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केन्द्रीय विश्वविद्यालय: वर्चस्वशाली जातियों के नए ठिकाने ?

अगर हम प्रोफेसरों के पदों की बात करें तो यूजीसी के मुताबिक अनुसूचित जाति से आने वाले प्रत्याशियों के लिए आरक्षित 82.82 फीसदी पद, अनुसूचित जनजाति तबके से आने वाले तबकों के लिए आरक्षित 93.98 फीसदी पद और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 99.95 फीसदी पद आज भी खाली पड़े हैं। असोसिएट प्रोफेसर के पदों की बात करें तो स्थिति उतनी ही खराब दिखती है: अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 76.57 फीसदी पद, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 89.01 फीसदी पद और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 94.30 फीसदी पद खाली पड़े हैं।

क्या हम कभी जान सकेंगे कि मुल्क के चालीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में नियुक्त उपकुलपतियों के श्रेणीबद्ध वितरण- अर्थात वह किन सामाजिक श्रेणियों से ताल्लुक रखते हैं- के बारे में ?

शायद कभी नहीं !

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के केन्द्रीय विश्वविद्यालय ब्युरो में ऐसे कोई रेकॉर्ड रखे नहीं जाते।

किसी बाहरी व्यक्ति के लिए इन सूचनाओं का अभाव बेहद मामूली लग सकता है अलबत्ता अगर हम अधिक गहरे में जाकर पड़ताल करें तो हम पूछ सकते हैं कि सर्वोच्च पदों की यह कथित ‘जातिविहीनता’ का सम्बन्ध क्या इसी तथ्य से जोड़ा जा सकता है कि इन चालीस विश्वविद्यालयों में- सामाजिक और शारीरिक तौर पर हाशिये पर रहने वाले तबकों से आने वाले अध्यापकों की मौजूदगी नगण्य है। फिर वह चाहे अनुसूचित जाति, जनजाति हो या अन्य पिछड़ी जातियां हो या विकलांग तबके से आने वाले लोग हों। इन तबकों की इन पदों से साद्रश्यता के अभाव का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन श्रेणियों से आने वाले तबकों के लिए आरक्षित प्रोफेसरों के 99 फीसदी पद आज भी खाली पड़े हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में, एडहॉक/तदर्थ अध्यापक के तौर पर कार्यरत लक्ष्मण यादव द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सूचना अधिकार के तहत जो याचिका दायर की गयी थी, उसी के औपचारिक जवाब के तौर पर ऐसे कई सारे अचम्भित करने वाले तथ्य सामने आए हैं। अगर हम प्रोफेसरों के पदों की बात करें तो यूजीसी के मुताबिक अनुसूचित जाति से आने वाले प्रत्याशियों के लिए आरक्षित 82.82 फीसदी पद, अनुसूचित जनजाति तबके से आने वाले तबकों के लिए आरक्षित 93.98 फीसदी पद और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 99.95 फीसदी पद आज भी खाली पड़े हैं। अगर हम असोसिएट प्रोफेसर के पदों की बात करें तो स्थिति उतनी ही खराब दिखती है: अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 76.57 फीसदी पद, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 89.01 फीसदी पद और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 94.30 फीसदी पद खाली पड़े हैं। असिस्टेंण्ट प्रोफेसर पद के लिए आरक्षित पदों के आंकड़े उतने खराब नहीं हैं जिसमें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 29.92 फीसदी पद, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 33.47 फीसदी पद और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित 41.82 फीसदी पद खाली पड़े हैं। (देखें- मीडिया विजिल की रिपोर्ट)

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Viva ‘Academic Untouchability’ !

Jantar Mantar, a unique historical place in the capital, which today acts as a ‘sanctioned abode of protest’ under a liberal bourgeois regime, witnessed a protest dharna in the first week of February. Looking at the participation level, one could easily say that, it was indistinguishable from similar protest actions held on the same date. But it is incontestable that the raison detre for the dharna carried very large import which pertained to the entitlements of dalits, tribals or OBCs in higher education. It brought forth the surreptitious manner in which the Congress led UPA government is pushing a bill which would do away with reservation at faculty level in institutions of ‘national importance’.

As expected for the media managers and the pen pushers (or byte takers) employed by them the whole protest action was a non event. Question is why the articulate sections of our society, which yearn for justice, peace and progress, has joined the conspiracy of silence about this particular issue.

The return of ‘academic untouchability’ with due sanction of the parliament and the further legitimisation it would provide to the ‘merit’ versus ‘quota’ debate need to be questioned and challenged uncompromisingly. Continue reading Viva ‘Academic Untouchability’ !