कितनी आज़ाद है ग्रामीण पत्रकारों की कलम? : पी. साइनाथ

Guest Post by P Sainath

(बनारस के पराड़कर स्मृति सभागार में 29 नवंबर, 2019 को “पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति” CAAJ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिया गया व्याख्यान)

मैं पांच भाषाओं में बराबर खराब बोल सकता हूं। यहां मैं मुंबइया हिंदी में बोलूंगा। आप लोगों ने सम्मान दिया, किताब रिलीज करने को बुलाया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है क्योंकि ग्रामीण भारत के बारे में बहुत कम छपता है। इस किताब में दस राज्यों से रिपोर्टें हैं। ये वे दस राज्य हैं जहां देश की आधी आबादी, करीब साठ−सत्तर करोड़ लोग रहते हैं। इसलिए ये बहुत अहम है। इसकी अहमियत समझने के लिए आप ये आंकड़े देखिए।

हिंदुस्तान के नेशनल अखबारों में ग्रामीण खबरें कितना छपती हैं, इसके लिए इनके फ्रंट पेज लीजिए। दिल्ली में एक संस्था है सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़। एन. भास्कर राव की। वो तीस साल से रिसर्च कर रहे हैं मीडिया के ऊपर। अभी उनका आपरेशन कमती हो रहा है क्योंकि मीडिया में रिसर्च को लेकर इंटरेस्ट नहीं रह गया है। अब मीडिया वाले मार्केट रिसर्च एजेंसी के पास जाते हैं, इनके पास नहीं जाते। सीएमएस की स्टडी में ग्रामीण खबरों पर एक रिसर्च निकला था। ये नेशनल डेली का पांच साल का डेटा है। नेशनल डेली का मतलब वे अखबार जिनका एक एडिशन दिल्ली से निकलता हो। हो सकता है कि एक ही एडिशन निकलता हो कुल दिल्ली से, लेकिन वो भी नेशनल डेली है। बाकी सब एंटी-नेशनल डेली हैं। तो नेशनल डेली के फ्रंट पेज पर पांच साल का एवरेज ग्रामीण खबर का स्पेस है 0.67 परसेंट। ग्रामीण इलाके में जनसंख्या क्या है? 69 परसेंट, 2011 के सेंसस में। 69 परसेंट आबादी को आप देते हैं 0.67 परसेंट जगह। अगर जनसंख्या के 69 परसेंट को आप 0.67 परसेंट जगह अखबार के फ्रंट पेज पर देते हैं तो बाकी पेज किस पर जाते हैं? फ्रंट पेज का 67 परसेंट नर्इ दिल्ली को जाता है। और यह 0.67 परसेंट भी एग्ज़ैग्जरेशन (अतिरेक) है। ऐसा क्यों दिखा रहा है? क्योंकि पांच साल का यह एवरेज है। इसमें एक साल चुनाव का साल है। अगर चुनाव का साल निकाल दें, तो डेटा 0.20 परसेंट आता है।

एक पत्रकार जो काम करता है, बिना इनसेंटिव के करता है। अपने आदर्शवाद के चलते करता है। आपको ग्रामीण पत्रकारिता से कोर्इ प्रमोशन नहीं मिलने वाला है। कोर्इ रिकग्नीशन नहीं मिलने वाला है। मैंने जब “एवरीवन लव्ज़ अ गुड ड्रॉट” किताब लिखी, तब ज़माना बदल रहा था। तब मुझे थोड़ा रिकग्नीशन मिला। इस किताब का नाम मैंने नहीं दिया। एक छोटे से किसान ने मुझे ये नाम दिया था। वो मेरे साथ गया था पलामू, डालटनगंज। लातेहार में हम पहुंचे एक दिन। मैंने सोचा सर्किल आफिस में जाएंगे। किसान का नाम था रामलखन। वो मेरे साथ गया। सरकारी आफिस में एक आदमी नहीं बैठा था। सर्किल अफसर नहीं, बीडीओ नहीं, कुछ नहीं था। वहां बीडीओ को बीटीडीओ कहते हैं। ब्लॉक द डेलपमेंट अफसर। मैंने पूछा− रामलखन, ये लोग कहां गया यार। उसने बोला, सब तीसरी फसल लेने के लिए गया है। आइ फेल्ट अ लिटिल स्टुपिड… ये तीसरी फसल क्या चीज़ है। मैंने बोला− मैं जानता हूं रबी, खरीफ़। डेढ़ सौ साल पहले एक तीसरी फसल थी जायद। ये तीसरी फसल क्या है मैं नहीं समझ पा रहा। उसने बोला− ये तीसरी फसल है ड्रॉट रिलीफ (सूखा राहत)। उसने कहा− यहां बड़े लोग इस तीसरी फसल को बहुत पसंद करते हैं। ये लोग अकाल को बहुत पसंद करते हैं। इस तरह मेरी किताब का नाम पड़ा।

( Read the full text here : https://www.mediavigil.com/event/how-free-are-rural-journalists-sainath-lecture-in-varanasi/)

 

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