2024 की शुरूआत में भारत एक प्रचंड बदलाव की दहलीज पर खड़ा है। सभी जनतंत्र प्रेमी, इन्साफ पसंद और अमन के चाहने वालों के सामने यही बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है कि 2024 के संसदीय चुनावों में- जो मई माह के अंत तक संपन्न होगा तथा नयी सरकार बन जाएगी (अगर उन्हें पहले नहीं कराया गया तो)- का नतीजा क्या होगा?
क्या वह सत्ता के विभिन्न इदारों पर भाजपा की जकड़ को ढीला कर देगा, क्या वह जनतंत्र की विभिन्न संस्थाओं को निष्प्रभावी करने की या उनका हथियारीकरण करने की सोची समझी रणनीति को बाधित कर देगा, क्या वह धर्म के नाम पर उन्मादी तक हो चुकी जनता में इस एहसास को फिर जगा देगा कि 21वीं सदी में धर्म और राजनीति का घोल किस तरह खतरनाक है या वह भारतीय जनतंत्र की अधिकाधिक ढलान की तरफ जारी यात्रा को और त्वरान्वित कर देगा, भारत के चुनावी अधिनायकतंत्र ( electoral autocracy) की तरफ बढ़ने की उसकी यात्रा आगे ही चलती रहेगी
परवेज हुदभॉय (Pervez Hoodbhoy) भारतवासियों के लिए अपरिचित नाम नहीं है!
जानेमाने भौतिकीविद और मानवाधिकार कार्यकर्ता के अलावा उनकी पहचान एक ऐसे सार्वजनिक बुद्धिजीवी के तौर पर है जिनके अन्दर बुनियादपरस्त ताकतों से लोहा लेने का माददा है। पाकिस्तान में इस्लामीकरण की बढ़ती आंधी में वह ऐसे शख्स के तौर पर नमूदार होते हैं, जो सहिष्णुता, तर्कशीलता, की बात पर जोर देते रहते हैं। नाभिकीय हथियारों से लैस दोनों पड़ोसी मुल्कों में आपस में अमन चैन कायम हो इसके लिए आवाज़ बुलंद करते रहते हैं।
पिछले दिनों ‘डॉन’ अख़बार में लिखे अपने नियमित स्तंभ में उन्होंने पाठयपुस्तकों के माध्यम से प्रचारित किए जा रहे विज्ञान विरोध पर लिखा।( http://www.dawn.com/news/1300118/promoting-anti-science-via-textbooks ) खैबर पख्तुनख्वा में प्रकाशित जीवविज्ञान की पाठयपुस्तक का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह उसमें चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत को सिरेसे खारिज किया गया है। किताब में लिखा गया है कि चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रस्तावित इवोल्यूशन अर्थात विकासवाद का सिद्धांत ‘अब तक का सबसे अविश्वसनीय और अतार्किक दावा है।’ किताब इस धारणा को ही खारिज करती है कि संश्लिष्ट जीवन सरल रूपों से निर्मित हुआ। किताब के मुताबिक यह विचार कामनसेन्स/सहजबोध का उल्लंघन करता है और यह उतनाही ‘बकवास’ है जब यह कहा जाता हो कि दो रिक्शा के टकराने से कार विकसित होती है। हुदभॉय के मुताबिक प्रस्तुत किताब अपवाद नहीं है। खैबर पख्तुनवा की एक अन्य किताब बताती है कि ‘‘एक सन्तुलित दिमाग का व्यक्ति पश्चिमी विज्ञान के सिद्धांतों को स्वीकार नहीं कर सकता। /कहने का तात्पर्य सिर्फ पागल लोग स्वीकार सकते हैं ?/ सिंध की भौतिकी की पाठयपुस्तक स्पष्ट लिखती है कि ‘ब्रहमाण्ड तब अचानक अस्तित्व में आया जब एक दैवी आयत/श्लोक का उच्चारण किया गया।’ विज्ञान का यह विरोध निश्चित ही पाठयपुस्तकों तक सीमित नहीं है। वहां विज्ञान और गणित के तमाम अध्यापक अपने पेशे से असहज महसूस करते हैं। Continue reading परवेज हुदभॉय क्यों चिन्तित हैं ?→
Never Be Deceived That the Rich Will Permit You To Vote Away Their Wealth
– Lucy Parsons
..लोग सोच रहे हैं कि आखिर जनतंत्र हर ओर दक्षिणपंथी हवाओें के लिए रास्ता सुगम कैसे कर रहा है, अगर वह ‘युनाईटेड किंगडम इंडिपेण्डस पार्टी’ के नाम से ब्रिटन में मौजूद है तो मरीन ला पेन के तौर पर फ्रांस में अस्तित्व में है तो नोर्बर्ट होफेर और फ्रीडम पार्टी के नाम से आस्टिया में सक्रिय है तो अमेरिका में उसे डोनाल्ड ट्रम्प के नाम से पहचाना जा रहा है। वैसे इन दिनों सबसे अधिक सूर्खियों में ब्रिटेन है, जिसने पश्चिमी जनतंत्र के संकट को उजागर किया है।
