Guest post by VAIBHAV SINGH
सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निजता के अधिकार संबंधी फैसले ने निजी बनाम सार्वजनिक, व्यक्ति बनाम समाज, सरकार बनाम नागरिक के द्वैत को फिर बहस के केंद्र में ला दिया है।ऐसा समाज जहां गली-मोहल्लों व गांव-देहातों में निजी जानकारी छिपाने की कोई धारणा न तो रही है, न उसका सम्मान रहा है, उसी समाज में बड़े कारपोरेशन, सरकारी तंत्र व राज्य ने जब निजी जानकारियों का दुरुपयोग करना आरंभ किया तो गहरी प्रतिक्रिया हुई। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि राज्य व बड़े कारपोरेशन्स समाज के लिए ‘बाहरी शक्ति’ के रूप में रहे हैं। वे पराए, अजनबी और अनजान तत्व हैं जो मनुष्य की निजी सूचना जुटा रहे हैं। उनके बाहरी शक्ति और विशाल संरचना होने के बोध ने निजी जानकारी के मुद्दें पर लोगों को उद्वेलित कर दिया। आधार कार्ड, सोशल साइट्स, सरकारी स्कीम आदि कई चीजें ऐसी रही हैं, जिनका सहारा लेकर नागरिकों की निजी जानकारियों मे बड़े पैमाने पर सेंध लगाई जा रही है और उन जानकारियों को निहित स्वार्थ वाले बेचेहरा व अज्ञात समूहों में शेयर किया जा रहा है। ऐसे माहौल में सुप्रीम कोर्ट का ‘राइट टु प्राइवेसी’ को स्वीकृति देते हुए यह कहना काफी मायने रखता है कि अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति की गरिमा और निजता की भी रक्षा की जाए। व्यक्ति को यह पता हो कि उसकी निजी जानकारियां किसे, कब और क्यों दी जा रही हैं। कानून या राज्य के पास निजता को समाप्त करने के मकसद से देश का विकास, प्रशासनिक मजबूरी या डेटा-कलेक्शन की जरूरत का तर्क देने का विकल्प नहीं है।कोर्ट ने अपने फैसले में ‘सेक्सुअल ओरियंटेशन’ के बारे में टिप्पणी करते हुए इसे भी निजता के दायरे में रखा है।मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संवैधानिक पीठ का निर्णय आधार कार्ड के प्रसंग में सामने आया है, पर देश की हिंदुत्ववादी राजनीति के विभिन्न किस्म के सरगना भी सकते में हैं।आधार कार्ड के पक्ष में उनकी अपनी छप्पन इंच सीने वाली सरकार के सारे तर्क सुप्रीम कोर्ट में खारिज किए जा चुके हैं।
हिंदुत्व मूलतः एक पहचान का राजनीतिक सिद्धांत है जो धर्म का सियासी इस्तेमाल करता है।इस शब्द को 1923 में गढ़ने वाले विनायक दामोदर सावरकर खुद मानते थे कि हिंदुत्व का संबंध हिंदू धार्मिक विश्वासों से कम बल्कि आधुनिक समय में हिंदुओं के राजनीतिक अधिकार से है। इसीलिए हिंदुत्व का हिंदू धर्म की ज्ञान-परंपरा, आध्यात्मिकता और विविधता से गहरा बैर रहा है। वह भीड़, रैली, प्रदर्शन या दंगे के लिए हिंदू धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग कर सकते हैं, पर प्रतीकों का इस्तेमाल भी केवल ‘इंस्ट्रुमेंटलिस्ट’ उद्देश्य के लिए होता है।हिंदुत्व को अंततः हिंसक भीड़ में खुद को बदलना पड़ता है जो यह मानती है कि हिंदू धर्म के महान ऐतिहासिक हितों के आगे व्यक्ति के दूसरे अधिकार जैसे मर्जी से विवाह, खानपान, जाति-परिवर्तन आदि व्यर्थ हो चुके हैं। इन अधिकारों की बात करना हिंदुत्व के ऐतिहासिक मिशन के आगे क्षुद्र-ओछा काम करना या छोटी बात करने जैसा है।
हिंदुओं को मजबूत समुदाय में ढालने के नाम पर हिंदुत्व व्यक्ति की निजता व सम्मान से जुड़े अधिकारों को भी लेफ्ट-लिबरल लोगों की साजिश करार देता है। इसीलिए समलैंगिकता, यौन स्वतंत्रता, खान-पान की आजादी या अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ हिंदू धार्मिक संगठन आंदोलन करते रहे हैं। इन निजी अधिकारों को पश्चिमी समाज, कम्युनिस्ट या उदारवादियों के दिमाग की उपज मानते हैं। उनकी दृष्टि में निजता की पूरी बहस हिंदूवादी राजनीति व हिंदू संगठनों के हिंसक अभियानों पर रोक लगाती है और इसीलिए वह स्वीकार्य नहीं है।हिंदुत्व से प्रेरित भीड़ किसी के भी फ्रिज-टिफिन को चेक कर सकती है, पार्क में बैठे जोड़ों के घर-फोन नंबर आदि के बारे में धमका कर सूचना मांग सकती है, लोगों के धर्म का अनधिकृत तरीके से डेटा तैयार कर सकती है या फिर सोशल मीडिया पर अपने विरोधियों की ट्रोलिंग करते समय उनके बारे में गलत सूचनाएं एकत्र कर उनका चरित्र हनन कर सकती है।
