बहुजन राजनीति की नयी करवट की अलामत है भीम आर्मी : प्रवीण वर्मा

Guest post by PRAVEEN VERMA

यूँ तो अम्बेडकर जयंती हर साल आती हैं और दलित-पिछड़े समुदाय का एक बड़ा तबक़ा इसे बड़ी शिद्दत से मनाता आया है। लेकिन इस बार अम्बेडकर का 126वां जन्मदिन कुछ और ही नज़ारा ले कर आया। यू॰पी॰ का सहारनपुर ज़िला जहाँ अच्छी ख़ासी तादाद में दलित समुदाय के लोग रहते हैं और अन्य जिलों की बनिस्बत ज़्यादा संगठित हैं, वहाँ दो आयोजनों और उसकी अनुमति को लेकर दबंग जाति के लोगों ने जम कर उत्पात मचाया, जिसका दलित समुदाय के द्वारा ना केवल डट कर मुक़ाबला किया गया बल्कि एक वाजिब जवाब भी दिया गया। हालाँकि प्रशासनिक कार्यवाही हमेशा की तरह एकतरफ़ा रही जिसमें 40 दलित युवकों को जेल में ठूँस दिया गया और दबंगो को सस्ते में जाने दिया गया। शब्बीरपुर की ये घटना(एँ) कई दिनों तक चलती रही जिसमें दबंग जाति के लोगों के अहम को चोट तो लगी ही, साथ ही साथ एक और संदेश दे गयी : जिस तरह से दबंग जाति के लोगों ने हिंसा को अपनी बपौती समझ लिया था, अब वैसा नहीं हैं, लगभग देश के कुछ हिस्सों में तो। 

इस घटनाओं के पीछे के कई कारणों में से एक कारण, लोकल लेवल पर कार्यक्रम (जुलूस, यात्रा इत्यादि) करने को लेकर ली जानी वाली पर्मिशन/अनुमति थी। हालाँकि, प्रशासनिक अनुमति ज़्यादातर सांकेतिक होती हैं, जिसमें अगर मामला ज़्यादा सीरीयस ना हो तो, लोकल लेवल की पुलिस, प्रशासन ज़्यादा दख़ल नहीं ही देती हैं। लेकिन जाति का अर्थशास्त्र इस तरीक़े से काम करता हैं की दलित दूल्हों को घोड़ी पर बैठने तक के लिए पुलिस प्रशासन के हाथ पाँव जोड़ने पड़ते हैं। इसके बावजूद भी ऐसी कितनी ही घटनाओं को हम गिना सकते हैं जहाँ पुलिस प्रटेक्शन के बावजूद दलित समुदाय के लोगों पर हमलें हुए हैं। क्यूँकि दबंग जातियों के लोग दलितों को इस तरीक़े से ख़ुशी मनाने को नहीं देख सकते हैं, और अपनी आन-बान और शान के ख़िलाफ़ समझते हैं।

हरियाणा के रोहतक जिले के एक गाँव का वाक़या हैं कि जब मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के बाद पिछड़े समुदाय के लोगों को रेज़र्वेशन मिला, तो उस घोषणा पर उत्सव मानते दलित-पिछड़ों के मौहले के पीने के पानी वाले कुएँ में दबंग जाति के लोगों ने मल फेंकना शुरू कर दिया। दलित-पिछड़ों का ख़ुशी मानना दबंगों को इतना नागवार गुज़रा की उन्होंने उनका जीना दूभर कर दिया।  वही ज़्यादातर दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यको को दबंग जातियों की उत्सवधर्मिता से कोई दिक़्क़त नहीं होती और होती भी है तो दबंग जाति के लोग इसकी कोई परवाह नहीं करते। दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यको को दोहरी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता हैं, पहली, प्रशासन से पर्मिशन लेना और दूसरा दबंग जातियों से अनाधिकारिक पर्मिशन लेना। पहली वाली पर्मिशन का दूसरी वाली पर्मिशन के बिना कोई अधिक अस्तित्व नहीं रहता, वो तो सिर्फ़ दूसरी वाली पर्मिशन के लिए कॉम्प्लिमेंट का काम करती हैं, उस से ज़्यादा कुछ नहीं। प्रशासन, दबंगों के इस सामंती व्यवहार को ही दोहराता हैं। 