ब्रिटेन को यूरोपीयन यूनियन का हिस्सा बने रहना चाहिए या नहीं इसे लेकर जो जनमतसंग्रह हुआ, जिसमें सभी यही कयास लगा रहे थे कि ब्रिटेन को ‘अलग हो जाना चाहिए’ ऐसा माननेवालों को शिकस्त मिलेगी, मगर उसमें उलटफेर दिखाई दिया है; वही लोग जीत गए हैं। और इस बात को नहीं भुला जा सकता कि जो कुछ हो हुआ है उसमें प्रक्रिया के तौर पर गैरजनतांत्रिक कुछ भी नहीं है। दक्षिणपंथ के झण्डाबरदारों ने ऐसे चुनावों में लोगों को अपने पक्ष में वोट डालने के लिए प्रेरित किया है, जो पारदर्शी थे, जिनके संचालन पर कोई सवाल नहीं उठे हैं।
Sixty seven years ago, independent India adopted a democratic constitution that created a platform for equality and justice by ensuring the participation of all. Our constitution-makers were concerned to maintain a secular society free from any divisions of caste, sect and religion.
What has become of that vision? A large part of the population lives in extreme poverty. Millions of Indians are denied their fundamental rights. There are strong linkages amongst powerful capitalists, biased officials and unscrupulous political representatives. The political system is in danger of being taken over and run for the benefit of the rich, rather than for the vast bulk of the Indian people. Communal forces of all colours thrive in our society. Their growth has been evident since the Delhi carnage of 1984. Biased behavior has appeared in the media, police, bureaucracy and executive. We are witnessing the criminalisation of the state. One example of this is the operation of private armies all over the country.
बहुत दहाड़ते हैं फेकू महाराज. गुजरात के शेर. 56 इंच के सीने वाले. यकीन न हो तो यह देख लीजिये बाएँ बाज़ू पर छपी तस्वीर. गरजते हुए शेर के कम लग रहे हैं? ऐसा दहाड़ना, ऐसा गरजना की अच्छे अच्छों की रूह कांप जाए. और क्यों न हो? कौन भूल सकता वो दिन – जिसे आज मीडिया की धुआंदार बमबारी भुला देने पर अमादा है. अंग्रेजी में एक शब्द है इस तरह की बमबारी के लिए – carpet bombing, यानि कालीन कि माफ़िक बम से ज़मीन को ढक देना. पिछले कुछ वक़्त से हमारी इन्द्रियों पर जो हमला हो रहा, कुछ इसी किस्म का है. मगर वो लाख चाहे कि इन महाशय की सारी करतूतें भुला दी जाएँ, ऐसा कैसे हो सकता है? जब जब यह शक्ल सामने आती है तब तब नाखूनों में खून दिखाई दे जाता है. वैसे भूलने भुलाने वाले भी अजीब मिट्टी के बने होते हैं. अब देखिये न जी, हिन्दुओं से कहते हैं की चार सौ साल पुरानी मस्जिद भी मत भूलना – बाबर का बदला लेना है और मुसलमानों से कहते हैं इतनी पुरानी बात – 2002 का रोना अब भी रोये जा रहे हो? इसे कहते हैं “चित भी मेरी, पट भी मेरी – और अंटा मेरे बाप का”. खैर जिन्हें बदला लेना था उन्होंने ले लिया. किस का बदला किससे – कौन जाने? क्या फ़र्क पड़ता है आखिर? वैसे गनीमत है कि पब्लिक सब जानती है – इसलिए ज्यादातर हिन्दू भी इनकी नहीं सुनते. इसी लिए इन्हें हर चुनाव से पहले आग लगानी होती है. खैर, ये तो ठहरे मर्जी के बादशाह – मगर उन मीडिया वालों की क्या कहिये, या उन नए नवेले भक्तों और भक्तिनों की जो सब जान कर अनजान बने हैं?
