आम धारणा है कि एक भारतीय विदेश की सरजमीन पर पैर रखते ही जेंटलमैन बन जाता है। वह सभ्यता के नए मूल्यों से परिचित होता है, अपने देश की तमाम रूढ़ियों से नाता तोड़ लेता है और सही मायने में एक आधुनिक व्यक्ति बन जाता है। यह बात एक हद तक ही सही है। कुछ लोगों में भले ही परिवर्तन आ जाता हो पर एक बड़े हिस्से पर शायद उल्टा ही असर होता है। भारत के बाहर जहां-जहां भारतीय बसे हैं, वहां उन्होंने न केवल जाति आधारित संगठनों, संस्थाओं की स्थापना की है बल्कि वहां भी वे निम्न कही जानेवाली जातियों के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव करने में संकोच नहीं करते। लेकिन उनके चरित्र के दोहरेपन का आलम यह है कि वे चाहते हैं कि ये बातें ढकी-छुपी रहें। वहां के लोग यह सब न जानें।
आजकल अमेरिका के एक बड़े राज्य कैलिफॉर्निया की पाठ्यपुस्तकों में संशोधन चल रहा है। यह एक रूटीन प्रोसेस है जिसके तहत सिलेबस में नए विषय या तथ्य शामिल किए जाते हैं। इस क्रम में वहां सिलेबस में हिंदुओं के बारे में भी कुछ सूचनाएं शामिल की जा रही हैं। लेकिन इस पर विवाद हो गया है कि जानकारियों को किस रूप में रखा जाए। भारतीयों का एक तबका चाहता है कि प्राचीन तथ्यों को नए सिरे से लिखा जाए और हिंदू समाज में मौजूद वर्ण व्यवस्था या छुआछूत की बात को साफ गोल कर दिया जाए। अमेरिका में रह रही दलित ऐक्टिविस्ट थेनमोझि सुंदरराजन ने पिछले दिनों ‘द हफिंग्टन पोस्ट’ में इस संबंध में एक लेख लिखा है जिसके मुताबिक प्रवासी भारतीयों के एक हिस्से में सक्रिय ‘धर्मा सिविलाइजेशन फाउंडेशन’ की तरफ से दलील दी जा रही है कि हिंदुओं में जाति एवं पुरुष सत्ता का जिक्र किया जाएगा तो इससे हिंदू बच्चे ‘हीन भावना’ से ग्रस्त हो जाएंगे। यह उनकी ‘प्रताड़ना’ का सबब बन सकता है, लिहाजा इस उल्लेख को टाल दिया जाए।
सुंदरराजन बताती हैं कि ऊपरी तौर पर आकर्षक लगने वाली यह दलील सच्चाई पर पर्दा डालने जैसी है क्योंकि वही तर्क नस्लवाद के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जा सकता है और किताबों से उसकी चर्चा भी गायब की जा सकती है। लेकिन इन कोशिशों का विरोध भी हो रहा है। विभिन्न धर्मों व नस्लों से जुड़े संगठनों ने एकजुट होकर पाठ्यपुस्तकों में ऐसे हेरफेर की मुहिम पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में जातिगत और धार्मिक असहिष्णुता या संस्थागत भेदभाव के प्रसंग को गायब करना न सिर्फ इतिहास को नकारने जैसा है बल्कि यह गैर लोकतांत्रिक भी है।
वैसे यह पहली दफा नहीं है जब कैलिफॉर्निया की पाठयपुस्तकों की पुनर्रचना सुर्खियों में आई है। एक दशक पहले सिलेबस में बदलाव के मौके पर हिंदू धर्म को लेकर एक ऐसी आदर्शीकृत छवि किताबों में पेश की गई, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। ब्रिटेन में भी भारतीयों के एक समूह का व्यवहार ऐसा ही है। वहां जातिगत भेदभाव दूर करने के लिए कानून में प्रावधान करने पड़े। ब्रिटेन में जातिगत भेदभाव को ‘इक्वलिटी ऐक्ट’ के तहत गैरकानूनी घोषित किया जा चुका है। पिछले साल वहां एक एम्प्लॉयमेंट ट्राइब्यूनल ने भारतीय मूल की एक पूर्व घरेलू कामगार को, जो दलित ईसाई थी, एक लाख अस्सी हजार पाउंड का मुआवजा दिलाया। वह जिस परिवार में काम करती थी, वहां उसके साथ जाति और धर्म, दोनों ही आधारों पर भेदभाव होता था।
कुछ समय पहले मलयेशिया में भारतीय मूल के निवासियों की गिरफ्तारी का मसला सुर्खियों में आया था। बताया गया कि हिन्ड्राफ नामक संगठन के कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि मलयेशिया के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाने वाला एक उपन्यास कथित तौर पर भारत की छवि ‘खराब’ करता है। आखिर उस उपन्यास में ऐसी क्या बात लिखी थी, जिससे वहां रह रहे भारतवंशियों को अपनी मातृभूमि की बदनामी की चिंता सताने लगी? दरअसल उपन्यास में एक ऐसे शख्स की कहानी कही गई है जो तमिलनाडु से मलेशिया में किस्मत आजमाने आया है और यह देख कर हैरान होता है कि अपनी मातृभूमि पर उसका जिन जातीय अत्याचारों से सामना होता था, उसका नामोनिशान तक यहां नहीं है।
पिछले दिनों यह खबर आई कि दक्षिण एशिया के मुल्कों से ब्रिटेन में आकर बसे लोग अपनी संतानों, खासकर बेटियों की जबरन शादी करते हैं और अगर उन्होंने अपनी मर्जी से शादी कर ली तो ‘ऑनर किलिंग’ तक पर उतर आते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जो संघर्ष दलितों को भारत में करना पड़ता है, वही उन्हें विदेशों में भी करना पड़ रहा है। आज की तारीख में अमेरिका और ब्रिटेन में कई दलित संगठन सक्रिय हैं, जो अपने हक के लिए आवाज उठा रहे हैं। सोचा जा सकता है कि इससे भारत की क्या छवि बनती होगी?