शब्बीरपुर की घटना ने ये दिखा दिया कि अब इस वर्चस्व को तोड़ा ही जाएगा, चाहे फिर उसके लिए कितना ही संघर्ष क्यों ना करना पड़े! कि जब दलित समुदाय के लोगों को अम्बेडकर जयंती की जुलूस के लिए पर्मिशन नहीं मिली तो क्यूँ दबंग जाति के लोगों को महाराणा प्रताप जयंती के लिए जुलूस की पर्मिशन फलों की तश्तरी में रख कर दी गयी? प्रशासन का ये जातिवादी रवैया पता तो लगभग हर जिले, गाँव, देहात में होता हैं लेकिन इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना कोई हँसी खेल नहीं हैं। यही काम भीम आर्मी ने कर दिखाया। उसने दिखाया कि, कोई अगर हमारी भैंस का खूट्टा खोलेगा तो हम भी उसकी भैंस का खूट्टा ले जाएँगे। ‘हाणे (कमज़ोर) की बहू सबकी भाभी’ सा व्यवहार अब नहीं चलेगा! दलित अब कोई ‘राम की चिड़िया’ जैसे नहीं हैं, जो कभी इस खेत और कभी उस खेत चुग्गा ढूँढते फिरेंगे। 

जो लोग प्रोविंसीयल या ग्रामीण बैक्ग्राउंड से आते हैं, वे जानते हैं कि ये सब लिखना कितना आसान और करना कितना मुश्किल हैं। दबंगों के अहम को चोट पहुचाना और उन इलाक़ों में रह कर ऐसा करना, जहाँ अभी भी वही सामंती परम्परा चलती हों और अब जब योगी सरकार के वदहस्त नए रूप में फल-फूल भी रही हों, नामुमकिन के बराबर हैं। सिर्फ़ जान की बाज़ी लगाकर ही ऐसा किया जा सकता हैं। क्यूँकि दबंग जातियों की हिंसा का प्रतिवाद विशुद्ध रूप में जानलेवा हैं। 

प्रशासन, सरकार और दबंग जातियों के इसी जातिवादी गठजोड़ के ख़िलाफ़ दिल्ली के जंतर मंतर पर 21 तारीख़ 2017 दिन इतवार को एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन भीम आर्मी और उनके समर्थकों द्वारा किया गया था। ये विरोध कोई शांति मार्च, या शांतिपूर्वक होने वाले विरोध प्रदर्शनो जैसे नहीं था, बल्कि ये एक विशाल चेतावनी रैली थी जिसमें भीम आर्मी के समर्थन में और सहारनपुर घटना के विरोध में आए लोगों की तरफ़ से ये संदेश गया कि, जान लीजिए कि अब दलित किसी भी अत्याचार पर चुप नहीं बैठेंगे! अब ये विरोध memorandum, ज्ञापन देने वगैरह से कही आगे जा चुका हैं। आप भूल जाइए कि आप दलितों पर अत्याचार करेंगे, उनको गाँव से धक्के दे कर बाहर भगा देंगे, दलित महिलाओं के साथ रेप करेंगे, उनका सामाजिक बहिष्कार करेंगे और दलित डिस्ट्रिक्ट headquarters पर शांतिपूर्ण धरना देते रहेंगे और वहाँ से भी खदेड़े जाने का इंतेज़ार करेंगे।

इस पूरे घटनाक्रम में एक महत्वपूर्ण शख़्सियत थे चंद्रशेखर रावण। जिन पर उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका) के तहत मुक़दमा लगा दिया हैं और गिरफ़्तारी के वारंट ज़ारी कर रखे हैं। यहाँ ना केवल चंद्रशेखर रावण आते हैं बल्कि कई बेहद ज़रूरी बातें भी कहते हैं। जिसमें सब से अच्छी बात ये थी (ख़ास कर मेरे लिए), कि, कोई भी बात तथाकथित पढ़े-लिखे तबके के लिए नहीं थी। रावण ने कोई GDP और दलित backwardness को जोड़ कर नहीं बताया कि, दलितों को सरकार से कितना पैसा मिलना चाहिए थे, जो नहीं मिल रहा हैं और उनका शोषण हो रहा हैं, या सरकार में उच्च पदों पर उच्ची जातियों के कितने प्रतिशत लोग बैठे हैं और उनमें से कितने दलित-पिछड़े, अल्पसंख्यक होने चाहिए थे, या फिर आँकड़ों का वो खेल जिससे पता चलता कि, दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक तबके के ख़िलाफ़ मोदी सरकार का रवैया कैसा हैं। ये बातें हम सब जानते हैं और अमूमन हर एक ऐसे प्रोटेस्ट, धरनों, विरोध प्रदर्शनों में लगातार रिपीट भी करते रहते हैं। यहाँ पर महत्वपूर्ण बात थी रावण कि भाषा और उस भाषा की तल्खी. रावण ने कहा कि मनुवादियों, भगवाधारियों अब संभाल जाओ के, कोई भी दलित तुमसे डरने वाला नहीं हैं, तुम अगर एक मारोगे तो भीम आर्मी भी ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार खड़ी हैं। अगर कोई भी साथी हमारे मिशन में, बाबा साहेब के मिशन में अपना पसीना देने को तैयार हैं तो भीम आर्मी उसके लिए ख़ून बहाने के लिए तैयार हैं।

