मुकुल सिन्हा

यह विचित्र और विडम्बनापूर्ण संयोग है कि जब सारे टेलीविज़न चैनल नरेंद्र मोदी नीत राजनीति के भारतीय केंद्रीय सत्ता में आने की खबर दे रहे थे, उसी वक्त मुकुल सिन्हा के हम सबसे अलग होने समाचार नासिरुद्दीन ने फोन से दिया. मुकुल कैंसर से जीत न पाए. उनकी मौत की खबर से ज़्यादा सदमा इस बात से पहुँचा कि हमें उनके हस्पताल में होने की खबर ही न थी. हमें इसका इल्म न था कि नरेंद्र मोदी के मोहजाल को, जो करोड़ों,अरबों रुपयों और अखबारों और टेलीविज़न के विशालकाय तंत्र के ज़रिए बुना जा रहा था, छिन्न-भिन्न करने के लिए प्रेमचंद के सूरदास की तरह ही गुजरात का सच बताने का अभियान जो शख्स चला रहा था, उसे मालूम था कि वह अपनी ज़िंदगी के किनारे पर खड़ा था.

धर्मनिरपेक्ष कामकाजीपन का रिश्ता ही हम सबका एक दूसरे से है, मानवीय स्नेह की ऊष्मा से रिक्त!यह एक उपयोगितावादी सम्बन्ध है जिसमें हम एक दूसरे से धर्मनिरपेक्ष, राजनीतिक चिंताओं से ही मिलते-जुलते और बातचीत करते हैं.अपने मित्रों की जिंदगियों और उनकी जाती फिक्रों क साझेदारी हम शायद ही करते हैं.मुझे खुद पर शर्म आई कि मैं मुकुल के कैंसर के बारे में नहीं जानता था, गुस्सा उन दोस्तों पर आया जो इसे जानते थे पर इस दौरान कभी इसे बात करने लायक नहीं समझा. हम अपनी ही बिरादरी नहीं बना पाए हैं फिर हम एक बड़ी इंसानी बिरादरी बनाने का दावा क्योंकर करते हैं!

मुकुल से पहली मुलाकात कई और लोगों की तरह ही 2002 के गुजरात के कत्लोगारत के बीच हुई थी. क़त्ल हुए थे,घर-बस्तियां तबाह कर दी गई थीं.उसके पहले साबरमती एक्सप्रेस की एक बोगी में आग लगी थी जिसमें कई लोग मारे गए थे जिनकी मौत के बदले के नाम पर मुसलामानों का कत्ले आम किया गया था. गुजरात के मुख्यमंत्री ने ट्रेन में आगजनी को ही मुसलमानों की हत्याओं के लिए जिम्मेवार ठहराया था.उन्हें राजधर्म निभाने की सलाह देने वाले तब देश के प्रधानमंत्री ने भी पूछा था कि आखिर आग किसने लगाई!

आग किसने लगाई? यह सवाल कि समझदार हिन्दुओं के दिमाग भी आज तक में घूमता रहा है,मानो इसका उत्तर किसी तरह उस कत्लोगारत की किसी तरह व्याख्या कर देगा जो उसके बहाने विश्व हिंदू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार के सक्रिय सहयोग से आयोजित किया था. फिर भी आग के रहस्य पर से पर्दा उठाना ज़रूरी था.

मुकुल सिन्हा के भौतिकशास्त्र या विज्ञान का ज्ञान काम आया.उन्होंने साबरमती एक्सप्रेस की छः नंबर बोगी में लगी इस आग का विश्लेषण वैज्ञानिक तरीके से किया. उनका विश्लेषण यह साफ़ कर देता है कि आग बाहर से लगाना असंभव था.जिसने भी मुकुल की वह प्रस्तुति देखी है वह उनके उस परिश्रम से प्रभावित न हो जो उन्होंने उसमें किया, यह संभव ही नहीं.

मुकुल सिन्हा भौतिक शास्त्री थे. आई.आई.टी.,कानपुर से शिक्षा पूरी करके अपने शहर बिलासपुर में पढ़ाने लगे और उसके बाद अहमदाबाद में फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी में वैज्ञानिक के तौर पर काम करने आ गए.

