आई आई टी मद्रास – आधुनिक दौर का अग्रहरम !

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नागेश / बदला हुआ नाम/ – जो आई आई टी मद्रास में अध्ययनरत एक तेज विद्यार्थी है, तथा समाज के बेहद गरीब तबके से आता है – उसे उस दिन मेस में प्रवेश करते वक्त़ जिस अपमानजनक अनुभव से गुजरना पड़ा, वह नाकाबिले बयानात कहा जा सकता है। उसे अपने गांव की जातीय संरचना की तथा उससे जुड़े घृणित अनुभवों की याद आयी। दरअसल किसी ने उसे बाकायदा मेस में प्रवेश करते वक्त़ रोका और कहा कि अगर वह मांसाहारी है, तो दूसरे गेट से प्रवेश करे।

मेस के गेट पर बाकायदा एक पोस्टर लगा था, जिसे इस नये ‘निज़ाम’ की सूचना दी गयी थी। यहां तक कि अपने खाने की पसंदगी के हिसाब से हाथ धोने के बेसिन भी बांट दिए गए थे। ‘शाकाहारी’ और ‘मांसाहारी’। एक रिपोर्टर से बात करते हुए नागेश अपने गुस्से को काबू करने में असमर्थ दिख रहे थे। उन्होंने पूछा कि आखिर आई आई टी का प्रबंधन ऐसे भेदभावजनक आदेश को छात्रों से सलाह मशविरा किए बिना कैसे निकाल सकता है।

ताज़ा समाचार के मुताबिक उन भेदभावसूचक पोस्टरों को हटा दिया गया है क्योंकि ‘‘अस्पृश्यता की अलग ढंग से वापसी’’ को बयां करनेवाले इस निर्णय की राष्टीय स्तर पर उग्र प्रतिक्रिया हुई थी और प्रबंधन इस निर्णय का जिम्मा केटरर पर डाल कर अपने आप को बचाना चाह रहा है। वैसे एक साधारण व्यक्ति भी बता सकता है कि एक अदद केटरर – जो एक ठेकेदार होता है तथा नियत समय के लिए खाना बनाने का ठेका हासिल किए रहता है – वह बिना उपरी आदेश के ऐसे परिवर्तनों को अंजाम नहीं दे सकता है, अलसुबह मेस को दो हिस्सों में बांट नहीं सकता है और अपने ग्राहकों को यह निर्देश नहीं दे सकता है कि वह खाने की पसंदगी के हिसाब से अलग अलग गेट से प्रवेश करें।

इस पूरे प्रसंग की चर्चा करते हुए, अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल – जो संस्था में सक्रिय छात्रों का एक समूह है – जिसने इस मसले को राष्टीय स्तर की सूर्खियों में लाने का काम किया, का कहना था कि किस तरह

‘‘आधुनिक’’ समाज में जाति अलग रूप धारण कर लेती है। आई आई टी मद्रास परिसर में, वह शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए अलग अलग प्रवेशद्वारों, बर्तनों और डाइनिंग एरिया के रूप में प्रतिबिम्बित होती है।

((https://www.facebook.com/search/top/?q= ambedkar%2 0periyar%2 0study% 20circle% 20iit%20madras%20vegetarianism&epa=SEARCH_BOX))

मालूम हो कि यह वही छात्रों का समूह है – जिसमें मुख्यतः दलित, बहुजन और आदिवासी छात्र शामिल हैं – जिसकी मान्यता संस्थान के प्रबंधन ने 2015 में मानव संसाधन मंत्रालय के नौकरशाहों के आदेश पर खतम की थी। वजह यही बतायी गयी थी कि यह समूह प्रधानमंत्राी मोदी की नीतियों का आलोचक रहा है और वह जाति, साम्प्रदायिकता तथा संसाधनों की कार्पोरेट लूट के मुददों को उठाता रहा है। यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह देशव्यापी प्रतिरोध के बाद आई आई टी प्रबंधन को अपना यह फैसला वापस लेना पड़ा था।

समूह ने मेसों के इस बंटवारे की चर्चा करते हुए आगे लिखते हुए इसमें निहित पाखण्ड को उजागर किया था कि किस तरह भारत में 80 फीसदी लोग मांसाहारी हैं तबभी

‘‘ अभिजात जगहों और संस्थानों पर मांसाहारी खाने के प्रति एक प्रतिबंध दिखाई देता है, जिसकी वजह ब्राहमणवादी संस्कृति में छिपी है।’’/ वही/

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(Photo Courtesy : New Indian Express)

वैसे क्या महज संस्थान को प्रबंधन को ही इस भेदभावमूलक फैसले के लिए अकेले जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ?

