Tag Archives: गांधी

ग्राहम स्टेंस और उनकी संतानों की याद में…

‘Men never do evil so completely and cheerfully as when they do it from religious conviction.’
Blaise Pascal, French Mathematician and Physicist who lived some 400 years ago and died young (1623 to 1662 AD)

ग्राहम स्टेंस, जो ऑस्ट्रेलिया से भारत पहुंचे ईसाई पादरी थे और ओडिशा के बेहद पिछड़े आदिवासी बहुल इलाकों में गरीबों एवं कुष्ठरोगियों की सेवा में संलग्न थे, उन्हें और उनकी दो संतानों फिलिप और टिमोथी को कथित तौर पर हिंदुत्ववादी जमातों से जुड़े मानवद्रोहियों ने 22 जनवरी 1999 को जिंदा जलाया था.

22 जनवरी की तारीख की बीती तारीख को इस घटना की पच्चीसवीं सालगिरह थी.

राम मंदिर आयोजन की चकाचौंध में किसी ने इस बर्बर हत्या और उसके निहितार्थों को याद करना भी मुनासिब नहीं समझा, जबकि हम पाते हैं कि इस बर्बर हत्याकांड में वह तमाम संकेत मिलते हैं, जिन्हें 21वीं सदी की बहुसंख्यकवादी राजनीति में भरपूर प्रयोग में लाया गया.

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा अम्बेडकर

(Dr. Ambedkar’s editorial on Bhagat Singh-Rajguru-Sukhdev execution on 13th April 1931-available in English here – http://www.bhagatsinghstudy.blogspot.in/2016/03/dr-ambedkars-editorial-on-bhagat-singh.html)
समसामयिक विचार
(जनता, 13 अप्रैल 1931)
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमनसिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकानमालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगतसिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जयगोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगतसिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके  उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगतसिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी दी । अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगतसिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगतसिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगतसिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनांे को लाहौर सेन्ट्रल  जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बकश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगतसिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।

Continue reading भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा अम्बेडकर

हिंसा की राजनीति बनाम जनांदोलन

राजकीय हिंसा  के अन्यायपूर्ण होने को लेकर जिनके मन में कोई  शंका नहीं है, वे माओवादी या ‘जनता’की हिंसा के प्रश्न पर हिचकिचा जाते हैं.ऐसा इसलिए नहीं होता कि वे बेईमान हैं, बल्कि इस वजह से कि हिंसा को वैध राजनीतिक तरीका मानने को लेकर  चली आ रही बहस अभी ख़त्म नहीं हुई है. यह अलग बात है कि भगत सिंह जैसे बौद्धिक क्रांतिकारी पिछली सदी के पूर्वार्ध में ही यह समझ गए थे  कि  जन आंदोलनों  का कोई  विकल्प नहीं है. जनता की गोलबंदी,न कि हथियारबंद दस्तों के ज़रिये गुर्रिल्ला युद्ध,यह समझ भगत सिंह की बन रही थी.क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा में उन्होंने लिखा, “बम का रास्ता १९०५ से चला आ रहा है और क्रान्तिकारी भारत पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है….आतंकवाद हमारे समाज में क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है या एक पछतावा.इसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है. शुरू-शुरू में इसका कुछ लाभ था.इसने राजनीति को आमूल बदल दिया. नवयुवक बुद्धिजीवियों की सोच को चमकाया,आत्मत्याग की भावना को ज्वलंत रूप दिया और दुनिया व अपने दुश्मनों के सामने अपने आन्दोलन की सच्चाई को ज़ाहिर करने का अवसर मिला. लेकिन यह स्वयं में पर्याप्त नहीं है. सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है…. . इसकी पराजय के बीज  इसके भीतर ही हैं.” इस उद्धरण से यह न समझ लिया जाए कि  भगत सिंह ने इस रास्ते से अपने आप को एकदम काट लिया था,पर यह साफ़ है कि वे बड़ी शिद्दत से यह महसूस करने लगे थे कि बिना सामूहिक कार्रवाई के  सफलता प्राप्त करना संभव नहीं.भगत सिंह के ये वाक्य मानीखेज और दिलचस्प है:”विशेषतः निराशा के समय आतंकवादी तरीका हमारे प्रचार-प्रसार में सहायक हो सकता है,लेकिन यह पटाखेबाजी के सिवाय कुछ है नहीं.”वे स्पष्टता से लिखते है, “क्रांतिकारी को निरर्थक आतंकवादी कार्रवाईयो और व्यतिगत आत्मबलिदान के दूषित चक्र में न डाला जाए. सभी के लिए उत्साहवर्द्धक आदर्श,उद्देश्य के लिए जीना -और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना – होना चाहिए.”
Continue reading हिंसा की राजनीति बनाम जनांदोलन