Guest post by VAIBHAV SINGH
भारत खुद को भले किसी महान प्राचीन ज्ञान-परंपरा का वारिस समझता हो पर उसके विश्वविद्यालयों की दशा चंद चमकदार अपवादों के बावजूद खस्ताहाल है। उच्चशिक्षा की हालत किसी मरणासन्न नदी जैसी है जिसपर पुल तो बहुत बड़ा बन गया है पर पानी सूखता जा रहा है। भारत अपने साथ ही यह झूठ बोल रहा है कि वह ज्ञान या ज्ञानियों का आदर करता है, जबकि सचाई इसके विपरीत है। आधुनिक युग में भारत ने जितना ज्ञान की अवहेलना और अनादर किया है, उतना शायद ही किसी देश ने किया होगा। हर तिमाही-छमाही आने वाली रिपोर्ट्स हमें शर्मिंदा करती हैं कि संसार के सर्वोच्च 100 विश्वविद्यालयों में भारत के किसी विश्वविद्यालय को नहीं रखा जा सका। पूरा शिक्षा-जगत डिग्रियों की खरीदफरोख्त में लगे विचित्र किस्म के अराजक और अपराधिक सौदेबाजियों से भरे बाजार में बदलता जा रहा है। यहां अपराधी, दलाल और कलंकित नेता अपने काले धन व डिजिटल मनी की समन्वित ताकत लेकर उतर पड़े हैं और हर तरह की कीमत की एवज में कागजी शिक्षा बेचने लगे हैं। इस बाजार में ‘नालेज’ और ‘डिग्री’ का संबंध छिन्नभिन्न हो चुका है। कमाल की बात यह है कि यह स्थिति हमें चिंतित नहीं करती।
दूसरी ओर, उच्चशिक्षा अभी भी समाज की नब्बे फीसदी आबादी के लिए सपने सरीखी है। उच्चशिक्षा में जीईआर यानी दाखिले के अनुपात की गणना 18-23 आयुवर्ग के छात्रों को ध्यान में रखकर की जाती है और अभी भी भारत में केवल दस फीसदी लोग उच्चशिक्षा के संस्थानों के दरवाजे तक पहुंच पाते हैं। इसमें भी दलित व गरीब मुस्लिमों की हालत बेहद खराब है। दलितों में दो फीसदी से भी कम लोग उच्चशिक्षा प्राप्त कर पाते हैं तो मुस्लिमों में यह आंकड़ा केवल 2.1 फीसदी का है। भारत की ग्रामीण आबादी में केवल दो फीसदी लोग ही उच्च माध्यमिक शिक्षा के पार जा पाते हैं। ये आंकड़े भारत में उच्चशिक्षा की आम लोगों तक पहुंच की भयावह तस्वीर को प्रस्तुत करते हैं और दिखाते हैं कि हम जिन संस्थानों, बड़े कालेजों-विश्वविद्यालयों आदि को भारत के विकास के प्रमाण के रूप में पेश करने की इच्छा रखते हैं, वे देश की नब्बे फीसदी आबादी से बहुत दूर रहे हैं। Continue reading विश्वविद्यालय, अंध राष्ट्रवाद और देशभक्ति : वैभव सिंह