Guest post by V. GEETHA. Translated by RAJENDER SINGH NEGI
कोरोना के आने से पहले ही हममें रोगाणुओं को लेकर चिंता का भाव विद्यमान था. ज़रा उन फ़र्श, किचन काउंटर, कपड़ों, इत्यादि रोगाणुओं, दाग़, और तमाम क़िस्म के सूक्ष्म घुसपैठी जंतुओं से निजात दिलाने वाले विज्ञापनों को याद करें, जिनमे इन सभी को पर्याप्त और बड़ी चालाकी से दुष्ट क़रार दिया जाता रहा है. कोरोना ने हमें ख़ुद को विशुद्ध और साफ़-सुथरा रखने का पूर्णत: वाजिब कारण दे दिया है. हम चाहे ख़ुद को चारदीवारी के अंदर बंद कर लें, या, अन्यों को उसमें दाख़िल होने से रोकें, अंतत: इसका नतीजा वही निकलता है, कि हम अक्सर पहले से ही समाज में व्याप्त जातिगत, वर्ग-आधारित, नस्ल-भेदी और धार्मिक आधार पर बनाई गई सामाजिक मान्यताओं की दीवारें ही खड़ी कर रहे होते हैं.
तो फिर जिस जोश-खरोश से हमने संभावित संक्रामक माने जाने वाले लोगों पर नज़र रखने, उन्हें चिह्नित और वर्जित करने की क़वायद सर पर उठा रखी है उस पर अचरज नहीं करना चाहिए. इस वर्जना में सरेआम सड़कों पर धर-पकड़, शर्मिंदा किया जाना, घरों में ‘आईसोलेट’ किए गयों के नाम सार्वजनिक किया जाना, और मरीज़ों का ईलाज कर रहे डॉक्टरों और नर्सों का उनकी ही रिहाईशी कॉलोनियों में प्रवेश की निषेधआज्ञा लागू किया जाना भी शामिल है.
तमिलनाडु से को. रघुपति नामक एक इतिहासकार ने 1925 के उस नोटिस की तरफ़ ध्यान दिलाया, जिसमें बस के टिकट के पीछे लिखा होता था: “पंचनामे और ला-ईलाज बीमारी वालों का प्रवेश निषेध है.” इस बात को एक सदी गुज़र चुकी है, लेकिन ज़्यादा कुछ नहीं बदला है.
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जो लोग अपनी चौखट पर किसी ग़रीब के निकट आने पर असहज हो उठते हैं, चाहे एक कर्मी के रूप में, या, उनसे ख़ैरात की आस रखने वालों के रूप में, वे इन पलों को मुक्तिदायी मान रहे होंगे: उन्हें अब इन (ग़लीज़) वर्गों और जातियों से अपनी गहरी पैठी घृणा की भावना को छुपाने की ज़रूरत नहीं थी. इसलिए शायद एपार्टमेंटों और अभिजात्य कॉलोनियों में रहने वाले हमारे साथी नागरिक, समाजिक दूरी बनाए रखने की ज़रूरत की चौकसी (विजिलांटे स्टाईल में) करते पाए जाते हैं. यहाँ किसी को ‘सामाजिक दूरी’ की शब्दावली के इस्तेमाल करने पर शंका नहीं होती. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस शब्दावली का संबंध जाति और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों से रहा है. सामाजिक दूरी की शब्दावली सहजता से उनमें से कइयों की ज़ुबान पर जैसे रच-बस गई है.
पथभ्रष्ट के रूप में नागरिकों की ‘मार्किंग’ उसी प्रशासन प्रणाली या ‘गवरनेंस’ का हिस्सा है जो, हममें से कईयों को ग़ैर–नागरिक और कुछ को ग़ैर–क़ानूनी एवं ‘संदेहास्पद नागरिक’ घोषित करने के लिए कटिबद्ध है.
इसी वजह से गंदगी और दाग़ से होने वाली अत्यंत साधारण और घिसी-पिटी चिंताएँ मनहूस जान पड़ती है. दूषित हो जाने को लेकर, गहरी पैठी चिंता का यह लक्षण उतना ही सामाजिक और राजनीतिक है, जितनी हमारी आदतें. हम विशुद्ध होना चाहते हैं, विशुद्ध समाज बनाना चाहते हैं और चाहते हैं कि एक विशुद्ध राज्य हम पर राज करे. और यह विशुद्धता ना तो दैहिक, ना ही वैचारिक रूप से विलक्षण है, बल्कि यह एक ऐसी सामाजिक संवेदनशीलता से उपजी है जो ग़ैर-पारस्परिक, ग़ैर-बिरादराना समाज के निर्माण पर तुली है, तथा मिज़ाज की नीचता, और, उससे भी नीच सोच पर फलती-फूलती है, जो दक़ियानूसीपने में ही मज़ा तलाशती है.
यह दक़ियानूसीपन हमारे भीतर आश्रय पाए हुए हर उस तुच्छ पूर्वाग्रह की पुष्टि करता है. यहाँ तक कि उस पूर्वाग्रह को परम सत्य का दर्जा ना दिए जाने पर वह हमें हिंसक होने की अनुमति भी प्रदान करता है. इस काम को किसी भव्य वैचारिक वक्तव्य द्वारा नहीं, बल्कि हमलों की संख्या में इज़ाफ़ा करते जाने और सख़्त क़दम उठाने हेतु घृणापूर्ण आह्वान के ज़रिए हासिल किया जाता है; उन इंसानों की आवाज़ को बर्बरता से दबाकर, जिन्हें हमारा दक़ियानूसीपन और पूर्वाग्रहों से ग्रसित दिमाग़ स्वीकार या बर्दाश्त नहीं कर पाता.
