अतिथि पोस्ट : अनन्त प्रकाश नारायण
भूख हड़ताल का बारहवां दिन (12th Days) चल रहा है. प्रशासन कितना दवाब में है कुछ भी कहा नही जा सकता है. हाँ, अगल बगल के हालात देख कर, बात-चीत सुन कर इतना तो जरुर समझ में आ रहा है कि कुछ तो “अन्दर” जरुर चल रहा है. अध्यापक संघ हमारे साथ खड़ा है. उन्होंने हमारे समर्थन में एक दिन का भूख हड़ताल भी किया और अब क्रमिक भूख हड़ताल पर है. हमसे हमारे शुभचिंतको द्वारा बार बार आग्रह किया जा रहा है कि हम भूख हड़ताल को छोड़े. हम जब इस भूख हड़ताल पर बैठ रहे थे तो हमारे सामने की स्थिति ने हमे चेता दिया था कि ये करो या मरो की स्थिति है. इसलिए हमने नारा/स्लोगन भी दिया कि ये भूख हड़ताल हमारी मांगो तक या फिर हमारी मौत तक. हमारी मांग बिलकुल स्पष्ट है कि हम अलोकतांत्रिक, जातिवादी उच्चस्तरीय जांच कमिटी को नहीं मानते है. इसलिए इसके आधार पर हम कुछ छात्र-छात्राओ पर जो आरोप व दंड लगाये गए है उनको ख़ारिज किया जाये और प्रशासन बदले की भावना से इन छात्र-छात्राओ पर कार्यवाही करना बंद करे और जे.एन.यू. के एडमिशन पालिसी को लेकर कुछ मांगे है. सजा क्या है? कुछ का विश्वविद्यालय से निष्कासन, कुछ का हॉस्टल-निष्कासन और कुछ लोगों पर भारी जुर्माने की राशि और कुछ लोगों के उपर यह सब कुछ. अब जब हम आन्दोलन में है तो यह साफ़ साफ़ देख पा रहे है कि यही तो हुआ था हैदराबाद के साथियों के साथ. एक एक चीज हू-ब-हू बिलकुल इसी तरह. इसी तरह से हॉस्टल से निकल कर सड़क पर रहने के लिए विवश किया गया था. इसी तरह तो कोशिश की गई थी रोहित और उसके साथियों को देश और दुनिया के सामने एंटी-नेशनल के तमगे से नवाज देने की. नतीजा क्या हुआ सबके सामने है.
इस भूख हड़ताल के दौरान लोग हमसे मिलने आ रहे है. कुछ लोगों ने जुर्माने की राशि को जुटाने का प्रस्ताव दिया, तो कुछ लोगों ने खुद ही जुर्माने की राशि देने का प्रस्ताव दिया. हम उनके प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं. लेकिन क्या यह लड़ाई कुछ दंण्ड/जुर्माने के खिलाफ लड़ाई है? नहीं, यह लड़ाई देश बचने की लड़ाई है. बहुत ही सरल शब्दों में कहा जाये तो इस लड़ाई से यह तय होगा कि इस सत्ता/सरकार के रहते इस देश में विरोध की आवाजो/dissents के लिए कोई जगह होगी की नहीं. जे.एन.यू का प्रोग्रेसिव स्टूडेंट मूवमेंट अपने क्रांतिकारी कलेवर के साथ अपनी पहचान लिए खड़ा रहता है. यह क्रांतिकारी स्टूडेंट मूवमेंट यह तय तो करता ही है कि इस कैंपस को इतना समावेसित/इंक्लूसिव बना कर रखा जाये कि समाज के सबसे निचले तबके के लिए भी यह विश्वविद्यालय का गेट खुला रहे लेकिन साथ ही साथ इस छात्र-आन्दोलन ने अन्दर और बाहर के मुद्दे का भी भेद मिटा दिया और देश के सामने एक वैकल्पिक राजनीति का मॉडल ले करके सामने आया.
