Guest post by RAJINDER CHAUDHARY
इच्छा और आशा में अंतर होता है. विशेष तौर पर किसान आन्दोलन के आलोक में, बहुत से लोगों की तरह मैं भी चाहता था कि भाजपा हारे और मुझे इस की थोड़ी आशा भी थी परन्तु कोई विशेष आस नहीं थी. भाजपा की जीत मेरे लिए दुखदायी है परन्तु अनपेक्षित नहीं है. चुनाव परिणामों की समीक्षा के तौर पर बहुत कुछ लिखा-कहा गया है परन्तु एक महत्वपूर्ण पक्ष का ज़िक्र कम हुआ है.
क्या उत्तरप्रदेश, जिस का कम से कम एक हिस्सा किसान आन्दोलन के सक्रिय केन्द्रों में शामिल था, में भाजपा की जीत से यह साबित हो जाता है कि भारतीय मतदाता हिन्दुत्ववादी हो गया है? ऐसा बिलकुल नहीं है. भाजपा को उतर प्रदेश में कुल पंजीकृत मतदाताओं के 25% ने ही वोट दिया है. भाजपा के वोट अनुपात में जिस बढ़ोतरी की चर्चा हो रही है वह असल में वोट डालने वालों में से भाजपा के पक्ष में वोट डालने वालों के अनुपात की बढ़ोतरी है. ग़ैर-भाजपा वोटर के वोट ही न देने से और भाजपा वोटर के पहले की तरह वोट देने मात्र से भाजपा के समर्थन में बढ़ोतरी दिखाई देती है. वास्तविकता यह है कि 10 में से लगभग 4 पंजीकृत वोटर तो इतने निराश हैं कि वे वोट डालने ही नहीं गए (वोट न डालने वालों का एक छोटा हिस्सा निश्चित तौर पर ऐसा होगा जो किसी अन्य कारण जैसे शहर से बाहर होने के कारण या अन्य व्यस्तता के चलते वोट नहीं डाल पाया होगा परन्तु यह हिस्सा बहुत छोटा ही होने की संभावना है). 2017 में भी कुल पंजीकृत वोटरों में से भी लगभग इतने ही प्रतिशत वोटरों ने भाजपा के पक्ष में वोट डाला था. यानी बहुमत अभी भी हिन्दू वादी नहीं है, उत्तर प्रदेश में भी नहीं.
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