हां और नहीं भी !

दरअसल, शाकाहारवाद के प्रति यह बढ़ता जोर केन्द्र तथा विभिन्न राज्यों में भाजपा की हुकूमत के साथ सीधे रूप से जुड़ा है। यह बात विदित है कि स्मृति इराणी की अगुआई में मानव संसाधन मंत्रालय ने विश्वविद्यालय परिसरों के एक अलग किस्म की निगरानी का सिलसिला शुरू किया था और यह जानने की कोशिश की थी कि वहां के रसोईघरों में क्या खाना पक रहा है, जिसकी शुरूआत मध्यप्रदेश के राष्ट्रीय   स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता द्वारा केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को भेजे एक पत्र के बाद हुई थी । (https://www.thehindu.com/news/national/rss-pracharak-writes-letter-to-hrd-ministry-seeking-ban-on-nonveg-food-in-iits/article6545295.ece)

आई आई टी और आई आई एम के निेदेशकों को पत्र लिख कर मंत्रालय की तरफ से पूछा गया था कि वहां खाना बनाने और केटरिंग के किस किस्म के इंतज़ाम हैं और इस सम्बन्ध में उन्हें ‘‘एक्शन टेकन’’ रिपोर्ट भेजने को कहा गया था। अपने पत्र में संघ के उपरोक्त स्वयंसेवक ने – जो आई आई टी से किसी भी रूप में जुड़ा नहीं था और न ही उसकी संतान या उसके परिवार के सदस्य वहां पढ़ रहे थे – शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के अलग अलग बैठने का इन्तज़ाम करने की मांग की थी, उसका दावा था कि ‘‘यह संस्थान पश्चिम की कुसंस्कृति  को फैला रहे हैं और माता पिताओं को दुखी कर रहे हैं।’’

कहा जा सकता है कि हाल के समयों में शाकाहारवाद को बढ़ावा देने की यह सनक नयी उंचाइयों तक पहुंचती दिख रही है और इस बात की खुल्लमखुल्ला अनदेखी की जा रही है कि एक ऐसे मुल्क में जहां आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी चिरकालिक भूख का शिकार है और वह दुनिया के ‘‘वैश्विक भूख सूचकांक में 131 में नम्बर पर स्थित है’’ और यह बेहद क्रूर कदम है कि लोगों को विशिष्ट अन्न खाने से वंचित किया जाए, जो उनके लिए सस्ते प्रोटीन का एकमात्र स्त्रोत है। यह अलग बात है कि बहुसंख्यक समुदाय की आस्था की सुरक्षा के नाम पर लोगों को बताया जा रहा है कि उन्हें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, और लोगों के भोजन का ही अपराधीकरण किया जा रहा है।

और यह इस तथ्य के बावजूद कि भारत की बहुलांश आबादी मांसाहारी है।

मालूम हो कि भारत की जनता का अब तक का सबसे आधिकारिक सर्वेक्षण जिसे ‘पीपुल आफ इंडिया सर्वे’ कहा गया था, जिसे एंथ्रोपॉलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के तत्वावधान में अंजाम दिया गया, वह 1993 में पूरा हुआ था। आठ साला इस अध्ययन का संचालन सर्वे के महानिदेशक कुमार सुरेश सिंह ने किया था जिन्होंने भारत के हर समुदाय की हर रिवाज, हर रस्म का गहराई से अध्ययन किया। सर्वेक्षण के अंत में सर्वे आफ इंडिया की टीम ने पाया कि देश में मौजूद 4,635 समुदायों में से 88 फीसदी मांसाहारी हैं।

(https://www.downtoearth.org.in/coverage/meaty-tales-of-vegetarian-india-47830)

खाने के चॉईस/पसंदगियों-नापसंदगियों को लेकर यह अपराधीकरण/लांछन लगाने का काम महज बीफ अर्थात गोवंश मांस तक सीमित नहीं है, जिस पर तमाम भाजपाशासित राज्यों में पहले से ही पाबंदी लगी है। वह तमाम अन्य मांसाहारी खानों यहां तक कि अंडों तक भी फैली है। भाजपाशासित राज्यों में ‘‘अवैध’’ होने के नाम पर बूचड़खानों पर लगायी जा रही पाबन्दी इसी का प्रतिबिम्बन है।