बीते दिनों इस स्टूडेंट-मूवमेंट के साथ साथ पूरे जे.एन.यू को निशाने पर लिया गया और इसे एक संस्थान के रूप में देश-विरोधी ठहरा देने का प्रयास हुआ. आखिर देश है क्या? आखिर हम देशभक्ति माने किसे? अभी कुछ दिनों पहले हम देश की विभिन्न जगहों पर कैम्पेन में थे. उन सभाओ व परिचर्चाओ के दौरान भी देशभक्ति चर्चा का एक गर्म विषय रहा. उन सवालों को करने वाले लोग ही कई बार इन सवालो का जवाब दे देते. वो भारत का नक्शा दिखा कर के और भारत की सीमाओं को दिखाते हुए बोलते इन सीमाओं के भीतर जो कुछ भी है देश है. इसका मतलब पेड़-पौधे, रेलगाड़ी, प्लेटफार्म, पहाड़, जंगल, कारखाने, यहाँ के लोग, खनिज-संपदा, नदियाँ, तालाब, इत्यादि सब कुछ देश है. इस दौरान मुझे अपवादिक रूप से भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने देश की इस परिभाषा से असहमति जताई. देश के लिए प्रतीक बने, संविधान बना, कानून बने और जैसे-जैसे यह देश बदलता जाता है, आगे बढ़ता जाता है, उसी के आधार पर प्रतीक से ले करके कानून तक सब चीज़ों में परिवर्तन होता जाता है. देश के लिए प्रतीक होते हैं, प्रतीकों का कोई देश नहीं होता है. देश लगातार चलने वाली एक प्रक्रिया का हिस्सा है. देश रोज़ बनता है और हमेशा नये ढंग में हमारे सामने आता रहता है, जिसे इस देश का गरीब, किसान, मजदूर और बाकी मेहनतकश लोग बनाते है. अब लड़ाई इस बात की है कि यह देश किसका है? और इसका मालिक कौन होगा? इस देश की संपत्ति, संसाधनों पर हक किसका होगा? यही गरीब, मजदूर, किसान और मेहनतकश लोग जो रोज़ इस देश को बनाते है, जब अपने हक के लिए खडे होते है तो इस देश की सत्ता/सरकार चंद पूंजीपतियों के साथ क्यूँ खड़ी हो जाती है? और इस देश को बनाने वालों के हक में जब जे.एन.यू. जैसे संस्थान आवाज़ उठाते हैं तो उसे देशद्रोही करार देने की कोशिश क्यों होती है?
जिस समय जे.एन.यू. का मसला ही पूरे देश में चर्चा का विषय बना रहा उस समय जे.एन.यू. प्रशासन व इस देश की सत्ता ने बड़ी चालाकी से अपने मंसूबों को पूरा करने में इस समय का इस्तेमाल किया. यह सर्वविदित है कि जे.एन.यू. अपनी एडमिशन पालिसी के कारण ही अपना एक इनक्लूसिव/समावेशिक कैरेक्टर बना पाया है. लगभग 24 साल से चली आ रही इस पालिसी को प्रशासन ने बदल दिया और स्टूडेंट कम्युनिटी को कुछ खबर तक नहीं हुई. दूसरा, ओबीसी के मिनिमम एलिजिबिलिटी कट ऑफ, जिसको चार साल (4 years) के लम्बे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जा करके इस जे.एन.यू. प्रशासन के खिलाफ जीत कर लाया गया था और इसे सिर्फ जे.एन.यू. नही पूरे देश के संस्थानों के लिए अनिवार्य किया गया था, उसको ख़त्म कर दिया गया और किसी को कानो-कान खबर नहीं हुई. इसी तर्ज पर दूसरी तरफ सत्ता में बैठे लोगों ने इस समय का फायदा विजय माल्या को इस देश के बाहर भेजने के लिए इस्तेमाल किया. ये सत्ता/सरकार की बहुत ही पुरानी तरकीब रही है कि अगर देश की कुछ रियल समस्याएँ हैं तो उसकी तरफ से ध्यान भटकाने के लिए कुछ ऐसा करो कि इस देश के लोगों का ध्यान उधर जाए ही ना. इस सरकार के 2 साल बीत जाने के बाद इनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस देश के लोगों के सामने गिना सके कि हमने क्या किया. ये चुनाव पर चुनाव हारते जा रहे हैं. तब इन्होने इस देश के लोगों का ध्यान उनकी विफलता से हटाने के लिए जे.एन.यू. “काण्ड” को गढ़ा. इस साजिश को साफ़ साफ़ समझा जा सकता है कि जब जे.एन.यू. का आन्दोलन चल रहा था उस समय भाजपा अध्यक्ष ने घोषणा की कि वह इस मामले को लेकर के यू.पी. के घर-घर में जाएंगे. यूपी के घर घर ही क्यूँ? क्यूंकि वहाँ चुनाव आने वाले हैं. धूमिल ने सत्ता/सरकार के इसी साजिश की ओर इशारा करते हुए हमे सावधान किया और लिखा कि
चंद चालाक लोगों ने
जिनकी नरभक्षी जीभ ने
पसीने का स्वाद चख लिया है,
बहस के लिए भूख की जगह भाषा को रख दिया है….
अगर धूमिल की इसी बात को और आगे बढाते हुए कहा जाए तो आज भूख की जगह प्रतीकों/सिम्बल्स/नारों को रखने की कोशिश चल रही है. यानि हमारे जीवन की रियल समस्याओ से ध्यान हटा देने की हर बार की तरह एक कोशिश, एक साजिश .
