पड़ोसी कब पड़ोसी न रह कर अजनबी बन जाता है ? या वह हमेशा ही एक अजनबी रहता है जिस पर मौक़ा मिलते ही हमला करने में ज़रा हिचक नहीं होती ? हम अपना पड़ोस चुनते कैसे हैं? क्या पड़ोस मात्र एक भौगोलिक अवधारणा है? क्या जो भौगोलिक दृष्टि से हमारे करीब है, वही हमारा पड़ोसी होगा? पड़ोस चुनना क्या हमारे बस में नहीं? क्या पड़ोस कुछ–कुछ धर्म या भारतीय जाति की तरह है जिसके साथ जीवन भर जीने को हम बाध्य हैं? क्या पड़ोस का अर्थ हमेशा आत्मीयता ही है? क्या पड़ोस का मतलब एक दूसरे का ख़याल रखना,आड़े वक्त एक दूसरे के काम आना ही है? या यह रिश्ता अक्सर उदासीनता का होता है , जिसमें हमें दरअसल अपने पड़ोसी में दिलचस्पी नहीं होती? क्या इस उदासीनता के हिंसा में बदल जाने के लिए कोई भी कारण काफी हो सकता है? यह प्रश्न जितना शहर के सन्दर्भ में प्रासंगिक है उतना ही भारतीय गाँव के सन्दर्भ में भी पूछे जाने योग्य है. एक बार फिर, मुज़फ्फरनगर के गाँव में हुई हिंसा के बाद, पड़ोस के मायने पर बात करना ज़रूरी हो उठा है.
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि दशकों से साम्प्रदायिक हिंसा की हज़ारों घटनाओं के बाद भी हमने इसका अध्ययन करना आवश्यक नहीं समझा कि कोई भी छोटा या बड़ा उकसावा क्यों पड़ोसी पर हमला करने का बायस बन जाता है?अक्सर मुज़फ्फरनगर जैसी घटनाओं के बाद हम यह सुनते हैं कि हमलावर तो बाहर से आए थे , कि गाँव में सब एक–दूसरे के साथ प्यार और मोहब्बत से ज़माने से रहते आए थे. कुछ षड्यंत्रकारी तत्व सदियों के मेलजोल को नष्ट कर देना चाहते थे और उन्होंने ही नफरत का ज़हर घोल कर पड़ोसी को पड़ोसी से दूर कर दिया.असलियत कुछ और है. उस पर बात करना शायद अपने आप पर बात करने जैसा है, इसलिए हम उससे गुरेज करते हैं. हम कुछ उदाहरण खोज कर लाते हैं , एक–दूसरे को शरण देने के , बचाने के, लेकिन हम यह नहीं कहते कि ये अपवाद हैं , नियम नहीं.अधिक से अधिक हम कह सकते हैं कि इन उदाहरणों से पड़ोस निहित एक मानवीय संभावना का पता चलता है. वह व्यापक रूप से क्यों नहीं चरितार्थ हो पाती,इस पर गंभीर विचार शेष है.
एक बार हम मुज़फ्फरनगर की ओर लौटें.कुछ तथ्यों को दोहराएँ: तकरीबन साठ हज़ार मुसलमान अपने गावों से भाग कर शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. उनमें से अधिकतर अपने गाँव नहीं लौटना चाहते.यह भी याद रखें कि इन शिविरों का संचालन मुसलमान ही कर रहे हैं.प्रशासन, जोकि एक निर्वैयक्तिक सत्ता है और हर समुदाय से बराबर की दूरी पर है यानी किसी का पड़ोसी नहीं,भोलेपन से कहता रहा है कि इस हिंसक सदमे की घड़ी में हममजहब का साथ ही लोगों को इत्मीनान और भरोसा दिला सकता है. शुरुआती दिनों में तो रसद भी मुस्लिम परिवारों या संगठनों से ही आई. हमारी अब तक की जानकारी के मुताबिक़ एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है कि जिन गावों से इन परिवारों को भागना पड़ा वहां से हिन्दुओं ने आकर इनको वापस चलने को कहा हो. एकाध जगह जहां ऐसा हुआ वहां वापस बुलाने की अनकही शर्त थी कि लूटमार, बलात्कार, क़त्ल आदि के मुकदमे वापस लिए जाएँ.यह भी हमें मालूम है कि ज़्यादातर शरणार्थियों के घर लूट लिए गए हैं और जला कर बर्बाद कर दिए गए हैं. इस तरह की खबरें मिली हैं कि कुछ वक्त गुजरने पर पर जब लोग अपने घर–बार देखने और वहां से बची–खुची चीज़ें लाने गए तो उन्हें पकड़ लिया गया, मारा पीटा गया और गाँव में बाद में होने वाली वारदातों के लिए जिम्मेदार बताया गया. प्रायः हिन्दुओं ने यह कहा कि घर खुद मुसलमानों ने ही जला दिए जिससे उन्हें मुआवजा मिल सके. शिविरों में इस बीच सामूहिक शादियों के समाचार मिले हैं. हिन्दुओं में इसे लेकर भी नाराज़गी है कि सरकार ने हर शादी पर एक लाख रुपए की मदद दी है.