इस बात के बावजूद कि अंडे प्रोटीन का अच्छा स्त्रोत हैं और नेशनल इन्स्टिटयूट आफ न्यूटिशन इस बात पर जोर देता रहा है कि स्कूली बच्चों के मिड डे मील में अंडों को अनिवार्य किया जाए, हम यह देखते हैं कि अब तक भाजपा शासित 15 राज्यों में / जिनमें से तीन में से उसकी हुकूमत अब खतम हो चुकी है/ स्कूलों के मिड डे मील में अंडे को शामिल नहीं किया गया है। हम याद कर सकते हैं कि किस तरह मध्यप्रदेश में इसके पहले सत्तासीन शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने मिड डे मील में अंडे देने का विरोध किया था और कहा था कि इसके बजाय बच्चों को केले दिए जाएं जबकि यह स्पष्ट था कि केले नाशवान होते हैं।

अधिक विरोधाभासपूर्ण बात यह है कि वही पार्टी जो आम तौर पर बीफ खाने का विरोध करती है, उसके लिए तमाम दमनकारी कानून बनाने में संकोच नहीं करती है, वही पार्टी उन चन्द राज्यों में जहां बीफ पर पाबंदी नहीं लगी है और जो खाने का हिस्सा है – वहां यह कहने में संकोच नहीं करती कि अगर वह हुकूमत में आती है तो वह अच्छी क्वालिटी के बीफ का इन्तजाम करेगी /केरल/ या इस बात को सुनिश्चित करेगी कि उसके राज्य में बीफ पर पाबन्दी न लगे /गोवा/ या उसके मातृसंगठन  राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के लोग उत्तर पूर्व के लोगों को यह कहकर लुभाते हैं कि संघ का सदस्य बनने में बीफ खाना कोई बाधा नहीं बनेगा ।  ( https://www.northeasttoday.in/manmohan-vaidya-beef-consumers-can-become-rss-members/)

वैसे ऐसा कुछ होगा इसका पूर्वानुमान तभी लगाया जा सकता था जब गुजरात सरकार जैन समुदाय की मांगों के आगे झुकी थी और उसने गुजरात के पलीटाना, जो भावनगर के पास स्थित है तथा जिसे जैन पवित्रा स्थान मानते हैं, को खालिस ‘‘शाकाहारी क्षेत्रा’’ घोषित करने के निर्णय पर आननफानन में मुहर लगा दी थी, / वर्ष 2014/इस निर्णय के चलते न केवल इलाके में कसाईयों की ढाई सौ से अधिक दुकानें बन्द हो गयी थी और ऐसी अन्य दुकाने, रेस्तरांे पर भी ताला लगा था जो ऐसे सामानों को बेचते थे।

अगर हम आई आई टी मद्रास के इस निर्णय की ओर लौटें – जिसमें आहार की पसंदगियों को लेकर ‘‘अलग अलग द्वार’’ बनाए गए थे – तो यह कहना सही नहीं होगा कि संस्थान में मौजूद वातावरण शाकाहारवाद को बढ़ावा देने के लिए अनुकूल नहीं था, जो ऐसा विचार है जो ‘‘ब्राहमणवादी संस्कृति ’’ से मेल खाता है।

अपने निबंध ‘एन एनोटोमी आफ द कास्ट कल्चर एट आई आई टी मद्रास’ में अजंता सुब्रम्हणियम, जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय में सोशल एन्थ्रोपोलोजी की प्रोफेसर हैं और जो आई आई टी में जाति और मेरिटोक्रेसी/प्रतिभातंत्रा की पड़ताल कर रही हैं, (http://www.openthemagazine.com/article/open-essay/an-anatomy-of-the-caste-culture-at-iit-madras)  उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि किस तरह ‘‘जाति और जातिवाद ने आई आई टी मद्रास को लम्बे समय से गढ़ा है, और जिसका आम तौर पर फायदा उंची जातियों ने उठाया है’। वह ंसंकेत देती हैं कि

‘जब तक 2008 में ओबीसी आरक्षण लागू नहीं हुआ था तब तक जनरल कैटेगेरी अर्थात सामान्य श्रेणी से कहे जाने वाले 77.5 फीसदी एडमिशन में’ अधिकतर उंची जातियों का दबदबा रहता था। उनके मुताबिक ‘‘न केवल छात्रा बल्कि आई आई टी मद्रास की फैकल्टी के बहुलांश भी उंची जातियों का वर्चस्व था जहां एक तरफ जनरल कैटेगरी से जुड़े 464 प्रोफेसर्स थे वहीं ओबीसी समुदाय से 59, अनुसूचित तबके से आनेवाले 11 तथा अनुसूचित जनजाति समुदाय से आने वाले 2 प्रोफेसर थे।’