जे.एन.यू. में जब ये आन्दोलन चल रहा है तब इस आन्दोलन को लेकर तरह तरह की शंकाए/भय, जो कि बहुत हद तक जायज़ भी है, ज़ाहिर किये जा रहे हैं. हमको यह कहा जा रहा है की इस प्रशासन से हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. हम इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि हमें इस प्रशासन से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. तब इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? हमारे सामने क्या रास्ता है? हमारे ऊपर जो दंडात्मक कार्यवाहियां हुई है, उनको मान लेना चाहिये? हमारा यह साफ़ साफ़ मानना है कि ये दंडात्मक कार्यवाहियां हमारे उपर एक विचारधारात्मक कार्यवाही (ideological punishment) है. भले ही यह कार्यवाही कुछ छात्र-छात्राओं पर की गयी है लेकिन इसका निशाना पूरा जे.एन.यू. ही है. इसका कारण स्पष्ट है कि जे.एन.यू. साम्प्रदायिकता व साम्राज्यवाद विरोधी होने के कारण हमेशा से सत्ता के निशाने पर रहा है. यहाँ पर समाज के हर तबके की आवाज़ के लिए एक जगह है और इतना ही काफी है आरएसएस के लिए कि वह जे.एन.यू. विरोधी हो. जेएनयू के छात्र आन्दोलन की विशेषता है कि यह कैम्पस के मुद्दों को उठाने के साथ साथ देश दुनिया में चल रही प्रत्येक चीज़ पर सजग रहता है, और ज़रूरत पड़ने पर हस्तक्षेप भी करता है और इसी का परिणाम है कि इस सरकार के सत्ता में आने से पहले और बाद में हमेशा से जब भी इन्होने इस देश के लोगों के खिलाफ कदम उठाएं हैं तब-तब इन्हें यहाँ के छात्रों के आन्दोलन/विरोध का सामना करना पडा है.
अब इन सारी चीज़ों को ध्यान में रखकर देखें तो हमें क्या करना चाहिए? नए कुलपति/वाईस-चांसलर साहब की नियुक्ति हुई है, वो अपने संघ के एजेंडे पर बेशर्मी और पूरी इमानदारी के साथ काम कर रहे है. उनको जे.एन.यू. के कैरेक्टर को ख़त्म करना है. ऐसे समय में छात्र-आन्दोलन की ज़िम्मेदारी क्या होगी? क्या हम लोग इस देश के छात्र-आन्दोलन के प्रति जवाबदेह नहीं है जबकि आज एक ऐतिहासिक जवाबदेही हमारे कंधो पर है. जे.एन.यू. के छात्र-आन्दोलन को इस देश में एक सम्मानजनक स्थान हासिल है. कई लोग तो इसे भारतीय छात्र-आन्दोलन का लाइट हाउस तक भी कह देते हैं. यह सही बात है कि हम जब किसी आन्दोलन में होते हैं तो हम यह तय करते है कि इस आन्दोलन से हमें कम से कम क्या निकाल कर लाना है. लेकिन इस आन्दोलन में क्या कुछ कम-ज्यादा/ मिनिमम-मैक्सिमम जैसा कुछ भी है? यह तो पूरे जे.एन.यू. को बचाने की लड़ाई है. यह देश के लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है. यह आन्दोलन सिर्फ आये हुए संकट को टाल देने के लिए नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के प्रति जवाबदेही के लिए भी है. अगर इस आन्दोलन को लेकर सोचने का नज़रिया होगा तो यह बिलकुल नहीं होगा कि इस आन्दोलन से कैसे निकला जाए, बल्कि यह होगा कि इस आन्दोलन में कैसे और धंसा जाए और इसे और कैसे धारदार बनाया जाये. अगर “उन्होंने” कुछ तय कर लिया है तो हमें भी कुछ तय करना होगा. हम किसी मुगालते या भावुकता में भूख हड़ताल में नहीं बैठे हैं बल्कि पूरी तरह से सोची समझी गयी राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ हम इस आन्दोलन में गए हैं. हम भी नहीं जानते है कि हमारी लड़ाई का अंजाम क्या होगा. आज हम अपनी लड़ाई को रोहित वेमुला की लड़ाई से अलग करके नहीं देखते हैं. रोहित ने हमें संदेश दिया कि अगर बर्बाद ही होना है तो लड़ते हुए बर्बाद हो. रोहित हम तुम्हारे दिखाए हुए रास्ते पर चल रहे हैं.
अनन्त प्रकाश नारायण
(लेखक जे.एन.यू. के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ लॉ एंड गवर्नेंस के शोध-छात्र हैं और जे.एन.यू. छात्र संघ के पूर्व उपाध्यक्ष हैं.)
Rohith is alive in the spirit of students and staff supporting him!
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120 million Dalits are with you ananth. This fight will go very long we have to get our land from barbaric many who had snatched our land , wealth and abru. Time has come not bend in front of Hindus and there Hindu led goverment in India .jai Bheem
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