विदेश में रहते हुए एक भारतीय अपने ऊपर सांस्कृतिक दबाव महसूस करता है जो उसे अपनी जड़ों की ओर धकेलता है। लेकिन इस कोशिश में वह अपनी रूढ़ियों को भी कसकर पकड़ लेता है। उसमें इतना आत्मविश्वास नहीं कि वह एक भ्रष्ट परंपरा को छोड़कर आगे बढ़ सके। भारतीयों का यह दोहरापन ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर होने वाली ज्यादतियों में नस्लवाद देखता है, पर अपने यहां के शिक्षा संस्थानों में आए दिन दलित-अल्पसंख्यक तबकों के छात्रों के साथ होने वाली ज्यादतियों पर उसका ध्यान भी नहीं जाता। यह वाकई चिंता का विषय है कि जिस एनआरआई तबके का इतना गुणगान हो रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा बेहद पोंगापंथी है।
( First published at http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/number-of-emigrant-indians-are-fundamentalist-and-racist)
इस लेख का एक, एक शब्द बिकुल सही है. मैं केनेडा में पद्रह सालों से रहता हूँ. यहा के टोरोंटो शहर और आसपास के इलाक़ों में बसे भारतीयों को बहुत करीब से जाना पहचाना है. हूँ इत ने रेसिस्ट हैं की अस्वेतों से किसी भी प्रकार के संबंध रखना तो दूर उन से बात करना तक पसंद नहीं करते! आज भी हम उन्हे तुच्छ नज़रों से देखते हैं. कई सारे ‘काले’ हम लोगों से कई अधिक पढ़े लिखे और शिष्टाचार वाले होते हैं. कई बार मेरे अस्वेत मित्र मुझ से कहते हैं की ‘वाइ इंडियन्स डॉन’ट मिक्स उप वित अस?’ स्वेत लड़कों को अपना दामाद या बहू बनाना इन्हें पसंद है लेकिन वही बात किसी अस्वेत के लिए नहीं है.
अपनी, अपनी संस्थाएँ बनाना कोई बुरी बात नहीं है. दूसरे देशों से आए लोग भी अपनी, अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक संस्ताईन बनाते हैं. लेकिन जब वे लोग कोई कार्यक्रम करते हैं तो अस्वतों को भी बुलाते हैं और उन की इज़्ज़त भी करते हैं. हमारे भारतीय प्रवासी समाज में कहीं भी यह नहीं दिखाई देता.
इन देशों मे हम अपने साथ अपनी बुराइयों को भी ले के आए हैं. अपने, अपने गुटों में ही रहना. जहाँ सारे लोग जमा हुए हों और जहाँ सारे के सारे अँग्रेज़ी में बातें करते हों वहाँ हम अपना ग्रूप बना कर अपनी, अपनी भाषाओं में शुरू हो जाते हैं. बॅड मनेर्स किसे कहते हैं हम में से बहुतों को पताही नहीं है. हम हंसों में कौव्वा बन कर रहते हैं.
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Indians whether living in India or outside India carries caste in their mind. Why can’t leftist eradicate first from their mindset?
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“Female foeticide on the rise among Canadian Sikhs”
http://www.deccanherald.com/content/220095/female-foeticide-rise-among-canadian.html
“Indo-Canadian women give birth to far more boys than women born in Canada.”
“…a result of ‘sex discrimination fuelled by son preference,’ a study says.”
http://www.cireport.ca/2016/04/indian-born-mothers-perpetuate-gender-inequality-by-practicing-female-foeticide-in-canada.html
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