आम आदमी पार्टी में जो कुछ भी हुआ उससे वे ही हैरान हैं जो पार्टियों की अंदरूनी ज़िंदगी के बारे में कभी विचार नहीं करते. किसी भी पार्टी में कभी भी नेतृत्व के प्रस्ताव से अलग दूसरा प्रस्ताव शायद ही कबूल होता हो .कम्युनिस्ट पार्टियों पर नेतृत्व की तानाशाही का आरोप लगता रहा है लेकिन कांग्रेस हो या कोई भी और पार्टी, नेतृत्व के खिलाफ खड़े होने की कीमत उस दल के सदस्यों को पता है. ऐसे अवसर दुर्लभ हैं जब नेतृत्व की इच्छा से स्वतंत्र या उसके विरुद्ध कोई प्रस्ताव स्वीकार किया गया हो. जब ऐसा होता है तो नेतृत्व के बदलने की शुरुआत हो जाती है.
भारत में पार्टियों के आतंरिक जीवन का अध्ययन नहीं के बराबर हुआ है.ऐसा क्यों नहीं होता कि निर्णयकारी समितियों के सदस्य खुलकर, आज़ादी और हिम्मत के साथ अपनी बात कह सकें? यह अनुभव उन सबका है जो पार्टियों में भिन्न मत रखते ही ‘डिसिडेंट’ घोषित कर दिए जाते हैं.यह भी समिति की बैठक के दौरान जो उनके खिलाफ वोट दे चुके हैं वे अक्सर बाहर आकर कहते हैं कि आप तो ठीक ही कह रहे थे लेकिन हम क्या करते! हमारी मजबूरी तो आप समझते ही हैं ! Continue reading जीत की राजनीति की जीत