इस हिंसा को लेकर और इस बात के लिए कि वे पड़ोसियों को रोक नहीं पाए, हिन्दुओं में कोई अफ़सोस नहीं है.अब यह साफ़ है कि वे इन शरणार्थी शिविरों को भी गैर–ज़रूरी मान रहे हैं. कहा जा रहा है कि इन शिविरों में हथियार हैं , यहाँ से निकल कर लोग हमले कर रहे हैं. साफ़ है कि सरकारी संरक्षण में लौटने की हालत में भी अब गावों में हिन्दू मुसलमानों को पड़ोसी मानने को तैयार न होंगे. कई मुसलमान अपने गाँव छोड़ कर मुस्लिम बहुल आबादी वाले गाँव में बसने चले गए हैं.तो क्या हम सदियों से बने पड़ोस के टूट जाने का गम मनाएं ?
इस पूरे हिंसक दौर के बारे में व्याख्या यह रही है कि एक छोटी सी घटना में राजनीतिक नेतृत्व के दबाव के कारण पुलिस की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई के चलते लोग भड़क उठे. तथ्य यह है कि लोग अचानक धधक उठी हिंसा या हमलों में नहीं मारे गए.एक क्रोध संगठित किया गया और दसियों गावों के लोगों ने उस क्रोध के संगठन में भाग लेना कबूल किया. उसकी तैयारी में समय लगा और तैयारी में हिस्सा लेते वक्त भी पड़ोसियों ने अपने पड़ोसियों को इसकी भनक न लगने दी. इसका प्रतिकार यह कह कर किया जा सकता है कि गाँव जैसी जगह में में,जहां हर कोई एक – दूसरे की निगाह की जद में है, पता न लगना संभव नहीं.लेकिन यह भी सच है कि जाति आधारित पंचायतें एक अदृश्य चहारदीवारी के भीतर होती हैं. वहां क्या हो रहा है, इसका अन्य जातियां या समुदाय अंदाज ही कर सकते हैं.यह भी स्पष्ट है कि इन पंचायतों या सलाह–मशविरे में हिन्दुओं ने अपने ग्रामवासी मुसलमानों को शामिल करना ज़रूरी नहीं समझा.ये पंचायतें तो एक तरह से पड़ोसियों के खिलाफ हिंसा की योजना बनाने के लिए ही आयोजित की जा रही थीं. यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इन पंचायतों में दूर–दूर से, यहाँ तक कि दूसरे राज्य से भी सजातीय इनमें शामिल होने आए. यहाँ जाति या धर्म ही पड़ोस में तब्दील हो जाता है और जो भौगोलिक कारण से पड़ोसी और पीढ़ियों से रोजाना के सुख–दुःख का साझीदार रहा है , अजनबी बन जाता है.