दक़ियानूसीपन को पौराणिक कथाओं और राजनीतिक फिरकी को स्टेट्समैनशिप का दर्जा दे दिया गया है, जैसा कि सत्ताधरियों, ख़ासकर इसके नेता की तारीफ़ में चौबीसों घंटे अनैतिक आक्रामक क़सीदे पढ़ने की ट्रोल संस्कृति को जिलाए रखे जाने से ज़ाहिर होता होता है. अतीत में, सार्वजनिक आचरण और रीति रिवाजों ने वही भूमिका निभाई थी, जो आज ट्रोलिंग करने वालों की फ़ौज निभा रही है. अर्थात शासकों और द्वीजन्मी पुरोहितों को इस बात का आश्वासन देने का कि उन्हें ही प्रजा को आदेश देने, उनकी अगुवाई करने और उन्हें वश में रखने का आलौकिक अधिकार प्राप्त है.
इन हुक्मनामों को शानदार कहानियों की छलनी से छानकर हम तक पहुँचाया जाता है; मूल मक़सद के आँखों से ओझल होने तक उनकी अंतहीन व्याख्याएँ की जाती हैं, जब तक कि उनके उद्देश्य हमारी नज़रों से ओझल नहीं हो जाते; और हम उन्हें जस का तस नहीं निगल जाते. जैसा कि हम हफ़्ते-दर-हफ़्ते नागरिकों पर थोपी गई “मन की बात” की बेस्वाद सलाहों को सुनते हुए करते हैं: बिना उसके श्रोत और मायनों को जाँचे-परखे, बिना यह समझे कि वो अपनी सत्ता लोलुपता में कैसे-कैसे गल्पों के मचान बनाता है.
पिछले कुछ दिनों में दिलो–दिमाग़ का दिवालियापन सबके सामने उजागर हुआ है: जब डरा–सहमा ग़रीब मज़दूर अनिश्चित भविष्य को साथ लिए, चिर परिचित देहात की जानिब अपने नाते–रिश्तेदारों के संसर्ग में रहने के लिए रवाना हुआ. ज़ाहिरा तौर पर जिन शहरों की तामीर उसने अपने हाथों से की थी, वह उसे अभी अपना घर नहीं मान सकता था. पिछले सप्ताह की घटनाओं ने (शहरों में) कामगारों का कोई ठौर–ठैय्या ना होने की सच्चाई को उघाड़ कर हमारे सामने रख दिया है: आज हम उनकी ज़रूरतों को संबोधित करने की माँग करते हैं, लेकिन यहाँ दिक्कत यह है कि उनकी ज़रूरतें असल में बेहद मामूली हैं. अपने तमाम श्रम और दिन-रात खटने के बाद, एक मज़दूर के पास बामुश्किल अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए हफ़्ते भर से जयादा का जुगाड़ नहीं होता. सो हक़ीक़त यही है कि लॉकडाउन ने कामगार को दयनीय स्थिति में ला खड़ा कर दिया है. कड़ी मेहनत करने वाले कामगार आज ख़ैरात पर जीने के लिए मोहताज है, जो उन्होंने कभी नहीं चाही थी.
भारत सरकार ने कार्य दिवसों की हानि या वास्तविक श्रम के मूल्य का ख़ामियाज़ा नहीं, बल्कि भुखमरी से बचने के लिए मुट्ठीभर रुपयों की पेशकश की है. ताकि वापिस लौटकर मज़दूर फिर से ख़ट सकें, बशर्ते वे तब तक मर-खप ना गए हों.
यह दिवालियापन संक्रामक है.
आने वाले दिनों की अपेक्षा के संदर्भ में इसकी संक्रामकता, कहीं और नहीं बल्कि इसकी भविष्यगामी संख्या में प्रकट होती है, जिनसे हमें जूझना पड़ सकता है.
संभावित ख़तरों के प्रति हमें चेताने वाले उन तमाम भले लोगों के प्रयासों का अनादर किए बग़ैर, यह किसी सदमे से कम नहीं कि जीवन का मूल्य उसकी प्रचुरता में कम और स्वयं को जैसे-तैसे जिलाए रखने में ज़्यादा जान पड़ता है. हालाँकि कामगारों के लिए मामला साफ़ है: वे भूख से मरना चुनेंगे या बीमारी से? यह स्पष्टता राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था और हम सभी पर कलंक है.
कामगारों के जीवन को ढालने वाली कमखर्ची या मितव्यता, मृत्यु से हमारी लड़ाई के प्रयासों का मज़ाक़ उड़ाती प्रतीत होती है. और आपराधिक हद तक धनवानों की सम्पन्नता को बढ़ावा देने वाली और उनकी प्रतिरूपी सत्ता, भूख के मसले के समाधान के हमारे तमाम प्रयासों को शर्मसार करती जान पड़ती है.
वी गीता जानीमानी नारीवादी कर्मी हैं जो जाति, जेंडर और नागरिक अधिकारों के सवालों पर लगातार लिखती हैं.
प्रिय राजेन्द्रजी
लेख अच्छा लगा.बात सही उठायी है और अनुवाद भी अच्छा बन पड़ा है क्या आप कृपया मूल लेख का लिंक साझा कर सकते हैं
सादर
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शुक्रिया सुभाष भाई। लिंक नीचे है।
https://www.politicallymath.in/germs-stains-and-our-pure-society/
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