1973 में फिजिकल साइंस लेबोरेटरी ने मुकुल समेत 133 लोगों की छंटनी कर दी. मुकुल पहले ही कर्मचारियों को संगठित कर रहे थे. इसकी सजा उन्हें मिली.मुकुल ने इन सबकी तरफ से संघर्ष शुरू किया और फेडरेशन ऑफ़ एम्प्लाइज ऑफ़ ऑटोनोमस रिसर्च एंड डेवलपमेंट, एजुकेशन एंड टेक्निकल इंस्टीट्यूट्स का गठन किया. फिर उन्होंने क़ानून का बाकायदा अध्ययन किया और वकालत का पेशा 1989 में शुरू किया. उन्होंने झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वालों के हकों के लिए जन संघर्ष मोर्चा का गठन भी किया. वकील के तौर पर वे ऐसे ही लोगों के लिए लड़ते रहे. यह संघर्ष मुकुल ने फिजिकल साइंस लेबोरटरी की अपनी सहकर्मी निर्झरी के साथ किया जो उनकी जीवन संगिनी बनीं.

2002 के मुसलमानों के कत्लेआम के बाद उनके लिए यह स्वाभाविक था कि वे पीड़ितों के लिए काम करें. इंसाफ के लिए ज़रूरी था कि इस हत्याकांड के पीछे की साजिश का पर्दाफ़ाश किया जाए. मुकुल सिन्हा ने उस फोन रिकॉर्ड का बारीक विश्लेषण किया जो राहुल शर्मा जैसे ईमानदार पुलिस अधिकारियों की वजह से ऊपर किया जा सका था. मुकुल के काम से ही इस हत्याकांड में नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल के सदस्यों के शामिल होने की बात उजागर हो पाई. माया कोदनानी, जयदीप पटेल आदि को इसी वजह से सजा मिल पाई और यह जाहिर हो पाया कि अमित शाह, डी पी वंजारा , राजकुमार पांडियन आदि इसके पीछे थे. नानावती आयोग में मुकुल की कड़ी जिरह से इन सभी षड्यंत्रकारियों का बच निकलना मुश्किल हो गया.फिर मुकुल ने उन पुलिस अधिकारियों के अधिकारों के लिए अदालत में लड़ाई लड़ी जिन्हें मोदी सरकार ने दण्डित किया था क्योंकि उन्होंने उस कठिन समय में अपनी आत्मा और संविधान के मुताबिक़ काम किया और सरकार के आगे नहीं झुके.

मुकुल ने बाद में इशरत जहां , सोहराबुद्दीन शेख , तुलसी राम प्रजापति की मुठभेड़ के नाम पर सुनियोजित ह्त्या का भी पर्दाफ़ाश किया और उनके लिए अदालत में लड़ते रहे. उन्हें इसका खतरा मालूम था . हिंदू समाज में इसके चलते वे अलोकप्रिय हो रहे हैं,यह भी मालूम था.

नव समाजवादी चलवल(नव समाजवादी पहल) नाम से एक राजनीतिक मंच मुकुल ने गठित किया और चुनाव में खड़े भी हुए. हममें से ज़्यादातर इसके पक्ष में नहीं थे लेकिन मुकुल की अपनी समझ थी और उसके लिए कीमत चुकाने को वे तैयार थे. नरेंद्र मोदी की प्रिय साबरमती रिवर फ्रंट योजना की चलते विस्थापित होने वाले गरीबों का मसला भी उन्होंने उठाया और उसके लिए अदालती लड़ाई लड़ी.

2014 के चुनाव के संदर्भ में मुकुल ने ट्रुथ ऑफ़ गुजरात नाम से एक वेबसाइट आरंभ की जिसमें गुजरात को लेकर मोदी सरकार और जन संचार माध्यमों की ओर से फैलाए जा रहे मिथ को तोड़ने के लिए तथ्य जमा किए गए हैं. उनकी बीमारी की हालत में उसके उनके बेटे प्रतीक चला रहे थे.