मुज़फ्फरनगर कोई पहला उदाहरण नहीं है पड़ोसी के खिलाफ पड़ोसी की हिंसा का. झुठलाने की कोशिश कितनी भी की जाए, भारत के अलग–अलग हिस्सों में होने वाली सामूहिक हिंसा के जितने भी किस्से हमें मालूम हैं,उन सबमें पड़ोस भरोसे का साबित नहीं हुआ है. मुझे अभी तक राम जन्मभूमि अभियान के समय पटने में हुई हिंसा की याद है. पड़ोस के घर से गिराए गए पेट्रोल और किरासन से घरों को जलाने के सबूत हमने खुद देखे थे. मुज़फ्फरनगर में भी स्त्रियाँ बताती हैं कि बलात्कार जानने वालों ने किया था, वे जो गाँव के ही थे. बच्चे, जो बच गए हमले के बाद भी, बताते हैं कि उन्हें उन्होंने मारने की कोशिश की थी जिन्हें वे भैया, चाचा कहते थे. जैसा हमने पहले कहा यह कोई पहली बार नहीं हुआ. गुजरात के गाँव के गाँव पड़ोसी के खिलाफ पड़ोसी की हिंसा के उदाहरण हैं. उन्नीस सौ चौरासी में भी हिन्दुओं ने अपने पड़ोसी सिखों को लूटा और क़त्ल किया था. अब वे सब इसे एक राजनीतिक घटना कह कर अपनी जिम्मेवारी से बच निकलने की कोशिश कर रहे हैं.
“पड़ोसी से प्यार करो“, बाइबिल हुक्म देती है. “पड़ोसी भूखा न जाए“, हदीस का कहना है. हिन्दू धार्मिक भाषा में पड़ोसी की कल्पना नहीं मिलती. प्रतिवेशी शब्द बाद का गढ़ा हुआ है.फिर भी हर जगह धर्म–विरोधी होने पर पड़ोसी की ह्त्या की जा सकती है.यूरोप ने पड़ोसी यहूदियों को तो निकाल बाहर ही कर दिया और तभी उनका हमदर्द हो पाया.अपना पड़ोस खो आए यहूदियों ने अपने अरब मुसलमान पड़ोसियों के साथ जो बर्ताव किया उसने अंतर्राष्ट्रीय घृणा और हिंसा का अंतहीन सिलसिला ही शुरू कर दिया मुज़फ्फरनगर में पड़ोस का ढहना लेकिन इस ओर इशारा तो है ही कि हम पड़ोस की संभावनाओं पर और गहराई से विचार करें.
( Published first in Jansatta on 20 october,2013)
अस्सी के दशक के अंत में और ९० के दशक की शुरुआत में हम एक्ट वन का ये गीत बहुत गाते थे
“कौन पडोसी बोलो तुम पर हमला करता
प्यार की बोली बोलो तो वो झुक झुक मरता”
हमारा मानना था कि मूलतः पडौसी एक दुसरे से मोहब्बत करते है और एक दुसरे के काम आने को तत्पर रहते है. बस कुछ सांप्रदायिक राजनातिक दखलंदाजी की वजह से ये झगड़े होते है. सामान्यतः हमारी फिल्मो और अख़बारों द्वारा भी ये ही सन्देश प्रचारित किया जाता है …..
पर इस लेख ने महत्वपूर्ण मुद्दे को उभारा है …अगर वास्तव में हम अपने पडौसी से इतनी मोहब्बत करते है तो आखिर एक छोटे से बहकावे के कारण क्यों उसके खून के प्यासे और जान के दुश्मन हो जाते है और वो सब कर गुजरते है जिसकी कल्पना भी दिल दहलाने वाली है
क्या हमारा पडौसी प्रेम एक धर्म, कौम और जाती तक सीमित है ?….पडौसी की मदद करने की चाहत भी कुछ पडौसियों तक सीमित है ?
अपूर्वानंद ने ठीक ही कहा है कि दंगो के वक़्त एक दुसरे की मदद के किस्से शायद अपवाद ही हैं जिन्हें हम बरसो दोहराते रहते हैं…..वास्तविकता ये ही है कि दुसरे धर्मो और जातियों के प्रति घृणा हमारे रोम रोम में बसी है …हम सिर्फ इन्जार करते हैं ऐसे मौकों का और मौका मिलते ही किसी हद से गुजरने से नहीं चूकते. इतिहास में हुए दंगो को बारीकी से देखें तो यही नज़र आता है
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