड़ाओं’ (Hidden Pain) को व्यक्त करना है और मैं सरकार के भय से इस दायित्व से खुद को मुक्त नहीं कर सकता। क्या आजाद भारत की 21वीं सदी का इतिहास जब लिखा जाएगा तो उसमें यह भी नहीं लिखा जाएगा कि एक लेखिका को अपना अधूरा उपन्यास पूरा करने के लिए राजनीतिक हिंसा की आशंका में देश को छोड़कर जाना पड़ा? उसे भारत में अपने घर में रहने में डर लगने लगा और लंदन के होटल के कमरे में उस शांति को तलाश करना पड़ा जो उसके उपन्यास के लिए अनिवार्य थी। उपन्यास एक समानांतर संसार का सृजन है जहां लेखक अपने पात्रों के साथ अकेला रहना चाहता हैं। उन्हें जीवन में चोट खाते, संघर्ष करते, आगे बढ़ते, टूटते दिखाना चाहते हैं। सृजन की इस व्यथा को लेखक अपने अकेलेपन में सहता है, पर क्या हम सचमुच इतने हिंसक समाज हैं कि एक लेखक को उसका एकांत भी न दे सकें। हम क्या इतने परिपक्व समाज के रूप में विकसित नहीं हो सके हैं कि लेखक, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी आदि के निजीपन का सम्मान न कर सकें! यह सब कुछ निराश करने वाली सचाई से साक्षात्कार जैसा है।

हमने अपने मानसिक आलस्य और राष्ट्रवाद को गंभीरता से न लेने के कारण उसे एक विराट षडयंत्र का शिकार हो जाने दिया है। अब हर तरफ सबसे प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और जातिवादी किस्म के नफरत फैलाने वाले विचार राष्ट्रवाद के सुनहले आवरण में सड़कों पर उतर आए हैं। ऐसे ही रास्ते से भटके राष्ट्रवाद को रवींद्रनाथ टैगोर ने कभी ‘अंतहीन बुलफाइटिंग’ का नाम दिया था जिसमें हम निरंतर राष्ट्र के नाम पर शत्रुओं को गढ़ते हैं और उनसे बेवकूफाना कुश्ती करते रहते हैं। हमारे मस्तिष्क शोरशराबे से भरे अखाड़ों में बदल जाते हैं जहां हम लगातार किसी को कूटने-पीटने और धुनने का काम करते हैं। इसमें किसी खास ऐतिहसिक चरण में गुंडो, समाजविरोधी तत्वों व ठगों को भी छद्म राष्ट्रवादी होने की छूट मिल जाती है। इसमें राष्ट्र के नाम पर किसे निकाला, प्रताड़ित किया या अपमानित किया जाएगा, इसके बहुत क्रूर मानदंड बन जाते हैं। कुटुंब भाव के स्थान पर झगड़ालू समूहों को राष्ट्रवाद में ज्यादा स्थान मिलने लगता है।