आज की शिक्षा प्रणाली के लिए मुकुल सिन्हा जैसे व्यक्ति का जीवन शिक्षाप्रद होना चाहिए.बार-बार कहा जाता है कि हमारे स्नातक बाज़ार की ज़रूरतों के लिए ज़रूरी योग्यताएं नहीं अर्जित कर पाते. एक भौतिकविज्ञानी क्यों और कैसे एक वकील बन जाता है और फिर भी उसके विज्ञान की शिक्षा क्यों उसके लिए उपयोगी बनी रहती है? शिक्षा समाज के साथ हमारा रिश्ता किस तरह जोड़ती है कि हम खुद को उसकी पुकार पर बदलते चलते हैं? जिसे आजकल उच्च शिक्षा में ‘लाइफ लांग लर्निंग’ कहा जाता है और जिसके लिए कोर्सेरा और एडेक्स जैसी अमरीकी कंपनियों के साथ अमरीका और यूरोप के विश्वविद्यालय ‘मूक’ का अभियान चला रहे हैं उसके बिना मुकुल जैसे लोग ज़िंदगी भर कैसे नई परिस्थितियों से अपनी शिक्षा के सहारे ही टकराते और नई योग्यताएँ अर्जित करते हैं, इसे किस तरह पाठ्यक्रम में जगह दी जा सकेगी?क्या विश्व के श्रेष्ठ शिक्षा संस्थानों की सूची में जगह बनाने की आपाधापी के बीच आए.आई.टी. अपने इस योग्य छात्र को याद करने की फुर्सत निकाल पाएगी? क्या आई.आई. टी. यह कह सकेगी कि मुकुल ने जो किया उसमें उसकी शिक्षा का भी योगदान है?

जीवन से जूझना और खुद को बदलते रहना ताकि आप खुद उस बदल सकें, यही तो शिक्षा है. मुकुल की पूरी ज़िंदगी इसी में गुजरी.

मुकुल के संघर्ष के बारे में सोचते हुए मैं फिर अपने बारे मैं और अपनी बिरादरी के बारे में सोचता हूँ. गुजरात ने हमारे भीतर की बड़ी न्यूनता भी उजागर कर दी है. हम जो एक ही मकसद के लिए लड़ रहे हैं, एक दूसरे से कितने अलग और कितने चिढ़े हुए हैं ! कितने खाने और खित्ते हमने अपने बीच बना लिए हैं जिनमें दूसरे का प्रवेश भी वर्जित हैं! हमारे रिश्ते कितने औपचारिक हैं! इस मौत के बाद क्या इसके बारे में हम सोचने को मजबूर होंगे? मुकुल की मौत एक मौक़ा होना चाहिए उन सबके साथ मिल बैठने का, मुकुल की याद के लिए या उसके बहाने ही,सही जो गुजरात में इंसानियत के लिए लड़ते रहे है क्योंकि समाज में जनतंत्र या इंसानियत तब तक बहाल नही हो सकती जब तक उसका संघर्ष मानवीयता, उदारता और मित्रता की ज़मीन पर नहीं किया जाता.

( जनसत्ता में इसका संपादित रूप 14 मई,2014 को प्रकाशित हुआ है)

 

10 thoughts on “मुकुल सिन्हा”

  1. He was a crusader who fought for marginalized and victimized people and won against all odds. He will be surely missed.

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  2. एक संशोधन है. मुकुल 133 छंटनी किये गए लोगों में नहीं थे. उन्होंने छंटनी किये गए लोगों को संगठित कर इसके खिलाफ साझी लड़ाई की शुरुआत की इसलिए बाद में उन्हें भी निकाला गया. मेरी जानकारी भी पढी हुई ही है, गलत हो सकती है.
    मुकुल सिन्हा जिन मूल्यों के लिए मरते दम तक ( यह मुहावरा कितनी कम बार शब्दशः सही हो पाता है.) लड़ते रहे, वे हमें रास्ता दिखाते रहेंगे.

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  3. सत्ताधारियों के तलवे चाटने वाले इस मीडिया पर सौ बार लानत…

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  4. Mukul Sinha was a great man who being an IIT graduate decided to become a lawyer, start a legal help- NGO to help- the many poor and powerloess people in Ahmedabad who were being harassed by powerful politicians and bureauxrats. His whole life he fought in a crusade against injustice. There are very few selfless and sincere activists like him in India. May his soul rest in peace and his family find solace in his very noble spirit.

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