Guest post by V. GEETHA. Translated by RAJENDER SINGH NEGI
कोरोना के आने से पहले ही हममें रोगाणुओं को लेकर चिंता का भाव विद्यमान था. ज़रा उन फ़र्श, किचन काउंटर, कपड़ों, इत्यादि रोगाणुओं, दाग़, और तमाम क़िस्म के सूक्ष्म घुसपैठी जंतुओं से निजात दिलाने वाले विज्ञापनों को याद करें, जिनमे इन सभी को पर्याप्त और बड़ी चालाकी से दुष्ट क़रार दिया जाता रहा है. कोरोना ने हमें ख़ुद को विशुद्ध और साफ़-सुथरा रखने का पूर्णत: वाजिब कारण दे दिया है. हम चाहे ख़ुद को चारदीवारी के अंदर बंद कर लें, या, अन्यों को उसमें दाख़िल होने से रोकें, अंतत: इसका नतीजा वही निकलता है, कि हम अक्सर पहले से ही समाज में व्याप्त जातिगत, वर्ग-आधारित, नस्ल-भेदी और धार्मिक आधार पर बनाई गई सामाजिक मान्यताओं की दीवारें ही खड़ी कर रहे होते हैं.
तो फिर जिस जोश-खरोश से हमने संभावित संक्रामक माने जाने वाले लोगों पर नज़र रखने, उन्हें चिह्नित और वर्जित करने की क़वायद सर पर उठा रखी है उस पर अचरज नहीं करना चाहिए. इस वर्जना में सरेआम सड़कों पर धर-पकड़, शर्मिंदा किया जाना, घरों में ‘आईसोलेट’ किए गयों के नाम सार्वजनिक किया जाना, और मरीज़ों का ईलाज कर रहे डॉक्टरों और नर्सों का उनकी ही रिहाईशी कॉलोनियों में प्रवेश की निषेधआज्ञा लागू किया जाना भी शामिल है.
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