मज़े की बात यह है कि जैसे की यह शेर अकेले में धर लिया जाता है – जहाँ खुले मैदान में दहाड़ना क़ाफ़ी नहीं, जहाँ सवाल का जवाब देना ही होता है, जहाँ चालाकी से किसी को भी “पाकिस्तानी एजेंट” वगैरह कहा नहीं जा सकता है – वहीँ फेकूराम बगलें झाँकने लगते हैं. घूँट भरते हैं, पानी मांगते हैं और फिर मौन व्रत. एक बार तो स्टूडियो से ही उठ कर चल दिए थे. अभी हाल में हेलिकोप्टर में फँस ही गए तो चेहरा फीका पड़ गया (देखिये नीचे दूसरा वीडियो).
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाला हिन्दोस्तां और दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र में शुमार संयुक्त राज्य अमेरिका – जो पिछले दिनों बिल्कुल अलग कारणों से आपस में एक नूराकुश्ती में लगे हुए रहे हैं – के दो अहम शहर न्यूयॉर्क और दिल्ली, पिछले दिनों लगभग एक ही किस्म के कारणों से सूर्खियों में रहे। अगर न्यूयॉर्क में मेयर पद पर डी ब्लासिओ का चुनाव और उनका शपथग्रहण, जिन्होंने 12 साल से कायम रिपब्लिकन नेता को बेदखल किया, और सबसे बढ़ कर उनका प्रोग्रेसिव एजेण्डा सूर्खियों में रहा तो सूबा दिल्ली में एक साल पुरानी पार्टी ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) के नेता अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने सूर्खियां बटोरी।
दोनों को एक तरह से आन्दोलन की ‘पैदाइश’ के तौर पर देखा गया।
दो साल पहले अमेरिका में ‘आक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ के नाम से खड़े आन्दोलन ने आर्थिक विषमता पर बहस को एक नयी उंचाई दी थी, जब उसने 1 फीसदी बनाम 99 फीसदी का नारा दिया था, हजारों लोगों की सहभागिता ने और उनके अभिनव तौरतरीकों ने पूरी अमेरिका के मेहनतकशों में नयी ऊर्जा का संचार किया था। डेमोक्रेट पार्टी से जुड़े शहर के वकील डी ब्लासिओ ने आन्दोलन की हिमायत की थी, एक अस्पताल की बन्दी को लेकर चले विरोध प्रदर्शन में उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी। मेयर पद के लिए चले चुनाव प्रचार के दिनों में ही उन्होंने रईसों पर अधिक कर लगाने की बात की थी और ‘रोको और तलाशी लो’ जैसे न्यूयॉर्क पुलिस के विवादास्पद कार्यक्रम को चुनौती दी थी। वहीं अरविंद केजरीवाल , जनलोकपाल के लिए चले आन्दोलन जिसे लोकप्रिय जुबां में ‘अण्णा आन्दोलन’ कहा गया, उसके शिल्पकार कहे गये Continue reading ‘आप’ से मुलाक़ात→