“अगर हम ‘लोकतांत्रिक सरकारों के छिपे इरादों और गैरजवाबदेह खुफिया शक्ति संरचनाओं की जांच करने और उन पर सवाल उठाने से इनकार करते हैं तो हम लोकतंत्र और मानवता, दोनों को ही खो बैठते हैं.” पत्रकार जॉन पिल्जर का यह वाक्य आज हमारे लिए कितना प्रासंगिक हो उठा है! हमें नौ जनवरी को खुफिया तरीके से अफज़ल गुरु को दी गयी फांसी के अभिप्राय को समझना ही होगा. काम कठिन है क्योंकि इसे लाकर न सिर्फ़ प्रायः सभी संसदीय राजनीतिक दल एकमत हैं बल्कि आम तौर पर देश की जनता भी इसे देर से की गई सही कार्रवाई समझती है.
नौ जनवरी के दिन के वृहत्तर आशय छह दिसम्बर जैसी तारीख से कम गंभीर नहीं क्योंकि इस रोज़ भारतीय राज्य ने गांधी और टैगोर की विरासत का हक खो दिया है.अगर अब तक यह साबित नहीं था तो अब हो गया है कि भारत की ‘संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति’ का मुहावरा उग्र और कठोर राष्ट्रवाद का है. और राजनीतिक दलों में इस भाषा में महारत हासिल करने की होड़ सी लग गयी है.