पर लेखक की कल्पना किसी प्रारब्ध की तरह शायद ऐसे राष्ट्र से टकराने के लिए विवश होती है। अरुंधति राय का पूरा फिक्शन भी किसी समावेशी संसार की कल्पना पर टिका है। उनका पहला उपन्यास टूटते-बिखरते, त्रासद, कारुणिक रिश्तों की कहानी सुनाता है जिसके चरित्र ‘Love Laws’ (किससे प्रेम करें, किससे नहीं) का उल्लंघन करते हैं। उसमें भी समाज के विभिन्न वर्गों व समूहों को जोड़ने का स्वप्न है जो टेढी-मेढ़ी, बेढंगी किस्म की दुनिया में खंडित होता रहता है। जिस दलित पात्र वेलुथा की पुलिस कैद में हत्या होती है, वह समाज में दलितों के निष्कासन व उत्पीड़न का रूपक है। इस समाज में लाखों लोग हैं जिन्हें लगता है कि समाज में उनके लिए सामान्य जीवन जीने लायक अनुमति नहीं है। उनमें परेशान बच्चे, निम्नजातियां, तलाकशुका महिलाएं, प्रेमी सब हैं और पहला उपन्यास उनकी ही यातना का वर्णन करता है। उनके शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ का घोषित कथानक भी समाज के सबसे बदनाम, उत्पीड़ित व बहिष्कृत लोगों जिनमें हिजड़े, अनाथ, समलैंगिक लोगों को समाज में स्थान दिलाने का कथानक है। यानी अरुंधति राय का विजन निरंतर  में एक ढर्रे में ढले समाज में मानवीय मूल्यों की खोज है और उस खोज में ‘एनक्लूसिव समाज’ का स्वप्न शामिल है। यही स्वप्न उनके कथा-संसार की नियंत्रण रेखाओं को पारकर उनके वैचारिक लेखन के इलाकों में चला आता है जहां कश्मीरियों, आदिवासियों, बड़े बांध के शिकार लोगों, बहुसंख्यकों की हिंसा में फंसे लोगों के प्रति न्याय की मांग की गई है। जब देश में सब कुछ विराट, बड़ा, पूंजीकेंद्रित या सर्वव्यापी बनाया जा रहा है तो वे बहुत सी छोटी आवाजों, साधारण जन की यातना और उनके छोटे संसार पर ध्यान देना चाहती है। ऐसा ‘न्याय का सिद्धांत’ है जिसमें कश्मीरी मुस्लिमों के साथ कश्मीरी पंडितों के हितों की भी गहरी चिंता है। राष्ट्र की धारणा में अगर धर्म, जाति, क्षेत्र, लिंग आदि भेदभावों से ऊपर उठकर सभी निवासियों के प्रति न्याय की उदार धारणा का स्थान नहीं है तो वह विसंगति की शिकार हो जाती है। अरुंधति राय के खिलाफ सांप्रदायिक-सवर्ण समाज की आपत्ति यह है कि उन्होंने कश्मीर और माओवाद के मसले पर भारतीय राज्य की जो नीति व समझदारी है, उसके विरुद्ध बोला और लिखा है। वैसे तो यह संवैधानिक दृष्टि से पूर्णतया सही है कि किसी नागरिक की विभिन्न मसलों पर राय भारतीय राज्य की समझ से न केवल भिन्न हो बल्कि पूर्णतया विपरीत भी हो। भारतीय राज्य पर केवल अपने समर्थकों नहीं बल्कि अपने आलोचकों को भी सुरक्षा देने की जिम्मेदारी है। आधुनिक राज्य को देश के सभी प्रबुद्ध नागरिकों पर अपनी सोच-समझ को थोपने की इच्छा पर नियंत्रण लगाना ही पड़ता है। सरकार कह रही है कि उसे ‘गाड आफ स्माल थिंग्स’ की लेखिका या श्रेष्ठ निबंध लिखने वाली अरुंधति राय से नफरत नहीं है, बल्कि उस अरुंधति राय से उसकी जायज शिकायतें हैं जो कश्मीर को भारत का अविभाज्य हिस्सा नहीं मानती है। पर अरुंधति का पक्ष उतना विवादास्पद नहीं प्रतीत होता, जितना इस भावोन्मादी माहौल में बना दिया गया है। वे इतना ही कहती हैं कि भारत सरकार खुद वैधानिक रूप से कश्मीर को अविभाज्य हिस्सा नहीं मानती क्योंकि वह अभी भी नेहरू के समय में लागू धारा 370 से बंधी है। वर्तमान सरकार को सत्ता में आए तीन साल हो चुके हैं तो भी वह धारा 370 को रद्द नहीं कर सकी है, न उसकी कोई ऐसी मंशा है। वह इसलिए भी कि जो प्रावधान उसके अंतर्गत किए गए थे, उसने कश्मीर को भारत से अलग करने नहीं बल्कि जोड़ने में ही मदद की है। लेकिन भारत सरकार को कश्मीरियों के मानवाधिकार, स्वायत्तता व संवाद की जरूरत की याद दिलाना अजीब ढंग से देशद्रोह हो गया है। यह आशंका है कि कुछ समय बाद संविधान की रक्षा करने का आह्वान भी किसी को अपराधी घोषित करने के लिए पर्याप्त कारण न मान लिया जाए। लेखक और राज्य का संबंध हमेशा उस व्यवस्था में तनाव का शिकार हो जाता है जहां राज्य किसी लेखक की कल्पना पर हावी होने का प्रयास करता है। सरकार के पास भारी-भरकम संसाधन होते हैं, फिर भी वह किसी लेखकीय कल्पना, उसके यूटोपिया और फैंटेसी से घबरा जाती है।

इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे ने ‘नेशनलाइजिंग द नेशन’ की बात कही है जिसमें राष्ट्र का लगातार राष्ट्रीयकरण किया जाता है ताकि राष्ट्र का एक सरकारी संस्करण तैयार हो सके। यह सरकारी संस्करण राष्ट्र के बारे में किसी अन्य उदार कल्पना के उभार को रोकने का काम भी करता है। पर अरुंधति राय के विचारपरक लेखन में प्रायः ‘न्यू इमेजिनेशन’, ‘पालिटिकल इमेजिनेशन’, ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ आदि शब्द प्रयोग किए जाते हैं। सरकार को उस लेखक से कम भय लगता है जो कल्पनाशक्ति का प्रयोग केवल किस्सा-कहानी या कविता लिखने में करते हैं। वे कल्पना का प्रयोग केवल अपनी चुनी हुई साहित्यिक विधा को समृद्ध करने में करते हैं, जोकि गलत नहीं है। पर लेखक जब अपनी कल्पना का प्रयोग समाज, राजनीति, इतिहास या वर्चस्व के तरीकों को समझने के लिए करने लगता है तो वह खतरा बन जाता है। ऐसा लगता है जैसे कोई खेल में शामिल होने के स्थान पर उसमें होने वाली बेईमानी की रिपोर्ट लिखने बैठ गया है। ऐसा लेखक लोगों की कल्पना को जगा सकता है और जाग्रत कल्पना वाला समाज हर राज्य व उसे संचालित करने वाली सरकार के लिए खतरा होता है। ऐसा लेखक आरोपित, प्रायोजित या पारंपरिक यथार्थ बोध की पूरी व्यवस्था को हिला सकता है। अरुंधति राय के व्यक्तित्व में लेखक, विचारक, एक्टिविस्ट का जो समन्वय है, वह भी उस भारतीय राज्य के लिए तकलीफदेह हो चुका है जो मानता है कि लेखकों का काम सत्ता पर सवाल खड़े करना नहीं है।

इस समय हर वह लेखक, जो एक्टिविस्ट भी है, सरकार के लिए संदिग्ध है। पिछले कुछ दशकों से लगातार लेखक की नई परिभाषा ठीक उसी तरह से गढ़ी जा रही है, जैसे मीडियाकर्मी की। लेखक का मुख्य दायित्व लोगों की निजी यातना, दर्द, त्रासदी को व्यक्त करना भी नहीं बल्कि उसका काम स्वयं को अगड़म-बगड़म समारोहों के बीच खुद को बनाए रखना तथा पुरस्कारों की चूहादौड़ में खुद को आगे दिखाना है। या फिर वह दृश्यजगत का हिस्सा बने रहने में मेहनत करे, न कि आम जनों की दृष्टि में खुद को जेन्युइन लेखक प्रमाणित करने के रूप में। पर अरुंधति राय और उनके लेखन से यह आशा बनी रहती है कि लेखक की समस्त संकीर्ण परिभाषाएं बोगस साबित हो जाएंगी। उन्होंने अपनी विनोदी वृत्ति का परिचय देते हुए स्वयं को ‘ट्रबलसम सिटिजन’ (तकलीफ़देह नागरिक) के रूप में देखा है जो समाज के निषिद्ध व दुर्गम सीमांतों पर जाकर लोगों की यातना को दर्ज करने का प्रयास करता हैं। अरुंधति का निर्वासन शायद उनके पाठकों को उनके ज्यादा निकट ला देगा और इस बात से उन सत्ताओं को डरना चाहिए जो उनके निर्वासन में अपने पशुबल की सफलता देखना चाहती हैं।

वैभव सिंह अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापक हैं. vaibhavjnu@gmail.com पर उनसे समपर्क  किया जा सकता  है.

5 thoughts on “अरुंधति का निर्वासन: वैभव सिंह”

  1. After ensuring so called voluntary deportation and subsequent death of a great artist -as Husain, in alien land, the Hinduttva brigade is happy in its victory over” intellectuals and secularists.”
    In the process India has lost its culture and humanity its humaneness.But will we be able to become Indians and humane again , sometimes in future? Or have we lost our innocence for ever in this obscurantist, retrograde and backward-looking, hate mongers’ of SANGHI Variety?

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  2. Though, I agree with the writer at large, but its ironical that Ms. A. Roy is quite a bit in news since the time her media managers are promoting her soon to released book. Will we ask this anti-capitalist writer about the value of her contract with the publishers of the forthcoming book.

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    1. I’m an admirer of Roy having read many of her books. I do not know if an artist can remain completely anti-capitalist, anti-establishment, anti-corporation even though they desist and stand against the idea of rich getting richer. Although one could put aside a part of the money to constructive cause, they still depend to some extent on the very capitalist system that they abhor.

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  3. A humble request to the Kafila gods.

    Since Kafila has a massive (and enthusiastic) following from readers outside the dominant “Hindi belt” it may want to consider an English translation of the above articles which are timely, important and provides so much food for thought.

    As an example, Wire.in translates their Hindi articles. It may be meaningful to see if a similar initiative works out here. If it is too much of an expense an option may perhaps be to pool resources with fellow minded organizations (without compromising the proud individuality and independent stance of Kafila). Also to commit a blasphemy, is it worthwhile to explore if readers are willing to contribute voluntarily?

    Apart from this a salute and best wishes for all the good work.

    regards

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