हर वर्ष इकतीस जुलाई को दिल्ली में ‘हंस’ पत्रिका की ओर से किसी एक विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया जाता रहा है. बातचीत का स्तर जो हो, यह एक मौक़ा होता है तरह-तरह के लेखकों, पाठकों और साहित्यप्रेमियों के एक-दूसरे से मिलने का. कई लोग तो वहीं सालाना मुलाकातें करतें है. मेरी शिकायत हंस के इस कार्यक्रम से वही रही है जो दिल्ली में आमतौर पर होने वाले हिंदी साहित्य से जुड़े अन्य कार्यक्रमों से है: इंतजाम के हर स्तर पर लापरवाही और लद्धड़पन जो निमंत्रण पत्र में अशुद्धियों और असावधानी से लेकर कार्यक्रम स्थल पर अव्यवस्था, मंच संचालन में अक्षम्य बेतकल्लुफी तक फैल जाता है.प्रायः वक्ता भी बिना तैयारी के आते हैं और जैसे नुक्कड़ भाषण देकर तालियाँ बटोरना चाहते हैं.ऐसे हर कार्यक्रम से एक कसैला स्वाद लेकर आप लौटते हैं. श्रोताओं के समय, उनकी बुद्धि के प्रति यह अनादर परिष्कार के विचार का मानो शत्रु है. मैं हमेशा अपने युवा छात्र मित्रों को ऐसी जगहों पर देख कर निराशा से भर उठता हूँ : ये सब यहाँ से हमारे बारे में क्या ख्याल लेकर लौटेंगे?
यह भी हिंदी के कार्यक्रमों की विशेषता है कि जितना वे अपने विषय के कारण नहीं उतना आयोजन , आयोजक और प्रतिभागियों के चयन से सम्बद्ध इतर प्रसंगों के कारण चर्चा में बने रहते हैं. चटखारे लायक मसाला अगर उसमें नहीं है तो शायद ही मंच पर हुई ‘उबाऊ’ चर्चा को कोई याद रखे. अक्सर सुना जाता है कि फलां को तो बुलाया ही इसलिए गया था कि विवाद पैदा हो सके. विवाद अपने आप में उतनी भी नकारात्मक चीज़ नहीं अगर उससे कुछ विचार पैदा हो. लेकिन प्रायः विवाद और कुत्सा में अंतर करना हम भूल जाते हैं. विवाद में फिर भी मानसिक श्रम लगता है, कुत्सा में मस्तिष्क को हरकत में आने की जहमत नहीं मोल लेनी पड़ती. Continue reading आत्ममुग्ध क्रांतिकारिता और वरवर राव : अपूर्वानंद
One of the issues that the Binayak Sen trial has revealed is the quality of the investigative process in the case and the nonchalance with which the police has flouted even routine guidelines, safeguards and rules.