रावण कि भाषा परिष्कृत भाषा नहीं थी और उसे परिष्कृत होना भी नहीं था। भाषा का ये रूखापन और ग़ुस्सा जातिवाद और जातिवादी हिंसा के विरोध से आया था, ना की किताबी बातों से। और जातिवादी हिंसा के विरोध के निकले ग़ुस्से की अभिव्यक्ति परिष्कृत कैसे हो सकती हैं? ये भाषा और ग़ुस्सा वैसा ही था जैसा नामदेव ढ़साल की कविता ‘भूख’ में पढ़ा होगा। जहाँ ढ़साल की भाषा पर अश्लील होने का लांछन लगाया गया था। ऐसा ग़ुस्सा और भाषा वो ही बोल सकता हैं जिसने जातिवाद के ज़हर को झेला हैं। इस ग़ुस्से को, इस भाषा को परिष्कृत करना क्रिमिनल होता। परिष्कृत भाषा अमूमन नक़ली होती हैं और कंफ़्यूज करने के लिए गढ़ी जाती हैं, जिसमें असलियत की गुंजाइश ना के बराबर बचती हैं। ढ़साल जिस तरह से भूख के ख़िलाफ़ अपना ग़ुस्सा निकालते हैं, हो सकता हैं अगर वो ऐसा नहीं करते और अपनी भाषा परिष्कृत करके लिखते तो उसमें वो तल्खी, वो ग़ुस्सा, वो जूनून निकल कर नहीं आता जैसा कि वह निकल कर आया। ग़ुस्सा भोग से आता है जो उसकी असलियत ज़ाहिर करता हैं, बिना भोग के कैसा ग़ुस्सा? ये ग़ुस्सा कोई ऐब्स्ट्रैक्ट ग़ुस्सा नहीं हैं। ढ़साल में एक वर्ग चेतना थी, चंद्रशेखर रावण में भी एक वर्ग चेतना हैं, और उसकी भाषा, तल्खी और ग़ुस्सा जानता है कि इसके लिए ज़िम्मेदार लोग कौन हैं?  किनकी जवाबदेही है इस ग़ुस्से के लिए? ये कोई अंधेरी खाई में किया गया रुदनगान नहीं हैं जिसे ये तो पता हैं कि रोष क्यूँ हैं, लेकिन ये नहीं पता कि किसके ख़िलाफ़ है? इतना ऐब्स्ट्रैक्ट माहौल आजकल बुद्धिजीवियों के एक बड़े तबके में दिखता है, जो हैं तो शेर, लेकिन सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं (परसाई जी से माफ़ी के साथ।)

भीम आर्मी और रावण की भाषा में पुलिस के, प्रशासन के, उच्च जाति की दबंगई के ख़िलाफ़ भयंकर रोष हैं, जिसके ख़िलाफ़ लोग दिल्ली पहुँचे थे। चेतावनी दी गयी कि अगर सरकार में हिम्मत हैं तो वो चंद्रशेखर रावण को यहाँ (जंतर मंतर) से गिरफ़्तार करके दिखाए। रावण ने कहा कि ये मनुवादी सरकार अगर अपनी क़ौम की हक़ की लड़ाई लड़ने वाले को नक्सलवादी कहती हैं, तो हमको स्वीकार हैं नक्सलवादी होना। शब्बीरपुर में दलितों के ख़िलाफ़ झूठे केस बनाकर जिस तरह से उत्तर प्रदेश का योगी प्रशासन अपना जातिवादी चेहरा बेनक़ाब कर रही हैं उसके ख़िलाफ़ दिल्ली पहुँचें ये सभी आंदोलनकारी इस बात से सहमत दिखे कि बस अब और नहीं सहा जाएगा!

रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) को दरकीनार करते हुए रावण दिल्ली पहुँचे थे। इस तरह के क़िस्से अमूमन हम लोग हिस्ट्रीशीटर माफ़ियाओं, दबंगों या कुलीन राजनेताओं के बारे में ही सुनते और देखते आए थे। जिनको गिरफ़्तार करने में पुलिस महकमा और सरकारी तंत्र, ऐसे लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रभुत्व की वजह से हमेशा फ़ेल होता था। इतवार को जो हुआ वो अद्भुत था। एक ३० साल का दलित, जूझारू वक़ील जो सहारनपुर से आया था और दिल्ली में सरकार को ललकार कर चला गया और पुलिस कुछ भी ना कर पायी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। जो अपने आप में एक साहसिक और निर्भीक क़दम हैं।  

साहस अपने आप में एक अलहदा इमोशन हैं जिसमें आपको विपरीत परिस्थितियों में होने वाले डर का पता रहता है लेकिन फिर भी आप ख़तरा उठाने में पीछे नहीं रहते, आपको यथासंभव नतीजे का पता रहता है लेकिन ये यथासंभव नतीजा आपके साहस को डिगा नहीं सकता। ऐसा साहस देखने को मिला इतवार के विरोध प्रदर्शन में। चंद्रशेखर रावण और बाक़ी के वक्ताओं ने दो टूक कह दिया कि शब्बीरपुर, खैरलांजी या भगाणा का दूसरा नाम नहीं बल्कि, दलित अस्मिता का नया नाम है, जिसमें ड़र के लिए कोई जगह नहीं है।

जंतर मंतर पर इस धरने की बग़ल में ही हरियाणा के भगाणा गाँव से आए दलित परिवार पिछले 5 साल से दलित महिलाओं के साथ हुए बलात्कार और दलित परिवारों के सामाजिक बहिष्कार के विरोध में बैठे हुए हैं। ये दोनो केस राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग में दर्ज हैं। लेकिन दोनो केसो में पिछले पाँच सालों में कोई कार्यवाही नहीं हुई हैं। सामाजिक समता का नारा देनी वाली इस संघी सरकार का जातिवादी रवैया ऐसा हैं, कि पिछले कई महीनों से राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग के कई अहम पोस्ट ख़ाली पड़े हैं। मार्च 2017 से राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग में ना तो कोई चेयरमैन हैं, ना कोई उपाध्यक्ष और कई सदस्य भी नहीं नियुक्त किए गए हैं। इसी आयोग के पास हरियाणा के भगाणा से लेकर, रोहित वेमुला की हत्या, ऊना कांड और ना जाने कितने केसों की फ़ाइलें धूल फाँक रही हैं।

हालाँकि रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के बाद पूरे देश के प्रगतिशील तबके के विभिन्न धड़ों (अंबेडकरवादी, मार्क्सवादी, वाम मोर्चा, महिलावादी, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं) के बीच एक समन्वय की शुरुआत तो हुई थी लेकिन वह कहा तक पहुँची है ये कहना थोड़ा मुश्किल है। हो सकता है कि, पुराने नारों और पुराने विमर्शों से थोड़ा अलहदा हो कर ही कुछ नयी शुरुआत हो सकेगी। जिसके लिए एक बार फिर से सही मौक़ा मिला है। जिसका इस्तेमाल जातिवाद के खिलाफ़ भीम आर्मी के समर्थन में आया आह्वान ब्राह्मणवाद की जड़ों को खोदने का काम कर सकता है। 

प्रवीण वर्मा दिल्ली विश्वविद्यालय से  इतिहास में पीएचडी कर रहे हैं और एन एस आई  के साथ जुड़े हैं.

One thought on “बहुजन राजनीति की नयी करवट की अलामत है भीम आर्मी : प्रवीण वर्मा”

  1. 120 million dalits should join with 120 million muslims to give two fingers to Hindus and there Hindu led government,these Hindus has formed VHP,Bajrang Dal,Hindu vahni why not Bheem sena.we must tell these grass eater that our forefather were removing skin from dead cow but in 21 st century we can skinned alive Hindus

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