आई आई टी की संस्कृति में उत्पीड़ित जातियों के प्रति एक किस्म का विद्वेष/घृणाभाव  किस कदर व्याप्त है इसे इस बात से भी देखा जा सकता है कि सत्तर के दशक में जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए वहां सीटें आरक्षित की गयीं, तब जिस व्यक्ति ने इस प्रावधान का जबरदस्त विरोध किया था वह थे प्रोफेसर पी वी इंदिरेसन, जिन्हें 1979 से 1984 के दरमियान संस्थान के निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया था।

1983 की अपनी डाइरेक्टर की रिपोर्ट में इंदिरेसन ने ‘‘सामाजिक तौर पर वंचित’’ – जो विशेष सुविधाओं की मांग करते हैं और ‘‘प्रतिभाशाली’’ उंची जातियों जो ‘‘अपने अधिकारों के बलबूते’’ स्थान पाने के हकदार होते हैं, इसमें फरक किया था। उनके लिए और उनके जैसे तमाम लोगों के लिए, उंची जातियां ही वह एकमात्र ‘‘प्रतिभाशाली’’ होती हैं, जो एक जातिविहीन, जनतांत्रिक और प्रतिभाशाली नियम के अनुसार चलती है जिसे आरक्षण की नीतियों से खतरा पैदा हो गया है। वर्ष 2011 में यह इंदिरेसन ही थे जो पिछड़ी जातियों के लिए 2006 में प्रदान किए गए आरक्षण की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने के लिए अदालत पहुंचे थे। /वही/

दिलचस्प बात थी कि यह अध्ययन उस रिपोर्ट को ही पुष्ट कर रहा था जिसका जिक्र ‘‘तहलका’’ ने कुछ साल पहले की अपनी रिपोर्ट में किया था। कुछ साल पहले ‘तहलका’ ने ‘कास्ट इन कैम्पस: दलितस नाट वेलकम इन आई आई टी मद्रास’ शीर्षक से एक स्टोरी की थी (http://archive.tehelka.com/story_main31.asp?filename=Ne160607Dalits_not.asp) जिसमें उसने ‘इस अभिजात संस्थान के चन्द दलित छात्रों और शिक्षकों के बारे में विवरण दिया था, जिन्हें व्यापक प्रताडना का शिकार होना पड़ता है।’’ रिपोर्ट के मुताबिक

‘‘आई आई टी मद्रास जैसे संस्थानों ने अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए निर्धारित 22.5 फीसदी कोटा का एक हिस्सा ही प्रदान किया है। इन्स्टिटयूट के डेप्युटी रजिस्टार डाक्टर पंचालन द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सितम्बर 2005 में, छात्रों में दलितों की तादाद 11.9 फीसदी थी, वे उच्च पाठयक्रमों में और कम संख्या में थे दृ 2.3 फीसदी रिसर्च में और 5.8 फीसदी पीचडी में।..

नौकरियों के क्षेत्र में भी वही स्थिति है

उन पर एक अन्य गंभीर आरोप है कि संस्थान के निदेशकों ने फैकल्टी सदस्य नियुक्त करने के मामले में नियमों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया है और वे रिक्तियों की जानकारी अख़बारों में नहीं देते है।

लेख में इस बात का भी उल्लेख था कि ‘संकाय सदस्यों की 460 की संख्या का और छात्रों का बहुलांश ब्राहमण ही है।’ गणित विभाग की असिस्टेण्ट प्रोफेसर सुश्री वसंता कंडासामी ने रिपोर्टर को बताया था कि संस्थान की समूची फैकल्टी मंे महज चार दलित हैं जो संख्या कुल फैकल्टी संख्या का महज .86 पड़ती है। ध्यान देनेयोग्य है कि इस खुलासे को लेकर और अन्य आई आई टी में उसी किस्म की स्थितियों को लेकर हुए खुलासे का मामला आया गया हो गया।

यह अकारण नहीं कि ऐसे लोग जो दलितों के लिए आरक्षण पर उचित अमल की बात करते हैं, उनके मुताबिक ‘‘आई आई टी मद्रास वाकई में आधुनिक समय का अग्रहरम  अर्थात ब्राहमणों का अडडा है’।  (http://archive.tehelka.com/story_main31.asp?filename=Ne160607Dalits_not.asp)

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