Guest post by RAJINDER CHAUDHARY
पंद्रह दिन एक व्यस्क मरीज़ के साथ कोरोना वार्ड में गुज़ार के जब मैं अपने शहर पहुंचा तो पाया कि मेरे सैक्टर को ही कन्टेन्मन्ट ज़ोन बना रखा था. कन्टेन्मन्ट ज़ोन यानी ऐसा इलाका जिस में आने-जाने के रास्ते बंद किये हुए थे ताकि कोरोना पीड़ित इस सैक्टर में आवाजाही न हो सके. यह दावा कि मैंने 15 दिन कोरोना वार्ड में अपने मरीज़ के साथ गुज़ारे उन लोगों को अविश्वसनीय लग सकता है जो बड़े शहर के बड़े हस्पताल में दाखिल अपने कोरोना पीड़ित मरीज़ से संपर्क करने को तरसते रहे हैं. परन्तु यह सच है. मैंने भी सपने में भी यह नहीं सोचा था कि कोरोना मरीज़ की देखभाल के लिए मुझे उस के साथ हस्पताल में रहना पड़ सकता है. सरकार की कोरोना नीति की बहुत सारी आलोचना मैंने पढ़ी-सुनी और की थी पर मुझे इस का अहसास नहीं था कि बाकी मरीजों की तरह हस्पताल में दाखिल अपने कोरोना मरीज़ की देखभाल भी खुद करनी होती है. सच में भारत धुर विसंगतियों का देश है. एक ओर हमारी सरकार पूरे इलाके को ‘कन्टेनमेंट ज़ोन’ (नज़रबंद इलाका) घोषित कर सकती है ताकि वहां से कोरोना पीड़ित दूसरी जगह जा कर संक्रमण को फैला न सकें और दूसरी ओर हस्पताल में कोरोना पीड़ित मरीज़ की देखभाल के लिए किसी परिजन को उस के साथ रहना पड़ता है. चौबीस घंटे तो कोई एक व्यक्ति मरीज़ की देखभाल कर नहीं सकता था. इस लिए हम दो लोग अपने परिजन की देखभाल के लिए उस के साथ शिफ्टों में रहते थे जिस के चलते हमारा कोरोना वार्ड से घर आना जाना लगा रहता था. इस से न केवल हम परिचारकों के संक्रमित होने का ख़तरा था अपितु नियमित तौर पर घर आने जाने के कारण हम और लोगों को भी संक्रमित कर सकते थे.
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