संसद राजनीति और लोकतंत्र पर स्कूली किताबों में कार्टून नहीं चाहती है. इस मसले को लेकर संसद के दोनों ही सदनों में सारे राजनीतिक दलों में अभूतपूर्व मतैक्य देखा गया. एक राजनीतिक दल, जिसका नाम नेशनल कान्फरेंस है, इस दमनकारी बहुमत से अलग स्वर में बोलने की कोशिश करता रह गया, उसे क्रूर बहुमत ने बोलने नहीं दिया. आखिर वह एक बहुत छोटे से इलाके का था! मुख्य भूमि में बन रही सहमति में विसंवादी स्वर पैदा करने की अनुमति उसे दी ही कैसे जा सकती थी? उसे उसकी लघुता के तर्क से नगण्य माना जा सकता था. यह स्वर कश्मीर से आ रहा था जिसे भारत का अंग बनाए रखने के लिए देश के क्रूरतम क़ानून की मदद लेनी पड़ती है.
यह विवरण यहाँ अप्रासंगिक लग सकता है.लेकिन मुझे इसमें एक तरह की प्रतीकात्मक संगति दिखलाई पड़ती है. वह संगति असहिष्णुताजन्य अधैर्य के तत्व से निर्मित होती है जो हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को परिभाषित करता है और इसीलिए सरलीकरण की पद्धति उसके चिंतन की दिशा तय करती है. Continue reading पाठ्यपुस्तक का संघर्ष