‘‘जब पानी में आग लगी थी’’
प्रस्तावना
‘क्या पानी में आग लग सकती है ?’’
किसी भी संतुलित मस्तिष्क व्यक्ति के लिए यह सवाल विचित्र मालूम पड़ सकता है। अलबत्ता सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर निगाह रखनेवाला व्यक्ति बता सकता है कि जब लोग सदियों से जकड़ी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ कर आगे बढ़ते हैं तो न केवल /बकौल शायर/ ‘आसमां में भी सुराख हो सकता है’ बल्कि ‘ पानी में भी आग लग सकती है।’
2017 का यह वर्ष पश्चिमी भारत की सरजमीं पर हुए एक ऐसे ही मौके की नब्बेवी सालगिरह है, जब सार्वजनिक स्थानों से छूआछूत समाप्त करने को लेकर महाड नामक जगह पर सार्वजनिक तालाब से पानी पीने के लिए डा अंबेडकर की अगुआई में हजारों की तादाद में लोग पहुंचे थे। /19-20 मार्च 2017/ कहने के लिए यह एक मामूली घटना थी, लेकिन जिस तरह नमक सत्याग्रह ने आज़ादी के आन्दोलन में एक नयी रवानी पैदा की थी, उसी तर्ज पर इस अनोखे सत्याग्रह ने देश के सामाजिक सांस्कृतिक पटल पर बग़ावत के नए सुरों को अभिव्यक्ति दी थी।