किसी भी देश का फासीवाद-अधिनायकवाद मूलतः इस स्थापना पर आधारित होता है कि व्यक्ति के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसे निजी मानकर उसकी आजादी में दखल न दिया जा सके। एक सार्वजनिक मकसद के लिए वहां व्यक्तिगत सूचनाएं मांगी जाती हैं। धार्मिक-सांप्रदायिक उन्माद निजी स्वतंत्रताओं का वध करने में अपनी सफलता देखता है।तानाशाही की प्रवृत्ति वाले लोग मर्जी से अच्छे व बुरे कामों की सूचियां जारी करते हैं और लोगों की निजी जिंदगी को मसल डालते हैं। निगरानियों का सांगठनिक और डिजिटल तंत्र किसी के बारे में उपलब्ध सूचनाओं का दुरुपयोग करने के लिए संबंधित व्यक्ति की सहमति या अनुमति का इंतजार नहीं करता है।इसीलिए हिटलर की जर्मनी में 40 के दशक में यहूदियो को नाम बदलने से रोकने वाले कानून पारित हो गए थे ताकि उन्हें अपने बारे में कुछ भी छिपाने का मौका न मिले। उनके बारे में सारी सूचनाएं सार्वजनिक रहें। ऐसा कानून भी बना जिसमें उन्हें अपने पासपोर्ट को सिपुर्द करना अनिवार्य था ताकि नए पासपोर्ट पर बड़े अक्षर में ‘जे (J)’लिखा जा सके ताकि वे कहीं भी जाएं तो तुरंत नाजी अधिकारियों को पता चल सके कि वे यहूदी हैं।
21वीं सदी में सऊदी अरब में व्यभिचार को रोकने के नाम पर स्त्री विरोधी कानून हैं जहां किसी स्त्री की निजी यौन-स्वतंत्रता तो दूर बलात्कार होने पर उसे ही व्यभिचार का आरोपी बनाकर कोड़े मारे जाते हैं। इस तरह यौन विचलन (Sexual Deviance) रोकने के नाम पर स्त्री के बारे में सारे गोपनीय सूचनाएं जुटाना लगभग सभी समाजों में अबाध ढंग से चलता रहता है। भारत में हिंदुत्व की राजनीतिक सफलता के दौर में भी व्यक्ति की निजता पर राजनीतिक हमलों की खबरें लगातार आती रही हैं। यूपी में एंटी रोमियो स्कवाड ने पार्क में बेहद निजी चुनाव के तहत बैठे प्रेमी जोड़ों के साथ हिंसा की। पार्कों पर धावा बोलने वाली पुलिस ने बिना किसी कानूनी प्रक्रिया को पूरा किए जबरन उनके पहचान पत्र उनसे मांगे और उनके घरों में फोन किए। सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार मामले में यह भी कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर किसी की निजता खत्म नहीं होती है। प्रेमी जोड़ों पर पुलिसिया निगरानी की बेहूदगी से लड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट की इस बात को भी पुलिस-प्रशासन को याद दिलाया जा सकता है। इस बात को भी कि व्यक्ति की चाहत और जीवनशैली उसकी निजता है, सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते समय साफ शब्दों में कहा है कि ये किसी को नहीं पसंद आता कि उसे बताया जाए कि क्या खान है, क्या पहनना है। यानी खाने, पहनने की आजादी भी निजता के अधिकार में शामिल है। गुरमीत मेहर नामक लड़की ने जब पाकिस्तान से युद्धविरोधी अभियान के तहत अपनी तस्वीर फेसबुक पर पोस्ट की तो उसे धमकाने-डराने के लिए एबीवीपी ने उसके खिलाफ नया ‘फेक वीडियो’ तैयार कर दिया जिसमें वह कार में कुछ लड़कों के साथ नाचती-गाती दिखाई गई। सवाल यह तो है ही कि किसी स्त्री के बारे में फर्जी विडियो तैयार करने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई! पर यह भी है कि कोई लड़की अगर मर्जी से नाच-गाने, मनोरंजन आदि में लिप्त है तो उसका वीडियो तैयार कर उसे वायरल करने का किसी भी संगठन को क्या अधिकार है! क्या किसी स्त्री को बदनाम करने के लिए उसकी निजता पर हमला करना हिंदुत्व की जानी-पहचानी रणनीति नहीं रही है? उसे चरित्रहीन, वेश्या, कुलटा या बदचलन साबित करने के लिए उसके बारे में मिथ्या प्रचार करना उसकी निजता का उल्लंघन नहीं है?
क्या निजता का अधिकार अब जीवन के अधिकार का अंग हो जाने के बाद किसी के बारे में सूचनाएं चुराने, तथ्य को तोड़-मरोड़कर पेश करने या फिर किसी के घर-आंगन की चीजों के आधार पर उसके साथ मारपीट करने के मामले में व्यक्ति को ज्यादा अधिकार संपन्न बना सकेगा? ये प्रश्न है और इनका उत्तर तभी ठीक तरीके से मिल सकता है जब स्वयं भारतीय पुलिस-प्रशासन निजता के अधिकार की रक्षा करने के लिए स्वयं को केवल कागजाती नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी तैयार कर सके! कोर्ट ने निजता के अधिकार को मानवीय अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा तथा नैसर्गिक अधिकार बताकर केवल सरकार नहीं बल्कि स्वयंभू धार्मिक संगठनों को भी हतोत्साहित करने का काम किया है। भारतीय समाज में सरकार की शक्ति के समानांतर मजबूत होते हिंदूवादी संगठनों को भी निजता की बहस को समझना होगा और अपने चरित्र को बदलना होगा। सरकार चाहेगी की निजता का अधिकार केवल डेटा प्राइवेसी का मसला बनकर रह जाए। पर यह व्यापक अर्थ और सरोकार वाला फैसला है जो हिंदुत्ववादियों की राजनीति को भी नए सिरे से गैरकानूनी साबित करता है।
वैभव सिंह अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापक हैं. vaibhavjnu@gmail.com पर उनसे समपर्क किया जा सकता है.